वीरेंदर भाटिया
बात उन दिनों की है जब मैं स्कूली छात्र था। गांव में सरकारी स्कूल की पढ़ाई का स्तर बहुत अच्छा था। हमारे सभी शिक्षक बेहद कुशल और ज्ञानवान थे। मुझे हिंदी अध्यापक ज्यादा पसंद थे क्योंकि उनका समझाने का ढंग बेहद सरल और रोचक था।
एक दिन उन्होंने कहा कि महाभारत एक काल्पनिक कहानी है इसे जिंदगी में इसी संदर्भ में देखिए। पहली बार अपने पसंदीदा शिक्षक पर गुस्सा आया। मन किया कि शिक्षक को कुर्सी से ही घसीट लू। आज कोई धर्म ग्रंथो पर बात सुनते वक्त गुस्सा हो जाता है तो मन मे वही ख्याल आया जाता है कि 9वी कक्षा में मैंने भी तो किया था। इनकी नोवी अब आयी होगी।
अगले ही दिन उन्होंने हमें मुंशी प्रेमचन्द की ठाकुर का कुंआ पढ़ानी थी। कहानी पढ़ाने से पहले उन्होंने मुन्शी प्रेम चन्द के बारे मे बताया। बताते ही गये और पीरियड खत्म हो गया। इतना लंबा भी कोई पढ़ाता है लेखक के बारे में। मैं गुस्से में था लेकिन प्रेम चन्द को इतना बड़ा बताया तो लगा कि खूब ही लिखता होगा। कहानी पढऩे की इच्छा बलवती हो गयी लेकिन पढ़े कहां। टेक्स्ट बुक तो थी ही नही। तब तक आयी नही थी बाजार मे। आज जैसा ही हाल था तब भी लेकिन शिक्षक इस भरोसे बैठे नही रहते थे कि बुक आएगी तभी पढ़ाएंगे।
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अगले दिन कहानी पढ़ाई गयी। ठाकुर का कुंआ। पूरा पीरियड कहानी में गया। मन मे विक्षोभ भी उठता रहा कि कैसा समाज है, कौन लोग हैं जिन्हें ठेकेदारी दे दी गई। कहानी के अंत मे तो गुस्सा आने लगा। ये तो अच्छा हुआ कि गंगी पानी ला नही सकी लेकिन ले आती तो। जोखू को गंगी पर विश्वास रखना चाहिए था। गुरु जी कहते है कि महाभारत काल्पनिक ग्रन्थ है, देखो असल जीवन में कभी कोई कहानी या ढेर सारी कहानियां क्या 18 दिन में सुखांत के साथ खत्म हुई,?
अच्छा, यह भी तो काल्पनिक कहानी है। कम से कम गंगी को पानी लाते हुये तो दिखा देते कि वह जीत गयी। क्या बकवास लेखक है। और मास्टर जी ने एक कहानी और एक बकवास से लेखक पर दो दिन खराब कर दिए। इस से बेहतर तो नंदन ही है। क्या कमाल कहानियां हैं।
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गुरुजी की पढाने की जबरदस्त लियाकत के बावजूद मन कहानी पर टिका नही। गुस्सा भी था कि हमारे धर्म ग्रंथ को काल्पनिक कह दिया और इस गन्दी सी कहानी को सर्वकालिक महान साबित कर रहे हैं।
मेरा एक दोस्त था हंस राज चमार। मैं उसके साथ खेलता उठता बैठता था। उनका घर गांव से बाहर था। मेरे घर से काफी दूर। सभी गांवों में चमारों के घर गांव से बाहर हैं। आज भी हैं। यह मुझे तब मालूम नहीं था। स्कूल में अन्य जाति के बच्चे कहते कि चमार के साथ ना खेला कर लेकिन चमार और सवर्ण क्या होता है तब समझ भी नहीं थी।
मैं दादी से कहता कि दोस्त ऐसे बोलते है कि चमार के साथ मत रहा कर। तो दादी कहती बाबा नानक कहते हैं एक नूर से सब जग उपज्या कोउ भले कोउ मन्दे। बेटा जब गदर के वक्त हम सब पाकिस्तान से आये थे तब इन्ही चमारों के घर रुके थे आकर। इंसान का फर्ज है कि अपना सर ऊंचा रखे और दोस्त का भी झुकने ना दे। दादी के ये बोल और तब से मुझे खुद को रेफ्यूजी और हंस राज को चमार कहने में हिचक महसूस नही होती।
हंस राज चमार और मैं एक दिन पीपल के नीचे कुरां खेल खेल रहे थे। गर्मी के दिन थे। भयंकर प्यास लगी थी। सामने ही एक घर में हम पानी पीने चले गए। बाहर दरवाजे में(बरामदा) में कई मटके रखे थे। बगल में थोड़ी दूर पर पशु बंधे थे। मैने घड़े को टेढ़ा किया और पानी पी गया। हंस राज चमार कुछ ढूंढ रहा था। मैंने कहा मेरी तरह पी जा क्या ढूढ रहा है।
वह पशुओं के चारा मिक्स करने वाला डब्बा उठा कर लाया। बोला इसको धोने के लिए इसमे पानी डाल दे। मैंने वह डब्बा उसके हाथ से लेकर दूर फेंक दिया। कितना गन्दा डब्बा है। फेंक इसको। मेरी तरह पी जा जल्दी से। मेरे जेहन में एकबार भी नही आया कि हंसराज अपने चमार होने की वजह से ऐसा कर रहा है। बहुत कहने के बाद उसने एक पुराना घड़ा चुना और उसके हाथ डाल कर टेढा करने ही वाला था कि चौधराईन दौड़ी-दौड़ी आयी। किंगो है रै तू। चमारां गो है नि।(किसका है रे तू, चमारों का है ना)।
हंस राज एक दम से पीछे हट गया। चौधराईन ने वह घड़ा उठाया और जमीन पटक दिया। और अनगिनत गालियां हंस राज को दी। गांव में अनगिनत बार कुत्ते मुझ पर भोंके होंगे लेकिन ऐसी सिरहन कभी नही हुई। मैं जिंदगी में पहली बार कभी इतना डरा, इतना गुस्सा हुआ। मेरे घर शिकायत आयी। दादी चौधराईन को झिड़क दी। तब मुझे सुकून मिला। हंस राज चमार बोला। ठाकुर का कुंआ अब पढऩा।
मुंशी प्रेमचंद जानते थे कि गंगी पानी नहीं ला सकेगी। हंस राज चमार को भी तो पानी नही मिला था। आज मेरा वह अध्यापक मुझे रह रहकर याद आ रहा है कि कहानी लिखने के लिए समाज को भीतर जीना पड़ता है। और समाज की असल जिंदगियों के अंत सुखांत ही हो यह जरूरी नहीं।
(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)