ओम दत्त
ड्रैगन ने हमारे पड़ोसी देशों को चीनी सामानों से लबरेज कर रखा है। श्रीलंका मे़ देश के दो छोरों को जोड़ने वाली सबसे बड़ी सड़क चीन द्वारा बनाई गई है। इस के अलावा एक श्रीलंकाई बंदरगाह का मुख्य केंद्र,बीजिंग द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
इस तथ्य के बावजूद कि भारत ने अपने दक्षिण के इस द्वीप राष्ट्र में बहुत काम किया है, श्रीलंका बुनियादी ढाँचे के अधिकांश काम अब चीन को सौंप रहा है और पिछले चार से पांच वर्षों में बीजिंग के साथ कोलंबो के संबंधों में ज्यादा तेजी आई है।
सूत्रों के अनुसार चीन न केवल श्रीलंका को भारी ऋण प्रदान करता है, बल्कि उसे कम लागत पर काम भी मिल जाता है, जबकि भारत इस तरीके से मदद नहीं करता है और इसीलिए, श्रीलंका अपने हितों से मामले में चीन को खुद के ज्यादा करीब पा रहा है ।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार श्रीलंका के अधिकारियों का कहना है कि चीन ने उन्हें कम कीमत पर उन्नत उत्पाद उपलब्ध कराए हैं जिसकी वजह से श्रीलंका हर क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रहा है ।
हालांकि जहां तक भारत का श्रीलंका के साथ संबंधों की बात है तो, उसके नागरिकों के आगमन पर वीजा की सुविधा भी है और मुफ्त वीजा भी। भारत श्रीलंका के साथ पुरातन धार्मिक समानता और सम्बद्धता पर संबंधों को मजबूत करने के लिए आगे बढ़ रहा है और यह मंदिरों के विकास के द्वारा सुनिश्चित किया जा रहा है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीनी वर्चस्व बढ़ रहा है। इस क्षेत्र के अधिकांश देश न केवल चीन के कर्जे में दबे हैं, बल्कि ड्रैगन उनके बुनियादी ढांचे के विकास में भी एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बन गया है। इस तरीके से चीन ने इन सभी देशों पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखी है।
दक्षिण एशिया में, चीन ने भारी भरकम कर्ज के साथ पाकिस्तान, मालदीव, श्रीलंका और नेपाल पर बड़े पैमाने पर बोझ डाला हुआ है जिससे उबरना उनके लिये आसान नहीं है।
एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार, चीन के चार बड़े सरकारी बैंकों में से तीन ने विदेशों में अधिक ऋण दिए हैं। चीन कर्जे को एक खास रणनीति के तहत इस्तेमाल कर रहा है और अपनी कंपनियों को दुनिया के उन देशों के साथ व्यापारिक समझौते करने के लिए भेज रहा है जहां केवल एक तरफा मुनाफाखोरी होती है।
सूत्रों के अनुसार श्रीलंका को एक बिलियन से अधिक डॉलर का कर्ज देकर चीन ने फंसा रखा है।
जानकारी आई है कि अब मालदीव ने भारत से सभी परियोजनाओं को वापस लेकर उन्हें चीन को सौंप दिया है। मालदीव ने भारतीय फर्म जीएमआर से 511 बिलियन डॉलर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के प्रोजेक्ट को वापस ले लिया और चीन को सौंप दिया है और मालदीव में कई परियोजनाएं चीन द्वारा विकसित की जा रही हैं।
चीन न केवल एशियाई देशों में अप्रत्यक्ष विकास कर रहा है, बल्कि अफ्रीकी देशों में भी ऐसा ही कर रहा है।
अफ्रीका के ऐसे ही एक देश जिबूती ने अपना सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह चीन को सौंप दिया है। अमेरिका ने जिबूती में अपने सशस्त्र अड्डों की स्थापना की है। इस वजह से, यह असुरक्षित महसूस कर रहा है और फिलहाल अमेरिका जिबूती से नाराज है।
अमेरिकी विदेश मंत्री ने कांग्रेस को अवगत कराया है कि चीन इस तरह से काम कर रहा है जिससे कि सभी देशों को उस पर निर्भर होने के लिए मजबूर होना पड़े। चीन गैर-जवाबदेह ऋणों को आगे बढ़ाकर वहाँ के हुक्मरानों से अपने मनमाफिक नीतियाँ लागू करने की स्थिति में है और ऐसे देश न केवल अपनी आत्मनिर्भरता बल्कि अपनी संप्रभुता को खोने के खतरे से भी दूर नहीं हैं।
सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट का मानना है कि “वन बेल्ट वन रोड” परियोजना के 8 साझेदार देश जिबूती, किर्गिस्तान, लाओस, मालदीव, मंगोलिया, मोंटे नीग्रो, पाकिस्तान और ताजिकिस्तान सभी चीनी कर्जे के बोझ से दबे हैं। यह महत्वपूर्ण परियोजना भारत और अमेरिका दोनों के लिए खतरे का कारण है।
अब चीन ने घनिष्ठ संबंध बनाने के लिए बंगला देश और भूटान में परियोजनाएं शुरू की हैं। इस श्रृंखला में, यह नेपाल, भूटान और बांग्लादेश को सड़क जाल से जोड़ देगा और भारत को चारों तरफ से घेर लिया जाएगा। इस परियोजना पर काम चल रहा है। डोकलाम में भी ड्रैगन सड़क बना रहा है।
पाकिस्तान अब एक सीधी सड़क लिंक के माध्यम से चीन के साथ जुड़ा हुआ है और एक रेलवे लाइन बिछाने की योजना भी सामने आई है जो न केवल भारत के लिए खतरनाक है, बल्कि इसे एक ऐसे टाईम बम की तरह देखा जाना चाहिए जो किसी भी समय भारत के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ पैदा कर देगा। चाहे वह लद्दाख हो या अरुणाचल प्रदेश, चीन ने हजारों किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया है और वहां भी बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा विकसित किया जा रहा है।
यही कारण है कि जब हमारी अपनी अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है, उस समय हमें अपने स्वास्थ्य के क्षेत्र को सशक्त बनाने के बजाय रक्षा उपकरणों के बड़ी खरीद में निवेश करने के लिए विवश होना पड़ा है।
इस समय जबकि हमारे देश का बुनियादी ढांचा ढह रहा है,हम अपनी ऊर्जा नकारात्मक राजनीतिक मुद्दों में लगा रहे हैं हमारे पास चीनी प्रभुत्व को चुनौती देने की कोई विश्वसनीय योजना नहीं दिख रही है।
हाल के दिनों में भारत,अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान ने चीन के खिलाफ एक नया रणनीतिक गठबंधन बनाया है। इसी समय, अमेरिका में ट्रम्प की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है और अमेरिकी चुनावों में इसका असर पड़ने की उम्मीद भी है। यदि वाशिंगटन में शासन में बदलाव होता है, तो उनकी नीतियों में बदलाव होगा, और आर्थिक संकट के समय जापान गठबंधन के लिए कितना काम करेगा,कहना मुश्किल है।
कहने का आशय यह कि चाइना के खिलाफ यह गठबंधन कितना मजबूत होगा कहना मुश्किल है।
भारत की त्रुटिपूर्ण आर्थिक नीतियां, विमुद्रीकरण, जीएसटी, राज्यों की खराब स्थिति, और सामाजिक विद्वेश ने देश को कमजोर किया है। हमारी आर्थिक स्थिति पहले से कमजोर हो रही थी और कोविद -19 महामारी ने इसे बदतर बना दिया। फिलहाल हम दुनिया की सबसे खराब अर्थव्यवस्थाओं में से एक हैं।
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हमारे देश में आम नागरिकों, उपभोक्ताओं, गरीब किसानों और मजदूरों के हितों को ध्यान में रखते हुए नीतियों को लागू करने के बजाय कॉरपोरेट्स और बड़े कारोबारी घरानों के हितों को ध्यान में रखते हुए नीतियां बनाई जा रही हैं। जिससे लगभग हर वर्ग में आक्रोष व्याप्त है। कृषि अध्यादेश को लेकर किसान सशंकित और उबाल में है।
हम अपने नागरिकों के कल्याण पर संसाधनों को खर्च करने और विकसित करने के बजाय, हथियारों की खरीद पर इसे खर्च करने के लिए मजबूर हो गये हैं।
हम अपने देश में सामाजिक सौहार्द ,आर्थिक समृद्धि और रोजगारपरक शिक्षा कायम करने पर बल दें तभी हम चीन जैसे किसी भी देश का मजबूती से स्थाई मुकाबला करने में सक्षम होंगे ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)