केपी सिंह
युद्ध जीतने के लिए लड़े जाते हैं इसलिए कहा गया है कि युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज है। लेकिन भारतीय संस्कृति में युद्ध में मायावी घात-प्रतिघात को गर्हित सिद्ध किया गया है। पौराणिक कथाओं में और रामचरित मानस में राक्षसों को मायावी युद्ध कला का विशेषज्ञ साबित करते हुए इसके लिए उन्हें जगह-जगह निंदित किया गया है।
मायावी युद्ध में इंद्रजाल, सम्मोहन और अन्य जादूटोने का इस्तेमाल किया जाता है जिसके जरिये प्रतिद्वंदी को मति भ्रमित करके परास्त किया जा सके। यह युद्ध की एक मनोवैज्ञानिक कला है जो प्रत्यक्ष युद्ध से अधिक घातक मानी जाती है। रामचरित मानस में रक्ष कुल नायक रावण को स्वयं को मायावी युद्ध में अत्यंत प्रवीण बताया गया है। वह शत्रु सेना को भ्रमित करने के लिए आकाश पर एक साथ प्रतिद्वंदी सेनापतियों के कई चेहरे उभार देता था। उसका पुत्र मेघनांद भी मायावी कला में सिद्धहस्त था और इसी कारण उसने भगवान के अनुज लक्ष्मण को मरणासन्न करने में सफलता हासिल की थी। कालनेमि, मारीच आदि रावण पक्ष के योद्धा भी मायावी युद्ध के विशेषज्ञ थे। रामचरित मानस पढ़कर ऐसा लगता है कि भगवान राम के खेमे में युद्ध जीतने के लिए मायावी कला का प्रयोग वर्जित माना जाता था। संभवतः राम मायावी युद्ध को कपटाचार मानते थे। जिसमें विरोधी को मूर्छा में धकेलकर उस पर वार किये जाने का कौशल दिखाया जाता था। राम के लिए ऐसी युद्ध कला वास्तविक पराक्रम पर कलंक की तरह थी। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में हर स्थान पर इस युद्ध कला के प्रयोग के लिए राक्षसों को धिक्कारा है।
लोकतंत्र में मायावी युद्ध का टर्म फिर से प्रासंगिक हो गया है। खासतौर से प्रोपोगंडा के साधनों के जबर्दस्त तौर पर हाईटेक होने के बाद। राजीव गांधी ने चुनाव जीतने के लिए वितंडावाद पर सबसे पहले बहुत ज्यादा जोर दिया था। उन्होंने एक विदेशी पीआर कंपनी की सेवाएं लेकर 1985 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के विज्ञापन तैयार कराये थे और उनका प्रकाशन काफी रुपया खर्च करके अखबारों में कराया था। राजीव गांधी अमेरिका की चुनाव पद्धति से प्रभावित थे। उन्होंने राजनीति के कारपोरेटीकरण की शुरूआत की। सिद्धांतवादी और प्रतिबद्ध राजनैतिक बुद्धिजीवियों ने राजीव गांधी की इन कोशिशों की आलोचना की थी। वे लोग विज्ञापनों के जरिये जनमानस का चेतनाहरण कर चुनाव जीतने को सही नही मान रहे थे। उस समय के बुद्धिजीवियों का मानना था कि मंहगे और लुभावने विज्ञापन स्वतंत्र जनमत में बाधक हैं। जिससे लोकतंत्र अपने उददेश्य से भटक जायेगा और वर्ग स्वार्थ लोकतंत्र को हाईजैक करने में सफलता प्राप्त कर लेगें।
इसी कारण 5 साल बाद जब राजीव गांधी को अपदस्थ करके वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तो चुनाव प्रचार को आदर्शवादी स्वरूप देने के लिए अपने राजनैतिक एजेंडे में उन्होंने सर्वोपरि स्थान दिया। इसके तहत उन्होंने चुनाव प्रचार के लिए सभी दलों और निर्दलीय उम्मीदवरों को भी सरकारी फंड से खर्च आवंटित करने का विचार प्रस्तुत किया। वीपी सिंह की सरकार को कम्युनिष्टों के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी ने भी समर्थन दिया था और शुरू-शुरू में वह भी चुनाव प्रचार के सरकारी फंड की व्यवस्था के उनके प्रस्ताव की कायल रही थी।
लेकिन आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत के साथ ही लोकतंत्र के बुनियादी स्तंभों के ढहने का तेज सिलसिला शुरू हो गया और जनहित केंद्रित राजनैतिक सुधारों का एजेंडा नेपथ्य में खिसकने लगा। मायावी प्रपंचों का प्रभुत्व इस कदर स्थापित हुआ कि शुद्ध जनमत अरण्यरोदन की नियति का शिकार होता चला गया। किंकर्तव्यविमूढ़ जनमानस अपने ही विरुद्ध जनादेश चुनाव में परित करने लगा।
सरकारें चलाने और बचाने के लिए जनप्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त की कुरीति अनिवार्य बुराई की तरह जड़े जमाती चली गईं। मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की आमदनी और एश्वर्य में भारी बढ़ोत्तरी से जुड़े सवाल असंगत माने जाने लगे। देश का लोकतंत्र अभी तक इतिहास की सबसे खर्चीली शासन प्रणाली का रूप लेता गया। नतीजतन ऐसा लोकतंत्र काॅरपोरेट के यहां बंधक हो जाने के लिए अपनी नियति में अभिशप्त था।
एक दशक पहले तक कई वैकल्पिक माडल चर्चाओं में रहते थे। जिससे लोकतंत्र के बचे रहने की आस जिंदा थी। खासतौर से भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाली राजनीतिक शक्तियों से उम्मीद थी कि उन्हें भले ही रूढ़िवादी करार दिया जाये लेकिन अगर उनको अवसर मिला तो लोकतंत्र के डूबते जहाज के उद्धार के लिए निश्चित रूप से वे कोई अलग हटकर माडल आजमायेगीं। लेकिन मायावी प्रयोगोें में सबसे आगे निकलने की होड़ का शिकार होकर उसने अपने जरिये किसी तरह के गुणात्मक परिवर्तन की संभावना पर विराम लगा दिया है।
2019 के लोकसभा चुनाव के पहले ही यह प्रमाणिक जानकारियां सामने आ रहीं थी कि प्रचार अभियान में भाजपा सर्वाधिक पैसा फूंक रही है।
नंबर एक के खर्चे में ही वह सबसे आगे पाई गयी। इसके अलावा छदम तरीकों से हो रहा खर्चा जो नंबर एक से गई गुना अधिक रहा उसमें तो भाजपा के सामने कोई टिक ही नही पाया। यही नही मोदी सरकार ने सरकारी योजनाओं के नाम पर विज्ञापन में जो भारी खर्चा लुटाया उसका उददेश्य लोगों को जागरूक कर योजनाओं का लाभ लेेने के लिए सबल बनाना न होकर अपनी पार्टी की ब्रांडिंग करके उसके प्रभुत्व को बढ़ाना रहा। डा. मनमोहन सिंह की सरकार में योजनाओं के प्रचार के लिए औसतन 504 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष विज्ञापनों पर खर्च किये गये। जबकि मोदी सरकार ने इस खर्च को बढ़ाकर दोगुने से अधिक 1202 करोड़ रुपये सालाना कर दिया। मोदी सरकार के साढ़े चार वर्ष के कार्यकाल में विज्ञापनों पर सरकारी खर्चा 5 हजार 7 सौ करोड़ से अधिक हुआ। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के अलावा सोशल मीडिया पर भी विज्ञापनों का खर्चा नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। 2014-15 से 2018-19 तक इंटरनेट के विज्ञापनों पर सरकार ने लगभग 27 करोड़ खर्च डाले। जबकि इसके पहले केवल 6.64 करोड़ रुपये खर्च किये गये थे।
मायावी खर्चे की भीषण बढ़ोत्तरी की वजह से ही ज्यादा से ज्यादा कर वसूलने के बावजूद सरकार की झोली खाली होती जा रही है और विकासदर नीचे पहुंचती जा रही है। इन हालातों में सरकार अपने उपक्रमों को औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर है। पर्दे के पीछे प्रोपोगंडावार में अंधाधुंध रुपया झोंका जा रहा है। यह रुपया जो कारपोरेट दे रहे हैं सरकार उनके इशारे पर नाचने के लिए स्वाभाविक तौर पर मजबूर है। लोकतंत्र धीरे-धीरे एक मृग मरीचिका में तबदील हो गया है। भले ही बिहार की पुलिस ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखने वाले बुद्धिजीवियों के खिलाफ अदालत के आदेश से दर्ज एफआईआर रदद कर दी हो लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी को कानूनी आतंकवाद से अर्थहीन बनाने की कोशिशों में कमी नही आने दी जा रही है।
सरकार मनोवैज्ञानिक हथियारों का सहारा जनमानस पर अपने को स्थापित करने को ले रही है। लेकिन मनोविज्ञान के बुनियादी सूत्र ही उसके हाथ से छूटते जा रहे हैं। जैसे असंतोष की प्रवृत्ति लोगों में मौलिक है। कितना भी अच्छा काम करने के बावजूद कोई सरकार लोगों को पूरी तरह संतुष्ट नही कर सकती। ऐसे में अपने गुबार निकालने की छूट देकर व्यवस्था में होशियार सरकार जो सेफ्टीवाल्व लगाती है वह कमोबेश अपने अस्तित्व को बचाये रखने में सफल रहती है। असंतोष का दमन करना किसी सरकार के लिए ज्वालामुखी के विस्फोट को न्यौतना जैसा है। बहरहाल मुख्य बात यह है कि अगर यह सरकार अपने को भारतीय संस्कृति का सच्चा उत्तराधिकारी सिद्ध करती है तो इस संस्कृति द्वारा नकारी जाने वाली मायावी पद्धतियों से परहेज करके लोकप्रियता बनाये रखने की सकारात्मक ईजाद की ओर उसका ध्यान क्यों नही जा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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