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काबुल का फ़ितना : महाशक्तियों का पुराना अखाड़ा और नया खेल

जावेद अनीस

तालिबान वापस आ गये हैं, इस बार पहले से अधिक मजबूती, स्वीकार्यता और वैधता के साथ. नाइन इलेवन के ठीक पहले उनकी यह वापसी उसी अमरीका से समझौते के बाद हुयी है जिसने 2001 में उन्हें सत्ता से बेदखल किया था. तालिबान के इस जीत की मुद्रा दुनिया के महाबली अमरीका के खिलाफ विजेता की तरह है. जिस अंदाज से अमरीका ने अफगानिस्तान से अपना पीछा छुड़ाया है उससे दुनिया भर में यह धारणा बनी है कि अफगानिस्तान से अमरीका की वापसी नहीं हुई है बल्कि वह पीठ दिखाकर भगा है. दूसरी तरफ तालिबान के प्रति यह सोच बनी है कि वे वैश्विक महाशक्तियों से लोहा ले सकते हैं. दुनिया भर के इस्लामी कट्टरपंथी भी तालिबान की इस कामयाबी को लेकर गदगद हैं.

इधर तालिबान दुनिया के सामने खुद का अधिक स्वीकार्य चेहरा पेश करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं इस बार वे डिप्लोमेसी और छवि निर्माण के महत्व को सीख गये लगते हैं. इस बार उनका सबसे अधिक जोर अपनी वैधता को लेकर हैं जिसमें वे काफी हद तक कामयाब भी साबित हो रहे हैं. अमरीका से तो वे समझौता करके वापस ही आये हैं, चीन और रूस जैसी दूसरी ताकतों का रुख भी उनके प्रति सकारात्मक है. वे संयुक्तराष्ट्र से भी अपनी वैधता हासिल करना चाहते हैं. इस संबंध में तालिबान सरकार के विदेश मंत्री द्वारा यूएन महासचिव को पत्र लिखकर आग्रह किया गया था कि उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा के 76वें सत्र में शामिल होने और अपनी बात रखने का मौका दिया जाये. इसी तरह से टाइम मैगजीन ने 2021 में दुनिया भर के जिन 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची प्रकाशित की है  उसमें तालिबान के नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर का नाम भी शामिल है.

लेकिन दुनियाभर के प्रगतिशील और अमनपसंद लोग तालिबान की वापसी और उनकी बढ़ती स्वीकार्यता को लेकर चिंतित हैं. दरअसल तालिबान एक रणनीति के तहत मुखौटा लगाकर खुद को अलग पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन उनका नया वर्जन ज्यादा घातक है क्योंकि जरूरत के हिसाब से वे अब गिरगिट की तरह रंग बदलन भी सीख गए हैं.

अफगानिस्तान से अमरीका के इस वापसी की तुलना वियतनाम में अमरीका की हार से की जा रही है जबकि बाइडन प्रशासन इसे “दुष्ट” राष्ट्रों के द्वारा अमरीका के खिलाफ एक सोची-समझी रणनीति बताने की कोशिश कर रहा है जिसमें चीन और ईरान प्रमुख रूप से शामिल है.

अमरीका अब “शांति” और “कूटनीति” की बात कर रहा है, संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए अपने भाषण में बाइडन ने कहा है कि “हम एक और शीत युद्ध नहीं चाहते….हमने अफ़गानिस्तान में 20 साल से चल रहे संघर्ष को ख़त्म कर दिया है और हम कूटनीति के दरवाजे खोल रहे हैं.” लेकिन लोकतंत्र, आधुनिक मूल्यों के रक्षक और आतंकवाद से लड़ाई का दावा करने वाले महाशक्ति अमरीका की नीतियां हमेशा से ही  मतलबी, विरोधाभासी और दोगली रही हैं. यह अमरीका ही है जिसने खुदा के वजूद से इनकार करने वाले अफगान कम्युनिस्टों और सोवियत-संघ के खिलाफ मुजाहिदीन को खड़ा करने में प्रमुख भूमिका निभायी.

2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद अमरीका और अफगानिस्तान एक तरह से तालिबान के खिलाफ युद्ध छेड़े रहा. लेकिन इसके 20 वर्षों बाद अमरीका इसी तालिबान से कूटनीति समझौता कर लेता है. अमरीका के इस कदम से तालिबान के हौंसले बुलंद है, वे इसे अपनी एकतरफा जीत की तरह पेश कर रहे हैं जबकि अमरीका इसे एक समझौता तक कहने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. अमरीका के इस कदम से दुनिया भर में उसके इकबाल को गहरा आघात लगा है. चीन के मीडिया ने अमरीका पर तंज़ करते हुए लिखा है कि “अफगानिस्तान में ‘सत्ता परिवर्तन’ अमेरिकी राष्ट्रपति बदलने की तुलना में अधिक स्मूथ है.”

तालिबान नहीं उनकी रणनीति बदली है

तालिबान की विचारधारा इस्लाम के रूढ़िवादी व्याख्या पर आधरित है और इसी के आधार पर वे खुद को संचालित करते हैं. पिछली बार जब वे सत्ता में आये थे तो उन्होंने अपने इसी विचारधारा को बहुत ही बेहरमी से लागू किया था. इस दौरान तानाशाह इस्लामिक अमीरात की स्थापना की था और उनका यह दौर अफगानिस्तान, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, उदारवादियों और  शियाओं आदि के लिए जहन्नुम साबित हुआ था.

इस बार वे खुद को बदला हुआ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन यह उनकी रणनीति है कि वे इस तरह से दुनिया में अपने शासन की वैधता और अंतरराष्ट्रीय मदद चाहते हैं. उनकी विचारधारा वही है लेकिन इसको लेकर वे पहले से ज्यादा शातिर और चालाक हो गये. इस बार उन्होंने अपनी विचारधारा में अफगान राष्ट्रवाद भी शामिल कर लिया है. इस बार वे खुद को सिर्फ इस्लाम ही नहीं बल्कि अफगानिस्तान के रक्षक के तौर पर पेश करने में कामयाब रहे हैं. वे अमरीका जैसी ताकतों के साथ “सम्मानजनक” समझौता करने में कामयाब रहे हैं जो उनकी बढ़ी हुयी कूटनीतिक समझ को दर्शाता है. वे अपने छवि निर्माण पर भी काफी ध्यान दे रहे हैं, इसके लिए सोशल मीडिया जैसे माध्यमों का भरपूर उपयोग कर रहे है. वे इस बात का पूरा ध्यान रख रहे हैं कि इस बार विचलित करने वाली तस्वीरें दुनिया के सामने न आ सकें.

लेकिन वे अब भी अपनी मूल विचारधारा पर दृढ़ता से कायम है बस इस बार इसमें वे व्यावहारिकता लाने की कोशिश कर रहे हैं. इस बार भी उन्होंने अफगानिस्तान को इस्लामिक अमीरात बनाया है, वे पिछली बार की तरह इस बार भी शरिया कानून लागू कर रहे हैं. महिलाओं और लड़कियों को वे “शरीअत” के दायरे में “अधिकार” देने की बात कर रहे हैं. तालिबान के अंतरिम उच्च शिक्षा मंत्री अब्दुल बाकी हक्कानी का कहना है कि लड़कों और लड़कियों को एक साथ पढ़ने की अनुमति नहीं होगी साथ ही इस्लाम के खिलाफ लिखी हर चीज को शिक्षा व्यवस्था से हटा दिया जाएगा. यही तो उन्होंने पिछली बार भी किया था. एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि तालिबान भले ही यह जतलाने की कोशिश कर रहे हों कि वे इस बार बदल गए हैं, असल में वे पिछले 20 सालों में किये गये प्रगतिशील सुधारों को बहुत तेजी से खत्म कर रहे हैं.

महाशक्तियों का पुराना अखाड़ा और नया खेल

अफगानिस्तान हमेशा से ही महाशक्तियों का पुराना अखाड़ा रहा है जहां वे अपनी ताक़त आजमाते रहे हैं. पहले ब्रिटेन, सोवियत रूस , अमरीका और पश्चिम देश और अब चीन. इन सबके बीच सोवियत के समय से पाकिस्तान चालाक लोमड़ी की भूमिका में है जिसके दोनों हाथों में लड्डू है. संयुक्त राज्य अमेरिका का बाइडेन प्रशासन यह जतलाने की कोशिश कर रहा है कि उसने एक सोची-समझी रणनीतिक योजना के आधार पर अफगानिस्तान को खाली किया है, इसका खुलासा करते हुए बाइडेन कह चुके हैं कि वे “चीन से बेहतर तरीके से लड़ने के लिए अफगानिस्तान से बाहर हुए हैं”.लेकिन शायद बाइडेन यह भूल रहे हैं कि यह कोई नब्बे का दशक नहीं है और ना ही चीन कोई सोवियत रूस है. चीन अपने आप में एक ऐसी व्यवस्था है जो वामपंथी राजनीतिक ढ़ांचे से पूंजीवाद का संचालन कर रहा है, अटपटी से लगने वाली यह व्यवस्था इतनी सफल साबित हुई है कि इसने पिछले कुछ दशकों के दौरान ही चीन को महाबली अमरीका के मुकाबले में लाकर खड़ा कर दिया है. सोवियत रूस की तरह अपने “माडल” को दूसरे मुल्कों में एक्सपोर्ट करने की उसे कोई दिलचस्पी नहीं है. चीन एक सूदखोर लाला की तरह है जिसका पूरा जोर अपने आर्थिक हित में है. इसलिए अफगानिस्तान से अमरीका के हटने को चीन एक मौके के तौर पर देख रहा है, ना केवल आर्थिक तौर पर बल्कि एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करने के तौर पर भी. चीन ने तालिबान को अफगानिस्तान की वास्तविकता बताते हुए इसे स्वीकार करने का सन्देश दिया है. चीन ने अफगानिस्तान में शांति और पुनर्निर्माण में “अहम भूमिका” निभाने की बात की है साथ ही तालिबान को अफगानिस्तान की ‘संप्रुभता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता’ के सम्मान का भरोसा भी दिलाया है.

इधर पाकिस्तान भी अफगानिस्तान में घटनाक्रम को लेकर उत्साहित नजर आ रहा है. इमरान ख़ान ने अफगानिस्तान के तालिबान के कब्जे में होने के बाद बयान दिया था कि ”अफ़ग़ानिस्तान ने ग़ुलामी की ज़ंजीरें तो तोड़ दी है.”

लेकिन काबुल के इस नये फितने से दुनिया आशंकित भी है. क्योंकि दुनिया के लिए तालिबान शासित अफगानिस्तान की स्थिति “उत्तर कोरिया” नहीं होने वाली है जो अपने आप में एक बंद टापू है. तालिबान एक ऐसी विचारधारा है जिसमें दुनिया भर में प्रभावित होने वाले चरमपंथी संगठन और लोग है. तालिबान की इस जीत से उन्हें हौंसला और ताकत मिला है. दुनिया भर में मुसलमानों के समूह द्वारा तालिबान की जीत की तुलना मक्का पर इस्लाम की जीत से की गयी है. जाहिर है इस जीत का दायरा भले ही चिंता हो लेकिन मुस्लिम मानस में इसका बड़ा और गहरा नैरेटिव बना है.

अगर इस बार तालिबान लम्बे समय तक टिकने में कामयाब रहे तो दक्षिण एशिया इस्लामी चरमपंथयों का एक नया बैटलग्राउंड बन सकता है जिसके चपेट में भारत, चीन, रूस, ईरान से लेकर मध्य एशिया के कई देश शामिल हो सकते हैं. लेकिन सबसे बड़ा निशाना पाकिस्तान बन सकता है, जो ना केवल अफगानिस्तान के साथ सबसे लम्बी सीमा साझा करता है, बल्कि पाकिस्तान के कई चरमपंथी संगठनों का तालिबान के साथ वैचारिक साझापन भी है. इसमें सबसे बड़ा नाम तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान है जो इमरान खान की ही तरह अफगानी तालिबानों की इस जीत से बहुत उत्साहित है. हालाकि टीटीपी और इमरान खान के उत्साहित होने की वजह बिलकुल अलग है और भविष्य में यही पाकिस्तान के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है.

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भारत में मुस्लिम समुदाय के एक समूह द्वारा तालिबान के जश्न में शामिल होना बहुत ही निराशाजनक है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना खलील-उर-रहमान सज्जाद नोमानी तालिबान के “इस्लामी जज्बे” को लेकर सलाम पेश करते हुए नजर आये. भारतीय मुसलामानों को समझना होगा कि अगर बाबरी मस्जिद का गिराया जाना गलत हैं तो बामियान में बुद्ध की मूर्ति तोड़ने वालों को भी सही नहीं ठहराया जा सकता है.

यह तालिबान से ज्यादा दुनियाभर में फैले इस्लामी चरमपंथियों की जीत है जिसमें आईएसआईएस, बोको हराम और अल-कायदा जैसे दर्जनों संगठन और लाखों लोग शामिल हैं. इनका एक ही लक्ष्य है इस्लाम की अतिवादी व्याख्या के आधार पर दुनिया भर में फितना और फसाद पैदा करना.

(लेखक स्वतंत्र लेखन करते हैं। यह उनके निजी विचार हैं)

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