यशोदा श्रीवास्तव
अपने गोवा दौरे के समय प.बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी का यह बयान हैरान करने वाला है कि कांग्रेस की वजह से भाजपा मजबूत हो रही है।
ममता के इस दावे में कितना दम है और कितनी सच्चाई यह हम नहीं तय कर सकते लेकिन ममता का यह बयान तथाकथित चुनावी मैनेजर पीके के इस बयान के बाद आया कि “राहुल मुगालते में हैं,भाजपा दशकों तक बनी रहेगी” का कुछ न कुछ निहितार्थ तो है ही।
बताने की जरूरत नहीं यह वही पीके हैं जिन्होंने अभी कुछ ही दिन पहले कहा था कि 2024 में राहुल गांधी सत्ता के स्वाभाविक हकदार हैं। इसी के साथ उनके कांग्रेस में जाने और कोई बड़ा ओहदा हासिल करने की भी खूब चर्चा रही। अब अचानक पीके का कांग्रेस के प्रति विचार बदल गया तो इतना तय है कि पीके के लिए कांग्रेस का दरवाजा बंद हो गया।
पीके के बारे में मेरी राय यह रही है कि वे राजनीतिक समझ रखने वाले व्यक्ति नहीं है, उन्होंने एक कंपनी बनाकर राजनीति को व्यापार के रूप में इस्तेमाल किया और धन अर्जित किया।
ऐसे में एक व्यापारी राजनीतिक रूप से किसी एक दल के प्रति प्रतिवद्ध नहीं हो सकता। होते तो उनके दावे के अनुरूप उन्होंने 2014 में भाजपा को केंद्र में सत्ता मुहैया करवाई,यदि यह सच है तो इतने बड़े चाणक्य को भाजपा में कोई न कोई बड़ा ओहदा जरूर मिल गया होता।
और फिर हाल ही जदयू में दाखिल होकर राष्ट्रीय महासचिव का पद हासिल कर उसे यूं ही न गंवा देते। इस सबके बावजूद यह तय है कि पीके नाम का यह बंदा किसी न किसी के साथ मिलकर कांग्रेस के खिलाफ षणयंत्र जरूर रच रहा।
याद करिए 2017 के विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस “27 साल यूपी बेहाल” के नारे के साथ चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली थी तभी यह बंदा अचानक प्रकट होकर “वेवी को ये शेष पसंद है”जैसा घटिया नारा लेकर आ गया और कांग्रेस को कहां पंहुचा दिया? पीके 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस में दाखिल होकर फिर ऐसी ही कोई षणयंत्र रच पाता कि इसके पहले वह रुखसत हो गया। अचंभित करने वाला है कि पीके के कांग्रेस के बाबत दिए गए बयान के फौरन बाद ममता ने गोवा से कांग्रेस पर निशाना साधने में जरा भी देर नहीं की। तो क्या पीके ने भाजपा के खिलाफ अब गैर कांग्रेस विपक्षी दलों का अलग मोर्चा बनाने की रणनीति पर काम शुरू कर दी है?
लोकसभा चुनाव में अभी वक्त है और तब तक राजनीतिक परिदृष्य क्या होता है, इस पर अभी से कयास लगाने का खास मतलब नहीं है, ऐसे में मोदी युग पर विराम लगाने पर दिमाग खपाने का भी कोई मतलब नहीं है।
भारत के लोकतांत्रिक जनता का मूड जरा हटकर है और अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग तरह का भी है,ऐसे में कुछ राजनीतिक दल यह कैसे तय कर सकते हैं कि फला व्यक्ति या फला राजनीतिक दल के नेतृत्व में एक जुट विपक्ष मोदी युग पर विराम लगा सकता है?
यहां इस बात पर भी गौर करना होगा कि जनता जब सरकार को सबक सिखाने की ठान लेती है तब वह किसी ईके पीके की रणनीति पर गौर नहीं करती और न ही कोई मुखौटा या चेहरा ही निहारती।
उसे सरकारी दल के खिलाफ वोट देना है तो देना है। आखिर 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव मे देश के सामने कौन सा करिश्मायाी चेहरा था?
2022 में कई विधानसभा के चुनाव होने है जिसे 2024 के लोकसभा चुनाव का लिटमस टेस्ट कह सकते हैं। इसमें कांग्रेस के लिए सबसे कठिन लड़ाई यूपी की है। यूपी में कांग्रेस के अभी सात एम एल ए हैं, चुनाव आते आते इसमें से भी एकाध माइनस हो सकते हैं।
शायद यूपी में कांग्रेस के इने गिने विधायक से ही बाकी दल कांग्रेस की हैसियत का मूल्यांकन कर रहे हैं। इधर यूपी में प्रियंका गांधी की ताबड़तोड़ रैलियों पर भाजपा और सपा बसपा की नजर है।
बनारस के बाद रविवार को गोरखपुर में प्रियंका की रैली चौंकाने वाली थी। गोरखपुर यूपी के सीएम योगी का गृह क्षेत्र है और वे यहीं के प्रसिद्ध गोरक्षपीठ के महंत भी हैं।
गोरखपुर में प्रियंका की रैली में लाखों की भीड़ थी जो सपा,बसपा और सत्तारूढ़ भाजपा के उस सवाल का जवाब है जो कहते हैं कि यूपी में कांग्रेस का क्या है? कहना चाहुंगा कि जो लोग कांग्रेस को कमतर आंक रहे हैं उन्हें अब अपना चश्मा बदलना होगा।
बताने की जरूरत नहीं कि देश की सबसे पुरानी और गऐ बीते हाल में अभी भी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस पर चौतरफा हमला जारी है।
इन दिनों सत्ता रूढ़ दल के निशाने पर राहुल प्रियंका खूब रह रहे हैं,सपा बसपा जैसे वे दल भी जो खुद को बीजेपी से मुकाबले का दावा करते हैं,वे भी भाई बहन की जोड़ी को खरी खोटी सुनाने से बाज नहीं आते।
और अब इसमें टीएमसी भी कूद पड़ी। ममता बनर्जी का यह कहना हास्यास्पद है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प.बंगाल में बीजेपी के बजाय उनसे लड़ रही थी।
अब यह कौन समझाए कि यदि लेफ्ट और कांग्रेस प.बंगाल के चुनाव में जरा भी जोर आजमाइश किए होते तो वहां ममता नहीं, बीजेपी का राज होता।
चुनाव प्रबंधक पीके की कुछ माह पहले एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार से मुलाकात हुई थी। इस मुलाकात के बाद मीडिया में यह खबर तेजी से फैली की बीजेपी के खिलाफ पीके एक ऐसे संयुक्त विपक्ष का मोर्चा खड़ा करना चाहते हैं जिसमें कांग्रेस तो रहे लेकिन नेतृत्व भूल जाय।
खबर यह भी थी कि ममता नहीं चाहती कि बीजेपी के खिलाफ बनने वाले किसी विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस करे। लेकिन यह भी अनिर्णय है कि फिर नेतृत्व करें कौन? पहले शरद पवार का नाम चर्चा में था लेकिन इधर ममता भी विपक्षी दलों के अलायंस के नेतृत्व की ख्वाहिश मंद जान पड़ रही हैं।
लेकिन क्या बगैर कांग्रेस के नेतृत्व के उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक देश इसके लिए तैयार होगा? ममता हों या शरद पवार, 28 प्रदेशों वाले इस देश के कितने प्रदेशों में इनकी स्वीकार्यता है? आखिर महाराष्ट्र के अलावा भारत के और किन प्रदेशों में शरद पवार की एनसीपी और बंगाल की ममता दीदी की त्रिणमूल कांग्रेस हैं?बताने की जरूरत नहीं कि अपने अपने प्रदेशों के ये दोनों सूरमा पूर्व की बीजेपी सरकार के सहभागी रहे हैं।
विपक्षी मोर्चे की नेतृत्व की बात करने वाले एक बार देश के प्रदेशों में कांग्रेस की स्थित पर भी नजर डाल लेते। यूपी और अब प. बंगाल को छोड़ दें तो देश के अन्य प्रदेशों में सत्ता से बाहर रहकर भी कांग्रेस की स्थित इतनी दयनीय भी नहीं कि उसे शेष विपक्षी दलों के मोर्चे में सहयोगी बनने को विवश होना पड़े।
ऐसे लोगों की मंशा भाजपा के खिलाफ बन रहे संयुक्त विपक्ष के मोर्चा को मजबूत करना नहीं,कांग्रेस को कमजोर साबित करना है। सवाल है कि क्या बिना कांग्रेस के कोई विपक्षी गठबंधन कामयाब होगा? कड़वा है पर सत्य है कि देश ऐसे किसी मोर्चा पर भरोसा करने वाला नहीं जिसका नेतृत्व कांग्रेसी के हाथ में न हो।
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