केपी सिंह
नया शिक्षा सत्र शुरू हो चुका है। योगी सरकार ने सत्ता संभालने के बाद निजी स्कूलों द्वारा अभिभावकों के मनमाने शोषण को रोकने का संकल्प व्यक्त किया था। लेकिन इस सरकार का लक्ष्य केवल धार्मिक उन्माद में समाज को सराबोर रखना भर रह गया है। इसलिए अन्य घोषणाओं की तरह निजी स्कूलों की उगाही पर रोक की उसकी हुंकार भी बेमानी दिख रही है।
फीस बढ़ोत्तरी की रफ्तार
दृश्य यह है कि निजी स्कूल सरकार के इरादे से बेखबर रहकर अपनी फीस पिछले वर्ष से और ज्यादा बढ़ा चुके हैं। जिन सहूलियतों को देने का वायदा कर रहे हैं, वे सहूलियतें स्कूल में नदारत हैं। मान्यता की शर्तों की भी कोई परवाह नही की जा रही। एक सेक्शन में जितने बच्चे चाहिए उससे लगभग दोगुने बच्चे बिठाये जाते हैं। ड्रेस, किताबों आदि की खरीद में भी वे अपनी मनमानी अभिभावकों पर पहले की ही तरह थोप रहे हैं। कोई उनकी रोक-टोक करने वाला नही है।
सरकारी स्कूल लावारिस हालत में
दूसरी ओर सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने की इच्छा शक्ति गायब है जहां प्राइवेट स्कूलों से कई गुना वेतन पाने वाले योग्य शिक्षक हैं लेकिन उन्हें स्कूल जाना गंवारा नही है। शहर के नजदीक के स्कूलों में छात्र शिक्षक के अनुपात से बहुत ज्यादा शिक्षकों की तैनाती बदस्तूर जारी है। सरकारी स्कूलों की विफलता के कारण ही निजी स्कूलों की श्रृंखला सुदूर गांवों तक पैर पसार चुकी है। अभिभावक सरकारी स्कूलों में बच्चें का नामांकन भर कराते हैं जबकि उसे पढ़ाते निजी स्कूल में हैं।
शिक्षा में सुधार की अनिच्छा क्यों
शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए दृढ़ता क्यों नहीं दिखाई जा रही है। इसका कारण पहला तो यह है कि यह बहुत भुरभुरी सरकार है जो वैध व्यवस्था से परे जा चुकी वर्ग सत्ताओं से नाराजगी मोल नही ले सकती। दूसरे तमाम निजी स्कूलों के मालिक वे हैं जो वर्तमान सत्ता में खासी पैठ रखते हैं।
ईश्वरीय विधान के लिए समर्पण
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण है यह सरकार पिछले जन्म के कर्मफल के ईश्वरीय विधान में विश्वास करती है जिसमें दखल का पाप वह नही करना चाहती। जिन बच्चों को गरीब, पिछड़ी, दलित कौमों में पैदा होना पड़ा है शास्त्रों के मुताबिक वे नियति के दंड को भोगने के लिए अभिशप्त हैं। मंहगी शिक्षा के चलते ये बच्चे अपने जीवन के उत्थान के अवसर से वंचित होगें तभी ईश्वरीय विधान सफल होगा।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों की वजह से निजी स्कूलों में गरीब परिवारों के 30 प्रतिशत बच्चों को एडमीशन दिलाने का जो ढकोसला सरकार को करना पड़ रहा है उसमें सार्थक हस्तक्षेप का नितांत अभाव है।
सरकारी स्कूलों में गरीब परिवार के बच्चे ही पढ़ते हैं। इसलिए इनमें सुधार के कटिबद्ध प्रयासों की जरूरत अगर सरकार महसूस नही कर रही है तो कुछ अजीब नही है।
उस पर तुर्रा यह कि अगर विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कोई बच्चा कुदरती प्रतिभा की वजह से आगे दौड़ भी जाये तो संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा को इस तरह व्यवस्थित कर दिया गया है कि उसके द्वार हिंदी भाषी छात्रों के लिए बंद हो जाये नतीजतन सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए साहब बनकर ईश्वरीय विधान को चुनौती देने का अवसर जाता रहे।
भूल गये सांस्कृतिक आक्रमण पर विलाप के दिन
सरकार के इस पुण्य अभियान का एक और पहलू है जो उसकी प्रतिबद्धता से जुड़ा हुआ है और जिसके नाते उसे दोहरी शिक्षा प्रणाली के औचित्य पर विचार करना चाहिए। दरअसल निजी स्कूलों में पढ़ाई नही होती, कल्चर सिखाया जाता है।
यह देशी तौर-तरीकों को हीन भावना से देखने की मानसिकता का निर्माण करता है। भाजपा जब सत्ता में नही थी, उस समय पश्चिम के सांस्कृतिक आक्रमण और संक्रमण को लेकर बहुत विलाप करती थी। लेकिन अब वह निजी स्कूलों में इसे रोकने के लिए दखल देने की तड़प क्यों नही दिखाना चाहती।
स्टेटस सिंबल के नाम पर समाज हित की बलि
इन स्कूलों में पढ़े बच्चे कांटा, छुरी से खाना खाने के अभ्यस्त हो जाते हैं जिनकी निगाह में वे लोग गंवार ठहरेगें जो परंपरागत तरीके से खाना खाते हैं। टाई पहने को लेकर भी इनकी धारणा ऐसी ही बन जाती है, देश के बहुतायत लोग जो टाई नही पहनते इनकी निगाह में असभ्य होगें।
इन स्कूलों के बच्चे अपने घर में स्वीमिंग पूल के स्टेटस सिंबल को आवश्यक मानेगें जिससे पानी की फिजूलखर्ची को बढ़ावा देकर जल संरक्षण अभियान का भटठा बिठाया जा सके।
फिर एक साथ पढ़े कृष्ण-सुदामा
गुरुकुलों में जहां कृष्ण और सुदामा एक साथ पढ़ते थे, उस संस्कृति की कहानी सुनाकर गढ़ी गई रूमानियत का भाजपा को सत्ता में लाने में बड़ा योगदान रहा है लेकिन अब वह अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को पुर्नस्थापित करने के दायित्व से मुकर रही है।
वह क्यों अग्रसर नही हो रही प्राचीन गुरुकुलों की तरह समान शिक्षा व्यवस्था कायम करने के लिए और जब तक यह नही होता वह उन चोचलों को निजी स्कूलों में क्यों नही बंद कराती जो आयातित संस्कृतिकरण को बढ़ावा दे रहे हैं।
फादर्स-डे, मदर्स-डे, गुड फ्राइडे, क्रिसमिस, न्यू ईयर जैसे आयोजन निजी स्कूलों में क्यों होते हैं जो नई नस्ल को सांस्कृतिक तौर पर बहकाते भी है और जिनके जरिये अभिभावकों की जेब काटों अभियान में नई कडि़यां जोड़ी जाती हैं।
चीन का उदाहरण इस मामले में ध्यान रखा जाना चाहिए जहां दो साल पहले स्कूलों में ऐसे फैस्ट बंद करा दिये गये थे और कहा गया था कि आयातित पर्व मनाने से उनके परंपरागत त्यौहारों पर असर पड़ रहा है।
आभिजात्य नस्ल में घृणित भावनाओं का पोषण
शिक्षा के क्षेत्र में यह स्थिति इंडिया बनाम भारत के द्वंद का निर्माण कर रही है। मंहगी फीस वाले निजी स्कूलों में जिस इंडिया का निर्माण हो रहा है वह उनसे छिटके बहुसंख्यक भारत के प्रति तिरस्कार भाव से ओत-प्रोत है। उनकी यह घृणित मानसिकता अगर असली भारत के स्वाभिमान को ललकारने की वजह बन गई तो खतरनाक स्थितियां सामने आ सकती हैं। नक्सली उत्पात जैसी विद्रोहपूर्ण अभिव्यक्तियां घटित हो सकती हैं।
निर्गुण निराकार क्यों हो रही सरकार
पुनश्चः अकेल शिक्षा के क्षेत्र में ही नही योगी सरकार हर क्षेत्र में कारगर हस्तक्षेप की नीति से परे रहकर केवल जीवन निर्वाह के प्रदर्शन तक सीमित रहना चाहती है जिससे उसके घोषित संकल्प मजाक बनकर रह गये हैं। उसने पालीथिन के खिलाफ अभियान की घोषणा की थी। लेकिन कुछ दिनों तक हांथ-पैर मारने के बाद यह मोर्चा ठप्प कर दिया गया।
योगी सरकार ने एलान किया कि उत्तर प्रदेश सरकार लिखी निजी गाडि़यां नही चलने दी जायेगीं, जो बदस्तूर चल रही हैं। सरकार अस्पताल के डाक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस नही कर पायेगें जबकि बिना रोक-टोक कर रहे हैं। भू-माफियाओं के खिलाफ अभियान चलाने की घोषणा की थी लेकिन देहातों में श्मशान, तालाब की जगह पर कब्जा करने वाले छुटभैयों तक इसे निपटा दिया गया।
यहां तक कि फर्जी कागज बनाकर अरबों रुपये की सरकारी जमीन हथियानें के एक्सपर्ट तक कार्रवाई की जद में नही लाये गये। घोषणा और कार्रवाइयों के मामले में आज तक कोई इतनी अप्रमाणित सरकार नही रही।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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