Monday - 28 October 2024 - 7:43 AM

डंके की चोट पर : यह सुबह-सुबह की बात है

शबाहत हुसैन विजेता

आप मरे हुए शख्स पर मुकदमा नहीं चला सकते. आप किसी मुर्दे से सवाल नहीं पूछ सकते. मर जाने के बाद न कोई ज़िम्मेदारी उठाई जाती है, न जवाबदेही रह जाती है. हिन्दुस्तान की अदालतें मुकदमों से दबी पड़ी हैं. लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक एक जैसा हाल है. जजों की कमी होती जा रही है और मुकदमों की फाइलें मोटी होती जा रही हैं. इसका नतीजा यह होता है कि मुकदमे की कार्रवाई खत्म नहीं हो पाती और कभी मुद्दई मर जाता है और कभी गवाह.

लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में दोषी करार दिए गए हैं. उनके अलावा 36 अन्य लोगों को ज़िम्मेदार मानते हुए उन्हें जेल भेजा गया है. मुकदमे की कार्रवाई के दौरान 55 लोग मर चुके हैं लिहाज़ा वह मुकदमे की कार्रवाई से बाहर हो गए हैं.

अंतरराष्ट्रीय बैडमिंटन खिलाड़ी सैय्यद मोदी की लखनऊ के के.डी.सिंह बाबू स्टेडियम के बाहर हत्या हुई थी. हत्या में मोदी की पत्नी अमिता मोदी और उत्तर प्रदेश सरकार के ताकतवर मंत्री डॉ. संजय सिंह पर इल्जाम आया था. सीबीआई ने जाँच की थी. मुकदमे की कार्रवाई के दौरान एक-एक कर गवाहों की हत्या होती चली गई औरन शूटर बचे न गवाह. संजय सिंह और अमिता मोदी बेदाग छूट गए और दोनों ने शादी रचा ली.

विकास दुबे कानपुर का बड़ा अपराधी था. उसने एक साथ आठ पुलिसकर्मियों की हत्या कर जो सनसनी फैलाई थी उसका मुकदमा चलता और पुलिस की ईमानदार पैरवी होती तो उसे फांसी भी हो सकती थी लेकिन पुलिस ने अपराधी की राह पर चलते हुए उस अपराधी की इनकाउन्टर के नाम पर हत्या कर दी. अब विकास दुबे को दुनिया की कोई भी अदालत सज़ा नहीं दे सकती.

यह सबसे बड़ी सच्चाई है कि आँख बंद होने के बाद फ़ाइल को भी बंद करना पड़ता है लेकिन पंडित नेहरू की फ़ाइल लगातार खुली है. मौत के 58 साल के बाद भी हर मामले में नेहरू ही ज़िम्मेदार हैं. नेहरू का निजाम जिन हाथों में है वह बेदाग़ हैं. नेहरू की ज़िम्मेदारी जो संभाल रहे हैं उनसे सवाल पूछने का हक़ किसी के पास नहीं है.

सियासत बड़े मुकाम हासिल करवाती है. सियासत में वह ताकत है कि इसकी गंगोत्री में उतरकर सारे गुनाह धुल जाते हैं. सियासत पुराने मुकदमों को खत्म कराकर नये मुकदमों का रास्ता तैयार करने का मौका देती है. सियासत में वह ताकत है कि उसके सहारे सारे क़ानून रुमाल की तरह से मोड़कर जेब में रखे जा सकते हैं. सियासत गुंडे को पुलिस की सुरक्षा दिलवा देती है. कई बार ऐसे मौके भी आते हैं कि जिसे पुलिस ढूंढ रही होती है और जिस पर इनाम घोषित करती है उसी अपराधी को उसे सैल्यूट करना पड़ता है.

सियासत ने राष्ट्रपिता के कातिल को महात्मा बना दिया. सियासत ने राष्ट्रपिता की मूर्ति पर गोली चलाने वाले की इज्जत अफजाई की. सियासत ने राष्ट्रपिता को शैतान की औलाद कहने वाले को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी. सियासत ने धर्म को तलवार की तरह से इस्तेमाल किया. सियासत ने इंसानों को हिन्दू-मुसलमान में बांटा. सियासत ने इंसानों को अपने ही घर से पलायन को मजबूर किया. सियासत के बुल्डोज़र ने जिसका चाहा उसका घर गिरा दिया.

सियासत ने अदालत को लाचार बना दिया. सियासत ने जज को अपने कार्यकर्ता की तरह से इस्तेमाल किया. सियासत ने वर्दी की ताकत को अपने पाँव तले रौंद डाला. सियासत ने एक ऐसी जमात को भी उभरने का मौका दिया जिसने विकास के नाम पर नफरत फैलाई और विकास ढूँढा गया तो नेहरू को ज़िम्मेदार बताया.

सियासत हर पांचवें साल परीक्षा लेती है. पांच राज्यों में परीक्षा चल रही है. परीक्षा देने वाले नफरत के ताबीज़ बांटते घूम रहे हैं. इनकी भाषा और क्रियाकलाप नाकाबिले बर्दाश्त हैं मगर इन्हें रोकने का कोई उपाय नहीं दिखता.

जो पांच साल से बुलडोजर चला रहे थे वह विकास के दावे कर रहे हैं. जो कभी सबके विकास की बातें करते थे वह अब पूरी बेशर्मी के साथ 80 बनाम 20 का खेल खेलने लगे हैं. इनकी क़ाबलियत का अंदाजा इनकी भाषा और बॉडीलैंग्वेज से लगाया जा सकता है. यह कौन से स्कूल में पढ़े हैं यह ढूँढने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि यह बारहवीं पास करने के बाद इंटर में जाने वाले को लैपटॉप बांटने वाले हैं. इन्होंने पांच साल में क्या किया पूछने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि यह बताते हैं कि अगर हम नहीं आये तो दंगे होने लगेंगे. मतलब साफ़ है कि या तो हम सरकार चलाएंगे या फिर दंगा करेंगे. यह इल्जाम नहीं है. अगर यह दंगा कराने वाले नहीं हैं तो पांच साल की सरकार में इनका बुलडोजर दंगाइयों के हौंसलों को तोड़ने क्यों नहीं गया?

नेहरू भी अंग्रेजों को ज़िम्मेदार ठहरा सकते थे. अंग्रेज़ भी मुगलों को ज़िम्मेदार ठहरा सकते थे. मुग़ल भी अपने से पहले वालों को और पहले वाले अपने से पहले वालों को ज़िम्मेदार ठहरा सकते थे. जब ज़िम्मेदारी लेने वाला ही कोई नहीं है तो फिर सारी कुर्सियां भरी कैसे हैं. कौन बैठा है ज़िम्मेदार कुर्सियों पर.

सोचना बहुत ज़रूरी है. सिकंदर ने अपनी अंतिम यात्रा से पहले कफ़न से हाथ बाहर कर देने की वसीयत की थी ताकि दुनिया जान ले कि वह कुछ लेकर नहीं जा रहा है. दुनिया को प्रेम का प्रतीक ताजमहल देने वाला शाहजहाँ भी आख़री वक्त में 56 पकवान नहीं सिर्फ चने पर बसर कर रहा था. लालकिले में बने एक छोटे से छेद से वह ताजमहल निहारते हुए मर गया था. कहानी बाबर और हुमायूं की भी दोहरा सकता हूँ मगर बात बाबरी मस्जिद होते हुए छह दिसम्बर और उन नाकारा सरकारों की तरफ घूम जायेगी जो अदालत में किये गए वादे से भी मुकर गए थे.

सोचना ज़रूरी इसीलिये है क्योंकि जब शरीर साथ छोड़ रहा होता है तब एम्स ही काम आते हैं वो नेहरू बनवाएं या मोदी फर्क नहीं पड़ता मगर जब इंसानियत साथ छोड़ रही होती है तब मौजूदा सरकार पर ही लानत पड़ती है. सरकार चुनी जा रही है. सड़कों पर लम्बी-लम्बी लाइनें लगी हैं. वोट सोच-समझकर देना होगा वोट उसे देना होगा जो जिन्दा रहते ज़िम्मेदारी लेने वाला हो. वोट उसे देना होगा जो लैपटॉप खरीदने लायक बना सके. वोट उसे देना होगा जो अदालत में जजों की खाली कुर्सियां भर सके. वोट उसे देना होगा जो पुलिस को उसका खोया सम्मान लौटा सके. वोट उसे देना होगा जो सियासत को गुंडों से बचा सके. वोट उसे देना होगा जो इंसानों के बीच उठती दीवारों को गिरा सके. वोट देते वक्त भी अगर अपने ज़मीर को नहीं जगा सके तो वो माहौल कभी खत्म नहीं होगा जिसमें राजा बोला रात है, मंत्री बोला रात है, अफसर बोला रात है, यह सुबह-सुबह की बात है.

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