वर्तमान समय में लाखों बच्चे ऐसे ही सड़कों पर भटकते देखे जा सकते है। ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए कोई पहल दिखाई नहीं पड़ रही है
वर्तमान समय में लाखों बच्चे ऐसे ही सड़कों पर भटकते देखे जा सकते है। ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए कोई पहल दिखाई नहीं पड़ रही है। सरकार और सरकारी योजनाओं के असफल होने पर आम जनता को मिल जुलकर बचपन संवारने प्रयास करने होंगे। हमारे देश की सरकार ने ऐसे ही कार्यों को सही ढंग से करने की जवाबदारी एनजीओ के कंधों पर डाली है। विडंबना यह है कि बच्चों के नाम पर मिलने वाली बड़ी सरकारी मदद ऐसे संगठनों द्वारा स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन चुकी है। बच्चों के हक में बन रही या चल रही अच्छी योजनाओं पर जंग लग चुका है। रेडी टू ईट फूड योजना से लेकर नि:शुल्क इलाज का संकल्प ऐसे ही कुछ उदाहरण हो सकते हैं, जिनका लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच रहा है।
पूरे विश्व में पांचवी सबसे बड़ी व्यवस्था की ओर कदम बढ़ा रहे भारत वर्ष का बचपन आज भी भूखा और वस्त्रहीन है। कुपोषण से कराह रहे बच्चों के दर्द ने पांच से सात वर्ष के बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले रखा है। लगभग 20 प्रतिशत बचपन अनेक प्रकार की व्याधियों में जीवन व्यतीत करने मजबूर है। यह हमारा नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का मानना है कि दक्षिण एशिया में भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से उभरने वाली अकेली अर्थव्यवस्था है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की यह रिपोर्ट उस समय बेमानी लगी है, जब हम अपने देश में कराहते और बिलकते बचपन का दृश्य देख कांप उठते है।
चमचमाते भारत के शीश पर चढ़ी चमकदार कलई को ऐसी अनेक विकृतियां उतार फेंक रही है। सन 2018 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 199 देशों की सूची में भारत को 103 नंबर पर रखा गया है। भारत उन देशों के साथ खड़ा है, जहंा यह समस्या गंभीर स्थिति में पहुंच चुकी है। अर्थव्यवस्था के ऊंचे ग्राफ को छूने जा रहे भारत वर्ष के लिए उत्तर प्रदेश का कुशीनगर चुनौती देता दिख रहा है। उक्त जिले में एक सप्ताह के भीतर एक मां और उसके दो बच्चों की भूख और कुपोषण से मौत हो गयी। मृतक परिवार आदिवासी और बेहद गरीब मुसहर समुदाय से संबंधित बताया गया है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। विचारणीय चिंतन का विषय यह है कि आखिर यह सिलसिला कब खत्म हो पाएगा?
तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था का तमगा लटकाये भारत वर्ष में सबसे बड़ी समस्या एक बड़े वर्ग की भूख मिटाना ही है। विकास की तमाम दावों और प्रतिदावों के बीच भूख से होने वाली मौतों को न रोक पाना कहीं न कहीं योजनाकारों की असफल नीति का ही परिणाम रही है। इस पूरे मामले में कहीं-कहीं सुखद अहसास तब होता है, जब हम देश के कुछ हिस्सों में युवा वर्ग को इस अंतहीन समस्या से लड़ते भिड़ते देखते है। अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है, जब हमनें झारखंड के एक क्षेत्र में बड़ी कराहने वाली आवाज सुनी थी।
‘मेरी बेटी भात-भात कहते मर गयी’ ये दर्दनाक शब्द कोयलीदेवी के मुंह से तब निकले थे, जब उसकी बेटी ने भोजन के अभाव में दम तोड़ दिया था। यह सरकारी व्यवस्था का दोष था, क्योंकि कोयलीदेवी का राशन कार्ड आधार से लिंक नहीं हो पाया था। यह घटना सितंबर 2017 की है। एक वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद भी स्थिति में सुधार नहंी आ पाया है। मानव अधिकारों की दुहाई देने वाली हमारे देश के नीति नियंताओं को सारी समस्याओं से ध्यान हटाकर सबसे पहले यह प्रयास करना होगा कि भविष्य में किसी को भी भूख से दम न तोड़ना पड़े। यह भी कहा जा सकता है कि देश में और कोई कोयलीदेवी और उसकी बेटी पैदा न हो।
भारत वर्ष की ऐसी ही तस्वीर देखकर मन द्रवित हो उठता है। देश का भविष्य जीवन की जंग नहीं लड़ पा रहा है। वह समय से पूर्व ही हार मानते हुए व्यवस्था का शिकार हो रहा है। हर जगह बच्चों का शोषण हो रहा है। बाल मजदूरी के नाम पर बच्चों से उनका बचपन छिना जा रहा है। हमारे देश के कानून में बाल मजदूरी एक अपराध है, किंतु होटलों में उन्हीं नन्हें हाथों से चाय का प्याला लेते हुए हमारे देश के मंत्रियेां के हाथ नहीं कांपते। सारे आम बच्चों का काम में लिप्त होना, देखते हुए भी हमारे देश का कानून अंधा होने का सबूत दे रहा है। वर्तमान समय में लाखों बच्चे ऐसे ही सड़कों पर भटकते देखे जा सकते है। ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए कोई पहल दिखाई नहीं पड़ रही है।
सरकार और सरकारी योजनाओं के असफल होने पर आम जनता को मिल जुलकर बचपन संवारने प्रयास करने होंगे। हमारे देश की सरकार ने ऐसे ही कार्यों को सही ढंग से करने की जवाबदारी एनजीओ के कंधों पर डाली है। विडंबना यह है कि बच्चों के नाम पर मिलने वाली बड़ी सरकारी मदद ऐसे संगठनों द्वारा स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन चुकी है। बच्चों के हक में बन रही या चल रही अच्छी योजनाओं पर जंग लग चुका है। रेडी टू ईट फूड योजना से लेकर निशुल्क इलाज का संकल्प ऐसे ही कुछ उदाहरण हो सकते है, जिनका लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच रहा है।
बच्चों से लेकर महिलाओं की स्थिति पर नजर डाले तो संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन 2017 की रिपोर्ट बड़ा ही डरावना दृश्य प्रस्तुत करती है। रिपोर्ट के अनुसार भारत वर्ष में कुपोषित बच्चों की संख्या 19.07 करोड़ है। कुपोषण का यह आंकड़ा दुनिया में सर्वाधिक है। हमारे अपने देश में 15 वर्ष से लेकर 49 वर्ष तक की बच्चियों एवं महिलाओं में खून की प्रतिशत 51.4 है। 5 वर्ष से कम उम्र के 38.4 प्रतिशत बच्चे अपनी आयु के अनुसार कम लंबाई वाले है। 21 प्रतिशत का वजन अत्यधिक कम है। भोजन की कमी के कारण होने वाली बीमारियां प्रतिवर्ष 3 हजार बच्चों को अपना ग्रॉस बना रही है।
हमारे देश में पैदा होने वाला अन्न मांग के अनुसार कम नहीं है, किंतु अन्न की बर्बादी को रोका नहीं जा सका है। एक सर्वे के अनुसार देश के कुल उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत अन्न विभिन्न चरणों में बर्बाद हो जाता है। जाहिर सी बात है कि भूख से लड़ने और कुपोषण से दूर भगाने में हमारा तंत्र असफल रहा है, और शर्मनाक तस्वीर हमें चिढ़ाती दिख रही है। हमारे देश में 20 करोड़ लोग भूखमरी का शिकार है। पूरे भारत वर्ष में हम इसलिए लिहाज से पहले नंबर पर है। सबसे ज्यादा चौकाने वाला तथ्य यह है कि 12 वर्ष पूर्व पहली बार तैयार की गई सूची में हम जहां थे, आज भी वहीं खड़े है। फिर सरकारी विकास के आंकड़े कैसे सीना तान रहे है?
देश के प्रत्येक नागरिक को पोषण उपलब्ध कराने की सरकारी प्रतिबद्धता के बावजूद भ्रष्टाचार, लाल फीताशाही एवं अन्य वजहों से अब तक हमनें अपने संकल्प को पूरा नहीं किया है। शासन की सस्ते अनाज के दुकानों के माध्यम से गरीबों तक पहुंचाये जाने वाले अन्न की कालाबाजारी ने जहां दलालों की तिजोरियां भरी है, वहीं गरीब दाने दाने के लिए तरसते हुए दम तोड़ने विवश होता रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भूखमरी, कुपोषण का चरम रूप हैै।
शिशु मृत्यु दर असामान्य होने का प्रमुख कारण भी कुपोषण ही है। भारत को कुपोषण और भूखमरी से निजात दिलाने के लिए यह जरूरी है कि गरीब-अमीर के बीच की खाई पहले पाटी जाये। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल मरने वाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या 10 लाख से भी ज्यादा है। हम पूरे दक्षिण एशिया में इस लिहाज से सबसे बुरी हालत में है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत वर्ष का सरकार और संगठन इस ओर ध्यान दे तो मौतों का आंकड़ा कम किया जा सकता है। कुपोषण के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए हमें इसे ‘चिकित्सीय आपात स्थितिÓ के रूप में देखने की जरूरत है। – डा. सूर्यकांत मिश्रा