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बिना सोचे नीतियां लागू करने का खामियाजा भुगत रहा है भारत

रफ़त फातिमा

कोरोना पैंडेमिक ने वैश्विक स्तर पर आर्थिक समस्याओं को पैदा किया है, लेकिन भारत में इसके दुष्प्रभाव ज़्यादा ही घातक साबित हुए हैं।

इसकी ख़ास वजह गत छः वर्षों से जारी केंद्र सरकार की ग़लत नीतियों में निहित है। सबसे पहले नोटबंदी ने मध्यम और निम्न वर्ग की कमर तोड़ी।

सन 2016 में सरकार ने सबसे महत्त्वपूर्ण और अनावश्यक निर्णय लिया जो नोटबन्दी का था। लेकिन, नोटबन्दी करने का निर्णय पहले हुआ, पर उसके लाभ और उद्देश्य बाद में तय किये गए।

रिज़र्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल को केवल सरकार के नोटबन्दी लागू करने के इरादे और आदेश का पालन करने के लिये 8 नवम्बर को अपराह्न तक बताया गया था।

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तभी आरबीआई बोर्ड की एक औपचारिक बैठक हुई। यह केवल कुछ गिरोही पूंजीपतियों को पता था। नोटबन्दी के बारे में पूर्व गवर्नर डॉ रघुराम राजन ने अपने ही कार्यकाल में सरकार को यह बता दिया था कि नोटबन्दी का निर्णय देशहित में नहीं होगा।

नोटबंदी के क्रियान्वयन का प्रशासनिक कुप्रबंधन इतना बीभत्स रहा कि, दो माह में ही 150 सर्कुलर, आदेश, निर्देश सरकार को जारी करने पड़े और 150 लोग लाइनों में खड़े खड़े या अवसाद से ही मर गए।

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जब एक ही मामले में रोज़ रोज़ अलग अलग दृष्टिकोण से सर्कुलर जारी होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अधिकारी चाहते क्या हैं, यह वे खुद ही तय नहीं कर पा रहे हैं। नोटबन्दी में यही हुआ था।

नोटबंदी के बाद जो आघात उद्योग और व्यापार जगत को लगा, उसका यह परिणाम हुआ कि सारे आर्थिक सूचकांक विपरीत हो गए और आज जो आर्थिक संकट हम देख रहे हैं उसकी शुरुआत 8 नवंबर 2016 को शाम 8 बजे को हुई एक मूर्खतापूर्ण आर्थिक निर्णय से हो चुकी थी ।

बेरोजगारी बढने लगी। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में मंदी आने लगी। जीडीपी यानी विकास दर गिरने लगा। सरकार का राजस्व घटने लगा। आर्थिक मंदी का प्रारंभ इसी फैसले के बाद होने लगा।

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यही प्रशासनिक कुप्रबंधन गुड्स एंड सर्विस टैक्स ( जीएसटी ) के भी क्रियान्वयन में हुआ। महीनों तक लोग अपना रिटर्न नहीं भर पाए। प्रक्रिया इतनी जटिल है कि, साल भर तक तो टैक्स प्रबंधक यही नहीं समझ पाए कि यह कौन सी बला है, और इसे कैसे वे अपने मुवक्किलों को समझाए।

जीएसटी के संबंध में व्यापारी बताते हैं कि ई वे बिल के नाम पर, उनसे जबरदस्त वसूली होने लगी। भ्रष्टाचार कम करने के वादे और उम्मीद पर लायी गयी यह कर प्रणाली तंत्र बहुतों के लिये सिरदर्द हो गया। न तो कर व्यवस्था सरल हुयी और न ही भ्रष्टाचार कम हुआ।

अब आया लॉक डाउन। जब 24 मार्च 2020 को 8 बजे रात 12 बजे से लॉक डाउन का निर्णय लिया गया तो यह सोचा भी नहीं गया कि, इस निर्णय से क्या क्या समस्यायें आ सकती हैं और इनका समाधान कैसे किया जाएगा।

कोरोना के बाद जिस तरह बिना किसी योजना के लॉक डाउन लगाया गया उसने देश की समस्त आर्थिक गतिविधियों को ठप कर दिया।

अगर सरकार द्वारा जारी आँकड़ों की रौशनी में हालात के देखें तो भी स्थिति बहुत ही भयावह नज़र आती है। विकास दर ऋणात्मक होने का अर्थ है सभी क्षेत्रों में ज़बरदस्त मंदी के असार जो जल्द ख़त्म होने वाले नहीं हैं।

इस बात को ध्यान में रखना होगा कि यह हालात कुछ माह में नहीं बन गये बल्कि ग़लत आर्थिक नीतियों और सरकार को इस बात का यक़ीन विभाजनकारी नीतियों का अंध समर्थन मिलता रहेगा में निहित हैं।

ज़मीन पर हालात कैसे हैं कोई अध्ययन सामने नहीं आ रहा है। केवल कुछ घटनायें अख़बार के किसी भीतरी पन्ने पर जगह ज़रूर पा जाती हैं।

अगर हम अपने आस-पास नज़र दौड़ायें तो सरकारी नीतियों की वजह से बर्बादी की दास्तानें सामने आ जायेंगी। 2014 -15 तक आम जनता को आर्थिक सुधारों का फ़ायदा मिलने लगा था और एक बड़ी आबादी निम्न आय वर्ग से मध्यम आय वर्ग में शिफ़्ट हो गयी थी।

लेकिन गत 4-5 वर्षों से हालात ख़राब होने लगे और आज उल्टी प्रक्रिया शुरू हो गयी है। कारोबार लगभग ख़त्म हो चुके हैं, ख़ासकर हाथ की कारीगरी से जुड़े कारोबार।

इनके सामने जीवन स्तर को बनाये रखना बहुत मुश्किल हो गया है, बच्चों की फ़ीस तक जमा करना मुश्किल हो गया है जिसकी वजह से एक बहुत बड़ा तबक़ा मानसिक अवसाद का शिकार है और आर्थिक तंगी की वजह से यदा-कदा आत्महत्या की खबरें सामने आ जाती हैं।

समस्या गम्भीर है और भविष्य में यह सरकार आम जनता की आर्थिक समस्याओं के निवारण की दिशा में कोई सार्थक क़दम उठायेगी, ऐसा फ़िलहाल दिखायी नहीं देता। परेशानी के बावजूद साम्प्रदायिकता अपने चरम पर है।सरकार अपनी विभाजनकारी नीतियों और पूँजीपतियों के समर्थन की वजह से जनता की आर्थिक परेशानियों पर विचार करने को मजबूर नहीं है।

(लेखिका आल इंडिया कांग्रेस के अल्पसंख्यक विभाग की राष्ट्रीय कोओर्डिंनेटर हैं)

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