शबाहत हुसैन विजेता
पोस्टर का भी एक दौर था. पोस्टर चुनाव लड़वाते थे. पोस्टर पहचान करवाते थे. पोस्टर पर तस्वीर छप जाने का मतलब ही वीआईपी हो जाना होता था. यह माना जाता था कि जिसके जितने ज्यादा पोस्टर लगे हैं वह उतना ज्यादा मज़बूत है. उस दौर में माफिया और सियासत इतने करीबी नहीं थे कि दुश्मन के पोस्टर उखड़वा दें.
हकीकत में वह दौर पोस्टर का ही दौर हुआ करता था. बड़े सियासी दलों के पोस्टर दिल्ली में छपा करते थे. इलेक्शन से पहले छपे हुए पोस्टर ट्रक में भरकर शहर-शहर ले जाए जाते थे. उस पोस्टर पर नेशनल लीडर की तस्वीर चुनाव निशान और पार्टी का नाम छपा रहता था. एक जैसे पोस्टर हर कैंडीडेट को मिल जाते थे. कैंडीडेट उसी पोस्टर पर अपनी तस्वीर छपवाकर शहर की दीवारों पर चिपकवा देता था.
यह पोस्टर रात के अंधेरे में लोगों के घरों की दीवारों पर चस्पा कर दिए जाते थे. दूसरी सियासी पार्टी के लोगों का किरदार भी ऐसा होता था कि वह जिनसे मुकाबला करते थे उनके पोस्टर पर अपना पोस्टर चस्पा नहीं करते थे. वह होर्डिंग का दौर नहीं था. लोगों के घरों की दीवारें ही इलेक्शन में होर्डिंग बन जाया करती थीं.
सियासत में माफिया तबके की इंट्री हुई तो एक पोस्टर पर दूसरा पोस्टर चस्पा होने लगा. एक पार्टी के लोग रात के अंधेरे में अपनी पार्टी का पोस्टर लगाने के लिए निकलते थे तो दूसरी पार्टी के लोग उन पोस्टर को फाड़ने के लिए निकलते थे. मेरी दीवार पर दूसरी पार्टी ने पोस्टर क्यों लगाया इस बात को लेकर मारपीट का दौर भी आया लेकिन इस सबके बावजूद पोस्टर पर जो चेहरा दमकता था उसकी इज्जत में कोई फर्क नहीं आया. पोस्टर वाले की इज्जत अपनी जगह पर बनी रही.
वक्त ने फिर करवट बदली. इलेक्शन कमीशन भी कुछ होता है लोगों को पता लगा. इलेक्शन कमीशन ने प्राइवेट दीवारों पर पोस्टर लगाने पर रोक लगा दी और इस तरह से होर्डिंग का दौर आ गया. होर्डिंग का बिजनेस शुरू हो गया. सियासी पार्टी के लोग शहर के चौराहों पर अपने होर्डिंग लगवाने लगे. इन होर्डिंग पर लगे चेहरों के ज़रिये इलेक्शन लड़े जाने लगे.
इलेक्शन कमीशन ने होर्डिंग पर भी अपना हंटर चला दिया. इलेक्शन से पोस्टर की तरह से होर्डिंग भी रुखसत हो गए. होर्डिंग और पोस्टर अब भी लगते हैं लेकिन इलेक्शन से पहले इन्हें हटवा दिया जाता है. यह सारे काम इलेक्शन में होने वाले बेहिसाब खर्च पर अंकुश के लिए किया गया था.
सड़कों पर अब सिनेमा के पोस्टर नहीं दिखते. इलेक्शन में लगने वाले पोस्टर गायब हो गए. पोस्टर का जैसे एक युग था जो बीत गया. यूपी की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने एक बार फिर पोस्टर का दौर वापस लाने का फैसला किया है. योगी सरकार जानती है कि लोग पोस्टर को पसंद करते हैं. लोग पोस्टर देखकर अपनी राय बनाते भी हैं और बदलते भी हैं.
जिस दौर में सियासी पार्टियों में पोस्टर की होड़ हुआ करती थी. उस दौर में पोस्टर का बड़ा ग्लैमर था. यूपी सरकार ने अपने सूबे को उस ग्लैमर से जोड़े रखने का फैसला किया है. सरकार ने तय किया है कि पोस्टर वाला दौर नयी पीढ़ी भूल न जाए इसका पुख्ता इंतजाम करना होगा.
सरकार जानती है कि सियासी लोगों की तस्वीरें अब चौराहों पर नहीं लगाई जा सकतीं क्योंकि इससे उनका इलेक्शन कैंसिल हो सकता है. सियासी लोगों की तस्वीरें भी पोस्टर पर न लगें और पोस्टर भी बरकरार रहें इसके लिए पोस्टर के लिए सूटेबिल चेहरा तलाशना बड़ी टेढ़ी खीर था.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एनआरसी आन्दोलन के बाद एक्सपेरीमेंट के तौर पर उन चेहरों से सजाकर पोस्टर बनवाये जिन पर शहर में तोड़फोड़ और आगजनी का इल्जाम था. इन पोस्टर ने बड़ा हंगामा किया. मामला कोर्ट की सीढ़ियाँ भी चढ़ गया लेकिन सरकार ने एक बार तय कर लिया कि पोस्टर सूबे की सेहत के लिए ज़रूरी है तो फिर कोर्ट की बात मानना ज़रूरी नहीं है. कोर्ट तो उसी क़ानून का पालन करवाती है जो क़ानून सरकार बनाती है. सरकार ने फ़ौरन क़ानून बना दिया कि सड़कों पर पोस्टर लगाना राज्य के हित में है और पोस्टर किसी भी कीमत पर नहीं हटाये जायेंगे.
एनआरसी आन्दोलन के दौरान जो चेहरे चौराहों पर लगाये गए थे उनके पास सरकार के खिलाफ चिल्लाने की ताकत थी. वह चिल्लाये भी. सरकार को यह चीख पुकार बहुत अच्छी लगी. डेमोक्रेसी में सरकार के खिलाफ आवाज़ तो सुनाई पड़नी ही चाहिए. पोस्टर लगे तो देश और दुनिया में यह मैसेज चला गया कि डेमोक्रेसी अभी जिन्दा है.
यूपी सरकार ने महसूस किया कि शहर के चौराहे कभी सूने नहीं रहने चाहिए. उन चौराहों को सजाने के लिए होर्डिंग से बेहतर क्या हो सकता है. होर्डिंग लगते हैं तो उन्हें देखने वाले भी आ जाते हैं. उन होर्डिंग पर किसका चेहरा है उसे सभी देखना चाहते हैं.
वह चेहरा कौन हो जो होर्डिंग पर चस्पा किया जाए इस पर खूब मंथन किया गया. इसके लिए तमाम मीटिंग की गईं. होर्डिंग लगाने के लिए जब क़ानून भी बनाया जा चुका है तो फिर चौराहे खाली क्यों हैं? क़ानून बना है तो फिर उसका पालन क्यों नहीं हो रहा है. आखिरकार चेहरे भी खोज लिए गए. इंतजाम पुख्ता किया गया कि वह चेहरे बदलते रहने चाहिए. इन होर्डिंग पर लगने वाले चेहरों को लेकर सरकार ने अपना स्टैंड भी बदला है. वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है तो फिर पोस्टर को लेकर रवैया भी तो बदलना चाहिए.
पहले अपने लोगों का पोस्टर लगता था क्योंकि पोस्टर पर छपने वाला वीआईपी माना जाता था. अब पोस्टर पर अपने लोग नहीं लगाये जायेंगे क्योंकि पोस्टर पर छपने वाले वीआईपी नहीं कहलायेंगे.
शहर की सड़कों और चौराहों पर अब उनकी तस्वीरें लगाईं जायेंगी जो रेपिस्ट होंगे. जो लड़कियों से छेड़छाड़ करेंगे. अब जिनके पोस्टर लगेंगे वह अपना मुंह छुपाकर घूमेंगे.
ऐसे पोस्टर पहले थानों और कोतवालियों के नोटिस बोर्ड पर लगा करते थे. कहना चाहिए कि थानों और कोतवालियों के नोटिस बोर्ड अब चौराहों को सजाने के काम आयेंगे.
यूपी सरकार फैसला कर ही चुकी है तो उसके फैसले को न बदला जा सकता है न उस पर सवाल उठाया जा सकता है लेकिन हालात वक्त के साथ बदल ही जाते हैं. पुराने दौर के पोस्टर से लेकर नए दौर के पोस्टर के बीच जो बदलाव हुए हैं उस पर एक बार फिर सिलसिलेवार नज़र दौड़ानी पड़ेगी.
आपको याद करना होगा पोस्टर का पहला दौर जिसमें एक पार्टी का पोस्टर दूसरी पार्टी न फाड़ती थी और न ही उस पर अपनी पार्टी का पोस्टर चस्पा करती थी. वक्त बदला तो पोस्टर फाड़े भी जाने लगे और पोस्टर पर पोस्टर भी चस्पा किये जाने लगे.
यूपी सरकार जिस तरह के पोस्टर लगाने का फैसला कर बड़ी खुश नज़र आ रही है. उसका नतीजा भी कहीं सियासी पोस्टर के बदलते दौर जैसा न हो यही सबसे ज्यादा डराने वाला सवाल है. कहीं ऐसा न हो कि आने वाले दिनों में पोस्टर लगाते वक्त में दिमाग में यह सवाल न खड़ा हो जाए कि पोस्टर पर हमारी पार्टी का नहीं तुम्हारी पार्टी का ही चेहरा होगा.
ऐसा न हो कि अगर सरकार की मुखालफत करते हुए कोई चेहरा आगे बढ़ रहा होगा तो उसके खिलाफ छेड़खानी की शिकायत दर्ज कराकर उसका पोस्टर चौराहे पर लगा दिया जाए और उसकी सारी कोशिशें एक झटके में खत्म हो जाए. इस बात से कोई कभी इनकार नहीं कर सकता है कि एक दाग धोने में उम्र बीत जाती है.
छेड़खानी का इल्जाम सारे अपराधों से बड़ा इल्जाम माना जाता है. हत्या के इल्जाम वाले से भी आदमी बात करने को तैयार हो जाता है लेकिन छेड़खानी के इल्जाम वाले के साथ खड़ा होना भी कोई पसंद नहीं करता है.
यूपी में अखिलेश यादव की सरकार विदा हुई थी और योगी आदित्यनाथ की सरकार हुकूमत में आयी थी तो उस दौर में पार्कों में बैठे युवा जोड़ों के साथ जिस तरह से एंटी रोमियो स्क्वाड ने बर्ताव किया था वह शायद अभी लोग भूले नहीं होंगे. पार्कों मंं बैठकर अगर कोई लड़का-लड़की बात कर रहे हों तो उसे क्राइम नहीं माना जा सकता लेकिन सरकार को खुश करने के लिए पुलिस ने उसे क्राइम बना दिया था.
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पोस्टर लगने जा रहे हैं तो भी वही सवाल खड़ा हो रहा है कि जिस शख्स का पोस्टर चौराहे पर लगेगा उसके साथ अदालत क्या व्यवहार करेगी यह तो मुकदमा चलने के बाद तय होगा लेकिन पोस्टर लगने के बाद वह तो अपनी इज्जत का मुकदमा उसी दिन हार जाएगा. अदालत से अगर वह बेदाग़ बरी हो गया तो उसकी तस्वीर पोस्टर पर छपने के एवज में सरकार क्या मुआवजा देगी क्या सरकार ने यह भी तय कर लिया है.
छेड़खानी करने वाले और बलात्कारी को सजा मिलनी चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन भारतीय क़ानून की आत्मा यही कहती है कि चाहे सौ मुजरिम छूट जाएँ लेकिन किसी बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए. सरकार पोस्टर लगाए तो क़ानून की आत्मा को जिन्दा बनाये रखने का इंतजाम भी कर ले.