अब्दुल हई
यह भी खूब है कि महिलाओं के अत्याचार विरोधी दिवस पर हम महिलाओं द्वारा खुद पर किए जा रहे अत्याचार पर बात करें। यह दिवस इस समीक्षा के लिए मौजू है कि महिलाओं ने सक्षम और समर्थ होने की गलत परिभाषा गढ़ ली है और इस वजह से उसकी प्राकृतिक स्वतंत्रता या उसकी प्रकृति रसातल में जा रही है। जिसे वह अपनी स्वतंत्रता समझने का भ्रम पाले बैठी है, वह उसका विनाश है।
महिलाएं खुद महिला को मार रही है। अंग्रेजी का शब्द है ‘इंडीविडुअल…’ इसका मतलब ही होता है इन-डिविजिबल यानी, जिसका विभाजन नहीं किया जा सके।
आज की महिलाएं स्वयं अपना विभाजन-विखंडन करने पर तुली हुई हैं। पुरुष बन जाने की आपाधापी में वे न माया रह गईं और न राम ही बन पाईं। भारत की महिलाओं की तो और ही दुर्दशा है। पश्चिम की भौंडी नकल, पुरुष हो जाने की भौंडी नकल, कुसंस्कृति फैला रही गैर-सरकारी संस्था, घर-घर में कलह पसारने वाले टीवी चैनेलों की भौंडी नकल ने अकल और व्यवहार दोनों को भौंडा बना दिया।
कौन नहीं बदला महिला या पुरुष? परिवर्तन के इस दौर में जब सब कुछ बदल रहा है तो पुरुष भी बदले और महिलाएं भी, लेकिन पुरुष ने खुद को महिलाओं की तरह नहीं बनाया। वह पुरुष ही बना रहा लेकिन एक अजीब बात यह हो गई कि महिलाएं पुरुष बन गईं।
वे पुरुष हो जाना चाहती थीं और हो गईं। जबकि प्रकृति ने उन्हें खास बनाया था। अब उसे बाहर देर रात तक काम करना भाता है और घर के काम या बच्चे सम्भालना उसे गुलाम होने का एहसास कराता है।
अब उसे बच्चों के लिए अपनी नींद खराब नहीं करनी। हां, वह देर रात तक पार्टियां कर सकती हैं। अब स्त्री-पुरुष अलग-अलग दिखते हैं, लेकिन सिर्फ देखने में। दोनों की सोच अब एक जैसी हो गई है। स्त्री आज अपने हक, अपनी छवि, अपने सपनों की चिंता करती है। इसमें कुछ गलत भी नहीं, लेकिन सिर्फ खुद के बारे में सोचना तो स्वार्थ है और स्त्री को प्रकृति ने ऐसा नहीं बनाया।
चूंकि स्त्री को प्रकृति ने एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है और विशेष गुण दिए हैं। अगर उसने प्रेम, त्याग, सहनशीलता, आत्मीयता खो दी तो उसके पास उसका विशेष क्या बचा? आने वाली पीढ़ी को वो कैसे संस्कार देगी? ऐसा लगता है कि स्त्री ने अपने सभी गुणों की गठरी जिसमें त्याग, ममता, धीरज और आत्मीयता थी, उसे कहीं पीछे छोड़ आई है।
औरतों को भावना और वात्सल्य की देवी कहा जाता है लेकिन आज महिलाओं ने अपनी इस विशेषता को त्याग दिया है और इसी वजह से वो खुद को खोखला महसूस करने लगी हैं। जब वो भीतर से खोखली और असंतुष्ट होंगी तो वे अपने से जुड़े रिश्तों को कैसे सहेज पाएंगी। इस असंतुष्टि से वो हिंसक और निराश हो रही हैं और इसी वजह से वह अकेली हो रही हैं।
पुरुष और महिलाएं दोनों ही अकेले और कुंठित हैं। दोनों तरफ अविश्वास, भय और असुरक्षा है। जैसे-जैसे न्यूक्लियर फैमिली का चलन बढ़ा, सरकार ने महिलाओं को उनकी शक्तियों का अहसास कराना शुरू किया, वैसे-वैसे महिलाएं बोल्ड होना शुरू हो गईं। महिलाओं को आजादी के नाम पर उनकी जड़ों से काट दिया गया।
देश में महिलाओं पर बढ़ती हिंसा व दहेज प्रथा जैसे जघन्य अपराधों से निपटने के लिए वैसे तो कई कानून पारित किए गए हैं, लेकिन अब इनका बेजा इस्तेमाल खूब हो रहा है। कानून बनाने का मुख्य उद्देश्य यह था कि महिलाओं की स्थिति को सुदृढ़ बनाया जा सके और उन्हें समाज में वह सब सम्मान मिल सके जिसकी वे हकदार हैं,
लेकिन कई ऐसे केस मिलेंगे जहां महिलाएं पुरुष को प्रताड़ित करने के लिए झूठे दहेज के केस दर्ज करा रही हैं। स्त्री के एक और रूप की बात करें तो प्रकृति ने औरतों को मां का रूप देकर बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है।
मां एक बच्चे के लिए पहली शिक्षिका होती है और उसकी जिम्मेदारी होती है कि वो समाज को ऐसा सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक दे जिससे समाज परिष्कृत और नैतिक रूप से सुदृढ़ हो, लेकिन आजकल ऐसे अनगिनत उदाहरण देखने को मिल जाएंगे जिनका नैतिक मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है।
कुछ समय पहले तक, ये कोई 100-200 साल पहले की बात नहीं है बस 30-40 साल पहले की बात है जब किसी एक की बेटी पूरे गांव की बेटी कहलाती थी और वो आज से ज्यादा सड़कों-घरों में सुरक्षित रहती थी।
इतने सालों में आखिर क्या बदला है इस पर एक बार हमें जरूर सोचना चाहिए। आधुनिकता और विकास की इस दौड़ में महिलावादी संगठनों ने महिलाओं के हक के लिए आवाज बुलंद करने का एक निर्धारित खाका बना रखा है पुरुषों के विरुद्ध। महिलावादी संगठनों ने जहां एक ओर महिलाओं को अधिकार दिलाने की पुरजोर वकालत की, वहीं उसने कहीं न कहीं भारतीय संस्कृति को दूषित भी किया है।
अपने अधिकारों की चकाचैंध ने उन्हें इस तरह से अंधा कर दिया है कि वह यह मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं कि संस्कृति को दूषित करने में वो भी जिम्मेदार हैं। फिलहाल महिलाओं के अधिकारों और उत्पीड़न की बात करें तो आज स्थिति विकट तो नजर आती है पर उतनी नहीं, जितना यह महिलावादी स्त्रियां इसको बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित करने का प्रयास करती हैं।
वैसे इस बात को एक सिरे से नकारा नहीं जा सकता कि पुरुषों द्वारा महिलाओं का शोषण सदियों से चला आ रहा है और वर्तमान समय में भी यह लगातार जारी है बल्कि बढ़ ही गया है, लेकिन इसके पीछे की वजहों को किसी ने खोजना मुनासिब नहीं समझा कि वो कारण क्या थे जहां से उत्पीड़न के सिलसिले की शुरुआत हुई।
यह सब भारतीय सभ्यता की देन नहीं अपितु, पश्चिमी सभ्यता की चकाचैंध का नतीजा है जिससे मोहित होकर आज की महिलाएं यह भूल गई हैं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता भी उनके जीवन में कोई मायने रखती है।
हालांकि महिलावादी संगठन यह कहते हैं कि पुरुष समाज ने उसे बाजार की वस्तु बना दिया है। उसे इंसान के रूप में नहीं, मात्र देह के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है।आज टीवी पर पुरुषों से संबंधित किसी भी एडवरटाइज को देख लें फिर वो चाहे शेविंग मशीन का हो या फिर कोई परफ्यूम का सभी में महिलाओं का प्रयोग एक वस्तु की तरह ही है।
क्या महिलावादी संगठन स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं को बाजार की वस्तु बनने के लिए प्रेरित करते हुए नजर नहीं आते? प्यार, स्नेह, वात्सल्य, ममता, भावनाएं, संवेदना और करुणा यह सब स्त्री के गुण हैं, जिन्हें अब स्त्रियां त्यागती जा रही हैं, ऐसे में वो आने वाली पीढ़ी को क्या देंगी? जब समाज में यह सब होगा ही नहीं तो समाज में बचेगा क्या? समाज भावनात्मक रूप से तो पूरी तरह से खाली हो जाएगा।
भावनात्मक रूप से खाली होते समाज का अंदाजा इस घटना से लगाया जा सकता है कि एक दम्पति ने अपने बच्चे की बोली ओएलएक्स पर लगा दी क्योंकि वे बच्चे का रोना नहीं बर्दाश्त कर सकते थे। अब आप इसे क्या कहेंगे? इस घटना से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है। जहां भावनाओं का कोई महत्व नहीं होगा।
परिर्वतन तो प्रकृति का नियम है इसलिए बदलना बुरा नहीं है, लेकिन हां, प्रकृति ने जो तोहफा दिया है उसे भी नहीं भूलना चाहिए।