शिलादित्य सेन
पायल कपाड़िया की फिल्म के लिए आईनॉक्स के सामने लंबी कतार लगी है, मेरे पीछे और भी कई लोग खड़े हैं. ‘ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट’ इस साल पणजी में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के पहले दिन दिखाई गई थी। मृणाल सेन की फिल्म ‘खारिज’ ने वर्ष 1983 में कान में जूरी पुरस्कार जीता था और उसके चालीस साल बाद, पायल कपाड़िया ने इस साल कान में ग्रैंड प्रिक्स जीतकर फिर से अगली भारतीय निर्देशक बनकर इतिहास रच दिया। समाज के अलग-अलग तबके से आए लोग इस फिल्म को देखने के लिए सुबह 9 बजे ही एकत्रित हो गए। यह लोग देश के विभिन्न हिस्सों से गोवा आए हैं, जिनमें युवाओं से लेकर बुजुर्ग तक शामिल हैं। ऐसा लगता है कि जागने के बाद वे सीधे थिएटर ही आ गए हों, वो भी बिना नाश्ता पानी किए!
इस पल ने मुझे तीस साल पहले वर्ष 1995 की याद दिला दी जब अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव तत्कालीन बंबई में आयोजित किया गया था। प्रसिद्ध फिल्म निर्माता फेडेरिको फेलिनी, जिनका कुछ समय पहले ही निधन हो गया था, उनकी फिल्में उस वर्ष महोत्सव में हर सुबह दिखाई जाती थीं। एक पूर्वव्यापी अनुभाग फ़ेलिनी की फ़िल्मों को समर्पित था। मैं उस समय एक युवा पत्रकार और सिनेमा प्रेमी था। सिनेमा के प्रति जुनून में आकर, मैं सांता क्रूज़ से चर्चगेट तक भीड़-भाड़ वाली लोकल ट्रेनों में चढ़ता था और फिर मरीन ड्राइव के सुदूर छोर तक राष्ट्रीय कला प्रदर्शन केंद्र (एनसीपीए) तक पहुंचने के लिए जल्दी से नरीमन पॉइंट के लिए बस पकड़ता था।
हालांकि यह कोई सिनेमा हॉल नहीं था, लेकिन राष्ट्रीय कला प्रदर्शन केंद्र (एनसीपीए) का प्रदर्शन अद्भुत था। यहां मैने पहली बार इलेक्ट्रॉनिक उप-शीर्षक देखा! फेलिनी की फिल्म में नीले समुद्र के मनमोहक दृश्य, उसके बाद स्क्रीनिंग के अंत में मरीन ड्राइव का शानदार समुद्र तट, साथ में कटिंग चाय और पाव भाजी… भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव मेरे जैसे फिल्म-प्रेमियों के लिए धरती पर स्वर्ग ला सकता है! और अब, जब एक और तटीय शहर पणजी इस फिल्म महोत्सव के आयोजन के लिए स्थायी स्थल बन गया है, तो भी अच्छी फिल्में देखने का मेरा उत्साह कम नहीं हुआ है!
ऐसा पहली बार था जब मैंने पीआईबी के प्रेस-कार्ड के साथ महोत्सव में फिल्में देखीं। पीआईबी के इस कार्ड के साथ मेरा फिल्म महोत्सव में फिल्में देखना अब भी जारी है। मेरे पिता का निधन और कोविड 19 से संक्रमित होने जैसे व्यक्तिगत कारणों की वजह से एक या दो बार छोड़कर मैं हमेशा इस फिल्म महोत्सव में शामिल होता रहा हू। भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव ने मेरे लिए सिनेमा की पूरी दुनिया खोल दी हैं। इस महोत्सव ने मुझमें और अच्छी फिल्में देखने की ऐसी लालसा पैदा की कि, अब भी, यह मुझे सिनेमा के प्यार के लिए दुनिया भर में यात्रा करने पर मजबूर कर देता है।
जिस शहर में मेरा जन्म हुआ, उस कोलकाता ने दो विश्व प्रसिद्ध फिल्म निर्माताओं – सत्यजीत रे और मृणाल सेन को जन्म दिया है। इन दो दिग्गजों ने हमें सिखाया कि सिनेमा की कला को हमेशा क्षेत्रवाद से ऊपर उठना चाहिए और एक राष्ट्रीय और संभवतः वैश्विक परिप्रेक्ष्य रखना चाहिए।
उस समय भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन हमारे विशाल देश के विभिन्न शहरों में किया जाता था। हर वैकल्पिक वर्ष में आयोजन स्थल दिल्ली ही होता था, जबकि बीच-बीच में यह फिल्म महोत्सव बॉम्बे, त्रिवेन्द्रम, हैदराबाद, कलकत्ता जैसे शहरों में भी आयोजित होता रहा। वर्ष 2004 से, खूबसूरत राज्य गोवा को भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के लिए एक स्थायी स्थल बना दिया गया। तब से, सिनेमा प्रेमियों का स्वागत स्क्रीनिंग के साथ-साथ गोवा बीच पर ताज़ा समुद्री हवा से किया जाता है। कला अकादमी के ठीक पीछे समुद्र है, जहां वर्षों से महोत्सव में कई अच्छी फिल्में दिखाई जाती रही हैं।
अब उस स्थान को एक सेमिनार हॉल में बदल दिया गया है, जहां फिल्म जगत के लोग और विद्वान सिनेमा के सैद्धांतिक पहलुओं पर चर्चा करते हैं। फिल्म प्रेमियों के लिए विभिन्न सार्वजनिक व्याख्यानों की व्यवस्था की जाती है। सिनेमा केवल मनोरंजन ही नहीं करता, बल्कि हमारे नैतिक मूल्यों को भी शिक्षित करके उन्हें आकार देता है। भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव ने आधी सदी से साल दर साल इस दिशा में ठोस प्रयास किए है। महोत्सव के आयोजकों ने उभरते फिल्म निर्माताओं को निपुण निर्देशकों से मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए एक नया कार्यक्रम भी शुरू किया है। इस साल, भारतीय नवोदित निर्देशकों को पुरस्कार देने की एक श्रेणी शुरू की गई है। ये पहल निश्चित रूप से देश की सिनेमा संस्कृति को फलने-फूलने में मदद कर सकती हैं।
वर्ष 2000 में, नई सहस्राब्दी की शुरुआत में, भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन दिल्ली में किया गया था। उस समय केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्वर्गीय अरुण जेटली थे। प्रसिद्ध फिल्म निर्माता मृणाल सेन अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता अनुभाग के जूरी अध्यक्ष थे, जबकि प्रसिद्ध ईरानी फिल्म निर्देशक अब्बास किरोस्तामी जूरी सदस्य थे और प्रसिद्ध अभिनेता सौमित्र चटर्जी उस फिल्म महोत्सव के मुख्य अतिथि थे। मैं उस वर्ष भारतीय पैनारोमा अनुभाग का जूरी सदस्य भी था, और इसलिए मुझे सिनेमा जगत के इन दिग्गजों के साथ एक ही होटल में ठहरने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ।
स्क्रीनिंग में भाग लेने के पूरे दिन के अंत में, हम सच्चे बंगालियों की तरह अड्डा में शामिल होते थे। मृणाल बाबू, जो पूरा दिन किरोस्तामी और अन्य जूरी सदस्यों के साथ समय बिताते थे, हमें किरोस्तामी की फिल्म निर्माण की शैली की बारीकियों के बारे में बताते थे। दूसरी ओर, सौमित्र बाबू बताते थे कि कैसे उनके सिनेमा शिल्प को विदेशी भूमि में बहुत सम्मान मिलता है, जहां वह सत्यजीत रे की फिल्मों में मुख्य अभिनेता होने के कारण अनगिनत बार गए थे। इन वार्तालापों में मुझे अनंत तारों वाले आकाश की ओर ले जाने की क्षमता थी। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में बिताए गए दिनों ने मेरे लिए जीवन के बारे में सीखने के लिए कई द्वार खोल दिए हैं।
भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव ने मुझे और भी बहुत सारे सुखद अनुभव दिए हैं। उस समय की बात करें जब तत्कालीन बंबई में फिल्म महोत्सव आयोजित किया गया था – ऐसा पहली बार था जब मैं एक पत्रकार के रूप में किसी फिल्म महोत्सव में भाग लेने गया था। उस वर्ष फिल्म महोत्सव की समापन फ़िल्म स्टीवन स्पीलबर्ग की ‘शिंडलर्स लिस्ट’ थी। स्पीलबर्ग ने ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म के उस आखिरी दृश्य को रंगीन कर दिया था जिसमें यहूदी अत्याचारी नाज़ियों के हाथों से बचकर आगे बढ़ रहे थे।
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उस दिन सांता क्रूज़ में अपने होटल वापस लौटते समय, मुझे लगा कि केवल सिनेमा में ही हमें अपना इतिहास याद दिलाने की शक्ति है… और भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव जैसे फिल्म महोत्सवों में पूरी दुनिया को हमारे द्वार तक लाने की शक्ति है।
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(शिलादित्य सेन एक वरिष्ठ पत्रकार, फिल्म समीक्षक और विद्वान, विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जूरी सदस्य हैं और उन्होंने राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों, फिल्मी हस्तियों और लोकप्रिय सिनेमा के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर किताबें लिखी हैं)