कुमार भवेश चंद्र
मरना ही मुकद्दर है तो फिर लड़ के मरेंगे, खामोशी से मर जाना मुनासिब नहीं होगा।
जिस वक्त लखनऊ जल रहा था..संभल में आग धधक रही थी…यूपी के कई शहर तप रहे थे। मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने ये ट्विट कर अपने दिल की बात रखी है। वैसे तो किसी रचनाकार का कोई धर्म नहीं होता..कोई जात नहीं होती। लेकिन ये सच है कि वे मुसलिम समुदाय से आते हैं और उनके दिल से वहीं निकला है जो इस वक्त मुसलिम समुदाय के मन में चल रहा है। सत्तापक्ष इस डर को बेवजह बता रहा है। गृहमंत्री अमित शाह संसद से लेकर संसद के बाहर यह बात बार-बार दोहरा रहे हैं कि नागरिक संशोधन कानून से किसी को भी डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन देश का आम मुसलमान तसल्ली में नहीं दिख रहा है। वह बेचैन है। वह डरा हुआ है।
सवाल है कि क्या उसका डर सियासी है ? या फिर उसके डर पर सियासत करने की कोशिश हो रही है? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार कह रहे हैं कि विपक्ष मुसलमानों के इस भ्रम को भड़का रहा है। वे इसके लिए कांग्रेस, सपा और वामपंथी सभी को जिम्मेवार मानते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि सरकार अपनी तमाम ताकत और सामर्थ के बावजूद विपक्ष की इस कोशिश को नाकाम करने में कामयाब क्यों नहीं हो रही है?
बृहस्पतिवार को देशव्यापी विरोध को लेकर किसी के भी मन में ऐसी आशंका नहीं थी कि ये मामला इतना तूल पकड़ लेगा। इतना तूल पकड़ लेगा कि कई शहरों में दफ्तर पहुंचे लोग शाम को घर के लिए रवाना होने से पहले अपने शहर की सड़कों पर तूफान के थम जाने का इंतजार करेंगे। यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि यूपी पुलिस को भी इस तरह माहौल बिगड़ जाने का आभास नहीं था, तो गलत नहीं। क्योंकि इस तरह के आक्रोश या विरोध से निपटने की उनकी जो तैयारी थी, वह नाकाफी दिखी।
सुरक्षाबलों की भारी तैनाती के बावजूद कई शहरों में हालात इतने बेकाबू हुए, यह उस तैयारी को कमजोर बताने के लिए काफी हैं। लखनऊ में धारा 144 के बावजूद लोग सड़कों पर निकले। हजरतगंज में भीड़ के हिंसक उपद्रवियों में तब्दील होने से पहले पुलिस की मौजूदगी में भारी तादाद में लोगों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। राजनीतिक दलों का प्रदर्शन भी आम तौर पर शांतिपूर्ण ही रहा। यह बात और है कि एहतियातन पुलिस ने कई बड़े नेताओं को हाउस अरेस्ट करके इसे तीखा बनाने से रोका। लेकिन सच्चाई यही है कि सरकार इस कानून के डर को समाप्त करने के बजाय उनसे लड़ने की कोशिश करती दिख रही है जो इस डर से डरे हुए हैं।
डर केवल नागरिक संशोधन कानून का नहीं इसके आगे का है, जो अल्पसंख्यक समाज को सता रहा है। 2019 के चुनावों में तीन तलाक के मसले पर मोदी के साथ खड़ी मुस्लिम समाज की महिलाएं भी सड़कों पर अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंता जता रही हैं तो जाहिर है कि कोई डर है जो उनमें गृह मंत्री के भरोसे के बावजूद समाप्त नहीं हो रहा है। और ये सियासत है कि इस डर से खेलना चाहता है। इस डर से सत्तापक्ष भी खेल रहा है। इस डर से विपक्ष को ताकत मिलता दिख रहा है। इस समस्या का समाधान तो सियासी है लेकिन सियासत संवेदना से ऊपर बहुत ऊपर उठ चुकी है। उसे तो बस वोट दिखता है। वोट बैंक दिखता है।
डर की सियासत ये है कि किसको डराकर किसको संतुष्ट किया जा सकता है। और सियासत का डर ये है कि अगर वे अगर बने रहे तो हमारी बारी कब आएगी। सियासत इसीके दरम्यान चक्कर काट रही है। समस्या का समाधान तो उसका मकसद ही नहीं। लोगों में अमन उसका मुकाम ही नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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