सुरेंद्र दुबे
महाराष्ट्र में एक तरफ राष्ट्रपति शासन लगा और दूसरी तरफ शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए धमाचौकड़ी शुरु कर दी। ऐसा लगता नहीं था कि इतनी जल्दी तीन अलग-अलग विचारधाराओं की पार्टी के बीच कोई समझौता हो जायेगा। पर हो गया। जाहिर है यह बात भाजपा को पसंद नहीं आ रही है। राष्ट्रपति शासन छह महीने के लिए लगा है परंतु इस बीच यदि कोई दल या दलों का गठबंधन 145 विधायक होने का दावा पेश कर दें तो राज्यपाल के लिए उसे सरकार बनाने के लिए बुलाना एक संवैधानिक बाध्यता होगी।
शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस दो दिन की मैराथन बैठक में न केवल सरकार बनाने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना लिया बल्कि तीनों दलों के बीच मंत्रालयों का संभावित बंटवारा भी कर लिया, ताकि किसी बात को लेकर बाद में बखेड़ा न खड़ा हो। किसी गठबंधन द्वारा सरकार बनाने का दावा करने से पूर्व ही प्रस्तावित मंत्रालयों का बंटवारा पर सहमति का ऐसा दृश्य मुझे हाल-फिलहाल के वर्षों में नहीं दिखाई दिया है।
गठबंधन न टूटने पाए इसलिए शिवसेना को मुख्यमंत्री पद, कांग्रेस व एनसीपी को मुख्यमंत्री पद दिए जाने पर भी सहमति हो गई। ये सब खुलेआम बताया भी गया। विधानसभा के अध्यक्ष का पद कांग्रेस को मिलेगा और उपाध्यक्ष का पद शिवसेना को। अब इसके बाद वाद-विवाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती है।
ये तीनों दल अलग-अलग विचारधारा के हैं। शिवसेना की प्रखर हिंदुत्ववादी छवि है तो कांग्रेस व एनसीपी की नरम हिंदुत्वादी छवि के साथ ही मुस्लिम तुष्टकरण की भी छवि बनाने की कोशिश जारी है। वीर सावरकर और नाथूराम गोडसे को लेकर दिखावे के लिए भुजाएं फड़कायी जा रही हैं। पर राजनीति में असली सिद्धांत और आदर्श कुर्सी के नीचे दब जातेहैं।
जनता इस तरह के दृश्य देखने की आदी हो गई है। इसलिए उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लालाराम और मसालाराम किन सिद्धांतों को लेकर एकजुट हो गए हैं। अब ये स्थिति भाजपा के पेट में स्वाभाविक रूप से दर्द पैदा कर रही है। इसलिए उसके नेता बार-बार कह रहे हैं कि ये बेमेल गठबंधन कैसे चलेगा। उनको एक सीधा सा जवाब दिया जा सकता है कि जैसे कई राज्यों में आपका बेमेल गठबंधन चल रहा है वैसे ही शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन भी चल सकता है।
इस समय जो राजनैतिक परिदृश्य है उसमें विपक्ष का पलड़ा बीजेपी की तुलना में भारी लग रहा है। परंतु एक बात हमें यह ध्यान रखनी चाहिए कि सारा दारोमदार राज्यपाल पर है, जो भाजपा के साथ है। राज्यपाल का पद भले ही संवैधानिक पद है पर अगर उस पर बैठने वाले लोग अपनी गरिमा को भूलकर सिर्फ केन्द्र सरकार की चाकरी करना चाहे तो उन्हें कैसे रोका जा सकता है।
आज विपक्ष का राज्यपाल से मिलने का कार्यक्रम था जो टल गया। जाहिर है उन्हें भी यह समझ में आ गया होगा कि राज्यपाल रूपी बाधा को कैसे पार किया जाएगा। है तो बाधा दौड़ ही। जब तक राज्यपाल न माने कि आप के पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं है तब तक आप को किसी न किसी चक्र में फंसना पड़ेगा।
राज्यपाल ने जिस तरह से आनन-फानन में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी थी उससे यह स्पष्ट है कि राज्यपाल इतनी आसानी से राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफारिश करने को राजी नहीं होंगे। इस बात को भांप कर ही एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने कहना शुरु कर दिया है कि सरकार बनने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा। जाहिर है कि विपक्ष विधायकों की परेड कराने जैसे सभी कदम उठाने के लिए तैयारी करने में जुट गया है। देखना यह होगा कि राज्यपाल उनको कितना टरका पाते हैं और विपक्ष राज्यपाल को कितना मजबूर कर पाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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