उत्कर्ष सिन्हा
केंद्र की मोदी सरकार की ‘जनविरोधी’ नीतियों के खिलाफ लेफ्ट और ट्रेड यूनियनों ने 8 जनवरी को देशव्यापी हड़ताल बुलाई है। विभिन्न केंद्रीय श्रमिक संगठनों ने कहा है कि वे केंद्र सरकार की श्रम नीतियों और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ 8 जनवरी को ‘भारत बंद’ करेंगे। दावा ये है कि इस बंद में करीब 21 करोड़ लोग शामिल होंगे ।
देश भर में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ गुस्सा अभी भी शांत नहीं हुआ है । पूर्वोत्तर से लेकर पश्चिम तक विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है । देश के विश्वविद्यालय अशांत पड़े हुए हैं, जामिया से शुरू हुई आग बुझने की बजाय फैलती ही जा रही हैं । दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में औरतों का धरना लगातार जारी है।
एक तरफ असंतोष है तो दूसरी तरफ सरकार के तेवर । लंबे समय से ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया है जब असन्तुष्ट पक्ष को सरकार ने बातचीत के लिए बुलाया हो या उनका असंतोष खत्म करने के लिए कोई ठोस घोषणा की हो । नतीजा ये है कि एक तरफ सरकार खड़ी दिखाई दे रही है और उसके सामने अलग अलग मुद्दों पर खड़ा जनसमूह , और इन सबके बीच में भारत वैचारिक रूप से टुकड़ों में बंट गया है । विडंबना ये है की ये टुकड़े मुद्दों के आधार पर न हो कर सत्ता बनाम शेष की लड़ाई में फंसा हुआ है ।
भारत में सत्ता विरोधी आंदोलन न पहली बार हो रहे हैं न ही आखिरी बार । लेकिन इस बार सरकार के तेवर भी अलग हैं और आंदोलनकारियों के भी । क्लासिकल अर्थों में यह स्थिति गृह युद्ध की तो नहीं है , लेकिन वैचारिक युद्ध चरम पर पहुँचने लगा है।
सख्त प्रशासन के दावे वाली सत्ता फिलहाल एक जिद्दी प्रशासक के रूप में दिखाई देने लगी है , जिसमे बातचीत से मामला सुलझाने की बजाय और आक्रामकता से अपना स्टैन्ड लेने की जिद दिखाई दे रही है और आलोचकों के लिए सरकार के पास बस एक तख्ती है – राष्ट्रद्रोही । फिर वो चाहे नोबेल पुरस्कार विजेता हो या ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कोई शख्स ।
नरेंद्र मोदी के पिछले कार्यकाल के मुकाबले भी यह दृश्य थोड़ा जुदा है । इस बार मोदी सरकार में गृह मंत्री लचीले राजनाथ सिंह नहीं बल्कि आक्रामक अमित शाह है । राजनाथ सिंह और अमित शाह का फर्क भी साफ दिखाई दे रहा है ।
भाजपा के आलोचक ये मान रहे हैं की दरअसल ऐसी स्थिति लाना भी भाजपा की रणनीति का ही एक हिस्सा है । अपने विरोधियों को तुरंत ही निशाने पर ले कर उन पर टूट पड़ने की संगठित नीति ही इस तरह के हालात पैदा कर रही है , और यह भाजपा के लिए मुफीद भी है जहां वह आसानी से अपने पक्ष में एक जन समर्थन जुटा सकती है ।
बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट में राजनीतिक विश्लेषक सुहास पलशिकर का कहना है – ‘सभी प्रदर्शनकारियों को राष्ट्रद्रोही कह कर ऐसा माहौल पैदा कर दिया गया है, जिस में क़ानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ा कर बेरोक-टोक हिंसा हो रही है। आज बेहद संगठित तरीक़े से संदेह और नफ़रत का माहौल बनाया जा रहा है। ‘
कुछ साल पहले देश के बुद्धिजीवी ने यह कह कर कि – “देश में असहिष्णुता बढ़ रही है” , इस संकट की ओर इशारा कर दिया था , कई कलाकारों और लेखकों ने अपने पुरस्कार भी लौटा दिए थे, लेकिन तब भाजपा समर्थकों ने इन्हे “अवॉर्ड वापसी गैंग” कह कर ललकारना शुरू कर दिया था। इसके बाद “अर्बन नक्सल” का नरेटिव दिया गया और इसकी आड़ में आलोचकों को दबाने की कोशिश भी लगातार जारी है ।
फिलहाल आलम ये है कि देश के अधिसंख्य लेखक, कलाकार, साहित्यकार, पत्रकार, शिक्षक और अर्थशास्त्री या तो अवार्ड वापसी गैंग या फिर अर्बन नक्सल घोषित किए जा चुके हैं और देश के प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों को “राष्ट्र विरोधियों का अड्डा” बताया जा रहा है ।
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और ये सब महज इस लिए क्योंकि सरकार की नीतियों की आलोचना बढ़ती जा रही है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में “डेमोक्रेटिक स्पेस” सिकुड़ता जा रहा है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या तो खामोश है , या फिर लगातार अपने “मन की बात” करते जा रहे हैं , जिसका जनता के मन से रिश्ता कमजोर पड़ने लगा है ।
वरिष्ठ पत्रकार प्रीति सिंह कहती हैं – सरकार अपने नीतियों को आनन फानन में लागू करने की लाइन पर चल रही है , महत्वपूर्ण मुद्दों पर संसद में लंबी बहस चलाने की परंपरा के उलट एक दिन में कानून बनाए जा रहे है । नोटबंदी जैसे बड़े फैसले तो और भी अचानक लिए गए , जिसने असंगठित क्षेत्र के उद्योगों के साथ साथ अर्थव्यवस्था की भी कमर तोड़ दी ।
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लोकसभा में प्रचंड बहुमत के विपरीत राज्यों की सत्ता भाजपा के हाथों से फिसलने लगी है और सत्तारूढ़ एनडीए में दरार गहराती जा रही है।
इस परिदृश्य में ये सवाल उठाने में कोई हर्ज भी नहीं कि – क्या अपनी सरकार से नाराज है भारत ?
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