डा. रवीन्द्र अरजरिया
देश की दलगत राजनीति ने आदर्शो, सिध्दान्तों और मान्यताओं को तिलांजलि देना शुरू कर दी है।
व्यक्तियों की सोच अब स्वार्थपरिता के साथ कदमताल करने लगी है। निजी हित सर्वोपरि होते जा रहे हैं।
राष्ट्रवादिता को नारे के रूप में प्रयुक्त करने वाले प्रत्यक्ष में भले ही सामाजिक समरसता का संकल्प दोहरा रहे हों परन्तु वे अप्रत्यक्ष में जातिगत खाई को ही गहरी करने में जुटे हैं।
नागरिकों के मतों पर कब्जा करने की नियत से लुभावने लालच परोसे जा रहे हैं। कहीं क्षेत्रवाद को आधार बनाकर देश को टुकडों में बांटने का प्रयास हो रहा है तो कहीं भाषावाद का सहारा लेकर विभेद पैदा किया जा रहा है।
कहीं वैभवशाली अतीत की दुहाई पर वर्तमान को सजाने की बानगी दी जा रही है तो कहीं सम्प्रदायवाद को हवा देकर खुलेआम चुनौतियां परोसी जा रहीं हैं। संविधान, कानून और सामाजिक ढांचा तार-तार हो रहा है।
निर्दोष को दण्ड न मिलने की व्यवस्था ने अपराधियों के हौसले बुलंद कर दिये हैं। अराजकता फैलाने वालों के मंसूबे नित नये रूप में सामने आ रहे हैं। स्वयंभू बुध्दिजीवियों की जमात सकारात्मकता की भी नकारात्मकता भरी व्याख्यायें करने में जुटी है।
संचार के अनगिनत साधनों का उपयोग करने वाले विशेषज्ञों ने भ्रामक सामग्रियां प्रकाशित करके समाज में मानसिक व्दन्द की स्थिति पैदा कर दी है। कहीं अतिउत्साह में शब्द मर्यादाहीन हो रहे हैं तो कहीं उत्तेजनात्मक वाक्यों को प्रयोग हो रहा है।
मंचीय उद्बोधन, रैलियों के नारे और तख्तियों की भाषा के साथ-साथ झंडों, डंडों और पंडों का गणित बैठाया जा रहा है। मुफ्त सुविधाओं के डंके पर घोषणाओं की चोट हो रही है।
यह मुफ्तखोरी की आदत, उस पर खर्च होने वाला धन और उस धन की आमद के स्रोतों के संबंध में विचार करने की किसी को फुर्सत नहीं है। सरकारों के पास टैक्स के माध्यम से ही धन आता है। यही धन विकास कार्यों, सुविधाओं के संसाधनों, मुफ्तखोरी, निजी संतुष्टि जैसे कारकों पर लुटाया जा रहा है।
अच्छी सडकों का उपयोग करने के लिए आम आदमी से टैक्स वसूला जाता है परन्तु भारी भरकम तनख्वाय पाने वाले जनप्रतिनिधियों, सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों के वाहनों के फर्राटे मुफ्त हैं।
यात्राओं में सशुल्क भुगतान करके आरक्षण करवाने की कसरत में लगे लोगों को जहां भारी मसक्कत करना पड रही है वहीं जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों के लिए नि:शुल्क कोटा आरक्षित है।
जनसामान्य को अपनी सुरक्षा के लिए सरकारी सुरक्षाकर्मी लेने पर एक बडी राशि का भुगतान करना पडता है जबकि राजनेताओं, अधिकारियों के आगे-पीछे सशस्त्र बल का फ्री में घेरा होता है।
समाज के अनेक पक्षों के सजाने-संवारने हेतु सरकारी योजनाओं की भरमार है तिस पर भी जनप्रतिनिधियों को अपनी मर्जी से विकास कार्यो के नाम पर खर्च करने हेतु एक बडी धनराशि आवंटित की जाती है। लोकसभा के वर्तमान चुनावों मेें लिंग, जाति और विशेष आधारों पर धनराशि, सुविधायें और छूट देने की घोषणायें निरंतर की जा रहीं है।
आश्चर्य होता है कि खुलेमंच से घोषणा-पत्रों का विमोचन, उस पर अमल करने की कसम उठाने तथा समाज को बांटने जैसे जुमलों पर निर्वाचन आयोग चुप क्यों है। लालच देने वाले इन कृत्यों को कानूनी दायरे से बाहर कैसे रखा गया है जबकि शराब बांटने, पैसा देने, भेंट पहुंचाने जैसे कार्यों को गैरकानूनी करार दिया जाता है।
तत्काल लाभ परोसने वालों पर कार्यवाही और दूरगामी घातक परिणाम देने वाली घोषणाओं को अनदेखा करना किसी भी दशा में सुखद नहीं कहा जा सकता। समाज को बांटने वाले दलों ने लोगों को मुफ्तखोर बनाने की दिशा में तेजी से बढना शुरू कर दिया है। मंहगाई का हल्ला मचाने वाले लोग ही मुफ्तखोरी की घोषणाओं पर घोषणायें कर रहे हैं।
सीमित आय पर असीमित खर्जों का बोझ की मंहगाई का आधार होता है। मुफ्त में सुविधायें देने के वायदे पूरे करने वाले राज्यों को कर्ज के दलदल में डूबने की स्थिति का सामना करना पड रहा है।
इन सुविधाओं के लिए राज्यों ने अतिरिक्त टैक्स की व्यवस्था करना शुरू कर दी है। ईमानदार करदाताओं के खून-पसीने की कमाई को मुफ्तखोरों पर लुटाने की मंशा को, राष्ट्र के सीने में खंजर भौंपने की तरह लिया जाना चाहिए। निर्वाचन आयोग सहित देश के नागरिकों को मुफ्तखोरी की घोषणा करने वाले दलों से सरकारी खजाने में धन की आमद बढाने की योजनाओं के बारे में भी पूछना चाहिए ताकि आय बढाने पर ही फ्री फंड जनरेट होने की संभावना पर तार्किक बहस हो सके।
आवश्यक है मुफ्तखोरी की घोषणाओं पर आय की समीक्षा। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है।
मृगमारीचिका के पीछे लोगों को दौडाने वालों ने आम आवाम की आंखों पर पट्टियां बांध रखीं है ताकि वे भविष्य की वास्तविक छवि निहार ही न सकें। विकास के मायने परियोजनाओं का भारी भरकम होना नहीं होता बल्कि उसकी गुणवत्ता का शीर्ष पर पहुंचना होता है।
सदन में पारित होने वाली परियोजनायें धरातल पर पहंचते ही दम तोड देतीं हैं। नौकरशाही के शिकंजे में फंसी व्यवस्था के अनेक उत्तरदायी अधिकारी अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति हेतु कार्यों की गुणवत्ता में फलीदा लगा रहे हैं। ऐसे में अमानक सामग्री से पूरी होने वाली परियोजनायें अपने लक्ष्य भेदन के पहले ही धराशायी हो जाती है।
शिकायतों पर जांच समिति का गठन और फिर मामले को ठंडे बस्ते में पहुंचाने के प्रयास युध्दस्तर पर शुरू हो जाते हैं। कार्यपालिका की संवैधानिक कार्य प्रणाली से हटकर अनेक स्थानों पर उत्तरदायी अधिकारियों की निजी कार्यशैली का ही बोलबाला रहता है।
ऐसे में अधिकारी से नेता बने दिग्गज ही ज्यादा सफल हो रहे हैं। उनके पास धनबल, जनबल और बाहुबल के साथ-साथ कार्यपालिका का समर्थनबल भी मौजूद रहता है। यह अलग बात है कि वे अपने अनुभवों, सम्पर्कों और संसाधनों का उपयोग राष्ट्रहित में करते हैं या फिर व्यक्तिगत हित में। देश को विश्वगुरु के सिंहासन तक पहुंचाने के लिए विचारों का परिवर्तन नितांत आवश्यक है।
लिंग, जाति, वर्ग, भाषा, क्षेत्र, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर राष्ट्र हित का चिन्तन ही देश के विकास का प्रकाश स्तम्भ बन सकता है अन्यथा वर्तमान की विभेदकारी सोच के साथ व्यक्तिगत विलासता के संसाधनों का झूठा संसार, समाज को मदहोशी की खुमारी का उपहार ही भेंट करता रहेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।