केपी सिंह
लोक सभा चुनाव निपटने के बाद उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ की छवि चमकाने का अभियान रफ्तार पर है। जिससे राज्य की मीडिया पूरी तरह ओत-प्रोत नजर आ रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके दो टूक निश्चय को जोरशोर से प्रचारित किया जा रहा है।
योगी आदित्य नाथ ने जब सूबे की सत्ता संभाली थी उस समय भी इस मोर्चे पर मीडिया ने उनकी कार्रवाइयों को बढ़ाचढ़ा कर पेश करने में कसर नही छोड़ी थी। उनके शपथ लेने के दो-तीन महीने तक इस माहौल के चलते उत्तर प्रदेश में रिश्वतखोरी का ग्राफ काफी नीचे हो गया था। लेकिन इसके बाद अवांछनीय तत्वों ने योगी के ढुलमुल रुख को परख लिया।
योगी ने भी अपनी तोपों का मुंह भ्रष्टाचार की ओर से हटाकर विवादित मुददों की ओर मोड़ दिया तांकि अल्पसंख्यकों के चढ़े मनोबल को जमीन पर लाने का मकसद पूरा कर सकें जो कि उन्हें वोट देने वाले तबकों की शायद सबसे पहली अपेक्षा थी। इसलिए भ्रष्टाचार से कराहने के बावजूद लोगों में परपीड़न के आनंद जैसा खुशनुमा एहसास तारी रहा।
लेकिन योगी भी जानते है कि भ्रष्टाचार को लेकर लोगों को ज्यादा दिनों तक गफलत में नही रखा जा सकता। इसलिए भ्रष्टाचार पर मीडिया में जिहादी हल्ला बोला जा रहा है। आर्थिक अपराध संगठन में मुकदमें के लिए लंबित 103 मंजूरियां जारी करने के कदम को भ्रष्टाचार पर एक बड़ी चोट के बतौर प्रकाशित प्रसारित किया गया।
50 साल से अधिक उम्र के अधिकारियों, कर्मचारियों की स्क्रूटनी और उसके आधार पर नाकारा व दागी कारिंदों की जबरिया सेवा निवृत्ति के लिए की जा रही कार्रवाई को भी बहुत ही अभूतपूर्व क्रांति के कदम जैसा प्रदर्शित किया जा रहा है। लेकिन ढोल चाहे जितना पीटा जा रहा हो, जमीनी स्तर पर एक अदने से कर्मचारी में भी किसी तरह की सिहरन नही है।
भ्रष्टाचार के बढ़ते प्रकोप ने जनता के सारे मौलिक अधिकारों को खोखला कर दिया। शासन तंत्र की सफलता पर इससे बड़ा प्रश्न चिन्ह और कोई नही हो सकता। फिर भी सरकार को उतनी चोट महसूस नही हो रही जितनी होनी चाहिए यह बिडंबना है।
भ्रष्टाचार के कई रूप
भ्रष्टाचार के कई रूप हैं। पहला तो सरकार में बैठे लोगों द्वारा बड़े टेंडर की मंजूरी, सप्लाई आदि के बड़े ठेकों में लिये जाने वाला कमीशन। अधिकारियों की ट्रांसफर, पोस्टिंग में वसूली। दावा यह है कि वर्तमान निजाम में ऐसी धांधलियां लगभग समाप्त हो गईं हैं। लेकिन क्या सचमुच इस सरकार के मंत्री दूध के धुले हैं। इस सवाल का जबाव असहज कर देता है जबकि वर्तमान मंत्री भी पूर्व की सरकारों के मंत्रियों की तरह ही अपनी चल-अचल संपत्ति के आयतन को बढ़ाते देखे जा रहे हैं।
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क्या उन्हें सुख समृद्धि का कोई दैवीय वरदान फलीभूत हो रहा है। सही बात यह है कि आज भी ज्यादातर मंत्रियों के विभागों में मलाईदार पदों की पोस्टिंग के लिए बोली लगती है। नतीजतन महत्वपूर्ण कुर्सी पर बैठने वाले अधिकारी साफ-सुथरे ढंग से काम करने की बजाय दोनों हाथों से लूटने में तल्लीन हैं। बस यही कहा जा सकता है कि सरकारी तंत्र की लूट की डिग्री पहले से कम हुई है।
पैतरेबाजी से नही रुकेगा भ्रष्टाचार
इस मामले में भ्रष्टाचार पर अंकुश के नाम पर पैतरेबाजी भर हो रही है। पूर्व की सरकारों के मामलों की जांच का हव्वा खड़ा किया जाना ऐसे पैतरों की एक बानगी है। पहले के लोग पापी थे, यह साबित करके खुद को पाक साफ साबित करने का तरीका कामयाब मनोवैज्ञानिक ट्रिक है।
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विजीलेंस को प्रभावी बनाकर मंत्रियों और नौकरशाहों की बढ़ती हैसियत पर सतत निगरानी की व्यवस्था एक ऐसा नीतिगत कदम हो सकती है जिससे ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोग काफी हद तक पाबंद हो जायें। लेकिन इस ओर न सोचा जाना जिम्मेदारों की नीयत में खोट को जाहिर करता है।
संस्थागत सुधार की अनदेखी
भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए कई शाखाएं बेतरतीब ढंग से काम कर रही हैं जिन्हें व्यवस्थित करने के लिए किसी संस्थागत सुधार के बारे में अभी सोचा तक नही गया है। एक बार मायावती के कार्यकाल में विजीलेंस, ईओडब्ल्यू, एंटी करप्शन आदि को समवेत करने पर विचार हुआ था जो परवान नही चढ़ सका था। क्या आज ऐसा करने और अन्य राज्यों की तरह इन शाखाओं को लोकायुक्त के अधीन संचालित करने का प्रयास नही होना चाहिए।
बड़े जिगर वाले भ्रष्टाचारी
भ्रष्टाचार का सबसे जघन्य रूप यह है कि हत्या की रिपोर्ट लिखवाने के नाम पर भी थानों में पैसे लिये जा रहे हैं। बेरोजगारों को भी आय-जाति प्रमाण पत्र बनाने में नही छोड़ा जा रहा है। यहां तक कि कुष्ठ रोगियों के भत्ते से भी कटौती करने का जिगर भ्रष्टाचार करने वाले रखते हैं। रोजमर्रा के इस भ्रष्टाचार का अंत सरकार को अपना इकबाल प्रमाणित करने की दृष्टि से सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन यह चुनौती तब महसूस हो सकती है जब सरकार में बैठे लोगों में खुद्दारी हो।
जब महाभ्रष्ट के चुनाव से मची खलबली
यूपी में ही एक बार आईएएस एसोसिएशन के युवा सदस्यों ने अपने संवर्ग के सबसे भ्रष्ट अफसरों के चुनाव का एलान करके तहलका मचा दिया था। दागी अफसरों में अपनी ही बिरादरी के युवाओं के इस तेवर से खलबली मच गई थी और लोकलाज के कारण वे संभल कर चलने को मजबूर हो गये थे।
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राजस्थान में एक आईपीएस अधिकारी ने सबसे भ्रष्ट अफसर को चिन्हित करके अवार्ड देने का शिगूफा छेड़ा तो यह भी अपना असर दिखाये बिना नही रहा। दिल्ली में दो बड़े एनजीओ ने ऐसे ही प्रयास से भ्रष्ट अफसरों में सिहरन पैदा कर दी थी। भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में सरकार प्रत्येक जिले में कुछ महत्वपूर्ण विभागों के सबसे भ्रष्ट अफसर और कर्मचारियों के नाम लिखकर लोगों से गोपनीय पत्र मुख्यमंत्री को भेजने का आग्रह कर सकती है। निश्चित रूप से इसका भी बेहद असर होगा लेकिन सरकार इस मामले में औपचारिकता से आगे नही बढ़ना चाहती।
कम भ्रष्ट नही है राजनीतिक तंत्र
शायद इसका एक कारण यह भी है कि राजनीतिक तंत्र भी कम भ्रष्ट नही है। विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ इस मामले में लगातार शिकायतें प्राप्त हो रहीं हैं। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री के साथ-साथ कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे उस समय उन्होंने सभी जिलों में संगठन के प्रशिक्षित जिला समन्वयक नियुक्त किये थे।
कार्डिनेटर बाहरी जिले का और प्रायः दूसरे प्रांत का होता था तांकि वह किसी को निपटाने की मंशा से काम न कर सही ढंग से रिपोर्ट दे। जिलों के कार्डिनेटर सांसद, विधायक और मंत्रियों की फलती-फूलती हैसियत का ब्यौरा राजीव गांधी तक पहुंचाते रहते थे। जिससे उनकी पार्टी के नेता सतर्क रहकर काम करने के लिए मजबूर हो गये थे। क्या ऐसा कोई प्रबंधन मोदी और योगी नही कर सकते। दोनों ही नेता व्यक्तिगत रूप से भले ही ईमानदार हों लेकिन उन्होंने पार्टी और प्रशासन के भ्रष्टतंत्र के आगे घुटने टेक रखे हैं। उनको इस धारणा को बदलना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)