उबैद उल्लाह नासिर
भारत में मुसलमानों का नरसंहार क्या वास्तविक ख़तरा है या यह केवल कुछ धर्मांध हिंसक नफरती पागलों की गीदड़ भभकी है? आम भारतीय मुसलमान से पूछिए तो वह सरकार प्रशासन पुलिस यहाँ तक की अदालतों के रवैये से नाखुश (असंतुष्ट) तो ज़रूर दिखाई देगा लेकिन वह न चिंतित है न घबराया हुआ है. डरने का तो सवाल ही नहीं. हाँ भारतीय समाज विशेषकर हिंदी पट्टी में सरकार की सरपरस्ती और मीडिया के सहयोग से जो ज़हर घोला जा रहा है वह न केवल सांझी भारतीय राष्ट्रीयता और विरासत के लिए ख़तरा है बल्कि इससे भारत की एकता अखंडता और सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है. जिसका फायदा सरहद पार बैठे भारत के दुश्मन उठा सकते हैं.
सच्चाई तो यह है की आज धर्म और राष्ट्रवाद का ठेका ले कर जो तत्व समाज में घृणा और हिंसा का ज़हर घोल रहे हैं वही इस देश और धर्म के सब से बड़े शत्रु हैं. इनके खिलाफ कठोर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए इसमें जितनी देर और टाल मटोल हो रही है उतनी देश की दुनिया भर में बदनामी हो रही है, और भारत के सभी शांति इन्साफ और सद्भाव प्रिय लोगों में एक गलत सन्देश जा रहा है. सरकार द्वारा दी जा रही इस ढील के कारण ही इन अवांछित तत्वों के हौसले बुलंद हो रहे हैं.
भारत सरकार के इस ढुलमुल रवैये के कारण अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी में न केवल उसकी बदनामी हो रही है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं विशेषकर मानव अधिकारों पर नज़र रखने वाली संस्थाएं उस पर सवाल भी उठाने लगी हैं. दुनिया में नस्लकुशी (Genocide) पर नज़र रखने वाली संस्था जेनोसाइड वाच ने किसी देश में नरसंहार शुरू होने के आठ चरण तय किये हैं. इस संस्था के संस्थापक प्रोफेसर ग्रेगोरी एच स्टेटन ने अभी हाल ही में सब के लिए न्याय (Justice for all) नामक दुनिया भर में मानव अधिकारों पर नज़र रखने वाली संस्था के वर्चुअल इजलास को संबोधित करते हुए बताया की भारत मुसलमानों के नरसंहार के उक्त 10 चरणों में से आठ पर पहुँच चुका है अर्थात भारत अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की नज़रों में मुसलमानों के नरसंहार के मोहाने पर खड़ा है. उधर मुस्लिम महिलाओं को सुल्ली डील और बुल्ली बाई के नाम से ऑनलाइन नीलामी की जो बेहूदगी हुई उसकी गूँज भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुनाई देने लगी है.
अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर नज़र रखने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था ने इस पर चिंता ज़ाहिर करते हुए भारत सरकार से इन तत्वों के खिलाफ कठोर कानूनी कार्रवाई की मांग करते हुए कहा है कि इसको भी घृणा भाषणों (Hate Speech ) समझ कर उसी के अनुसार कानूनी कार्रवाई की जाए. ऐसा पहली बार हो रहा है कि भारत के इन अंदरूनी मामलों को लेकर अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी न केवल चिंतित है बल्कि भारत सरकार की आलोचना भी कर रही है और उस से कार्रवाई की भी मांग कर रही है.
भारत सरकार इन घटनाओं को देश का अंदरूनी मामला कह कर और संविधान की दुहाई दे कर दुनिया की आँखों में धूल नहीं झोंक सकती क्योंकि दुनिया देख रही है कि घृणा और हिंसा के इन प्रचारकों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो रही है उलटे पीड़ित पक्ष को ही किसी न किसी प्रकार से निशाना बनाया जा रहा है.
भारत सरकार समेत हम सब को यह समझ लेना चाहिए की ग्लोबल हो चुकी इस दुनिया में मानव अधिकारों का उल्लंघन अब किसी भीं देश का अंदरूनी मामला नहीं रह गया और देश के दूर दराज़ इलाकों में होने वाली किसी भी घटना बयान आह्वान को मिनटों में दुनिया देख सुन लेती है और उस पर रियेक्ट करती है. दूसरी ओर हालत यह है की दुनिया में देश की चाहे जितनी बदनामी हो जाए उस पर चाहे जितनी उंगलियाँ उठें अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग के हर पैमाने पर हम चाहे जितना नीचे गिरते जा रहे हों लेकिन देश के हिन्दुत्ववादियों और हिंदुत्व वादी सरकार ने इस पर कोई ध्यान न देने का निर्णय कर रखा है. आत्मावलोकन का कोई सिद्धांत इनकी किताब में नहीं है. वह खुले आम ज़हर की खेती कर रहे हैं. सरकार की उन्हें सरपरस्ती हासिल है और मेन स्ट्रीम मीडिया खासकर चैनल उनके ज़हर को घर-घर पहुंचा रहे हैं, और सोशल मीडिया, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी द्वारा कच्चे ज़हनों की ब्रेन वाशिंग कर के इस देश की दूसरी सबसे बड़ी धार्मिक आबादी के खिलाफ नफरत फैलाई जा रही है उसके नरसंहार की बातें की जाती है.
क्या उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी का इन नरसंहार का आह्वान करने वालों का पैर छू कर आशीर्वाद लेना और पुलिस अफसर का इन के साथ हंसी ठिठोली इस बात का सुबूत नहीं है कि इनकी घृणा और हिंसा की सौदागरी को शासन और प्रशासन की सरपरस्ती हासिल है?
क्या राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री से ले कर सत्तारूढ़ दल के किसी नेता ने इनकी आलोचना भर्त्सना की. टीवी डिबेट में भी सत्ता के नुमायन्दे अगर मगर के साथ ही इसकी आलोचना करते हैं. यह कोई मामूली बात नहीं है कि पांच पूर्व सेना प्रमुखों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इन ज़हरीले बयानों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की उस पर भी दोनों संवैधानिक पदाधिकारियों की ओर से कोई बयान तक नहीं आया, कार्रवाई का आश्वासन तो दूर की बात है.
क्या किसी संवैधानिक लोकतंत्र में ऐसे बयानों पर सरकार ऐसी चुप्पी साध कर ऐसे तत्वों की हौसला अफजाई कर सकती है फिर संवैधानिक लोकतन्त्र और बनाना रिपब्लिक में क्या अंतर रह जाएगा? एक धर्मनिरपेक्ष और धर्मांध देश में कोई तो फर्क होना ही चाहिए. होना तो यह चाहिए था कि सरकार नहीं तो सुप्रीम कोर्ट मानव अधिकार आयोग अल्प संख्यक आयोग आदि हरद्वार में हुए घृणित भाषणों के खिलाफ खुद ही कार्रवाई करते लेकिन सभी संवैधानिक संस्थाओं पर एक विशेष विचारधारा के लोगों को बिठा कर सब को दंतविहीन कर दिया गया है अब यह संस्थाएं सफ़ेद हाथी से ज़्यादा कुछ नहीं हैं.
सुप्रीम कोर्ट के 75 वरिष्ठ वकीलों ने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर इन भाषणों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की इसके अलावा पत्रकार कुर्बान अली और पटना हाईकोर्ट की एक रिटायर्ड महिला जज ने PIL लगा दी जिस पर सुप्रीम कोर्ट एक्शन में आया और केंद्र व उत्तराखंड सरकार को नोटिस जारी कर दी गयी. हरिद्वार पुलिस ने बददिली के साथ कार्रवाई करते हुए SIT गठित की और दो कथित साधुओं को गिरफ्तार किया लेकिन पुलिस का रवय्या उनके साथ दोस्ताना ही रहा और नहीं लगता की उसने मुलजिम गिरिफ्तार किये हैं बल्कि सियासी लोगों की गिरफ्तारी जैसा आभास दिया जा रहा है.
हमारे संविधान ने देश के सभी नागरिकों को सामान अधिकार दिए हैं. संख्या बल पर किसी वर्ग को किस दूसरे वर्ग पर कोई वरीयता कोई विशेषाधिकार नहीं दिए गए हैं. सरकार सभी धर्मों जातियों वर्गों को एक नज़र से देखने के लिए संवैधानिक तौर से बाध्य है वह इसकी शपथ ले कर ही सत्ता संभालती है, लेकिन आज देश में वास्तव में क्या हो रहा है यह किसी से ढका छुपा नहीं है.
गुरु गोलवालकर ने बंच आफ थॉट्स में मुसलमानों ईसाईयों और कम्युनिस्टों के साथ जिस सुलूक की बात कही है उसी पर अमल किया जा रहा है और डॉ आंबेडकर द्वारा रचित संविधान किनारे पडा सिसकियाँ ले रहा है. देश को म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि के रास्ते पर ले जाया जा रहा है बिना यह एहसास किये की बहुसंख्यक वाद ने इन देशों को तबाही के कितने गहरे गड्ढे में ढकेल दिया था और कितनी कुर्बानी दे कर और क्या कीमत अदा कर के यह देश अब पटरी पर लौट रहे हैं.
संघ परिवार देश को विश्वगुरु बनाने की बहुत बात करता है लेकिन वह इस सत्यता को नकार देता है की घृणा और हिंसा के सहारे कोई देश विश्वगुरु नहीं बन सकता विश्वगुरु बनने के लिए भारत को अपनी उसी आध्यात्मिक शक्ति की ओर लौटना होगा जहां सर्वधर्म संभाव और वसुधैव कुटुंबकम की शिक्षा दी गयी महात्मा गांधी इन मानवीय मूल्यों के साथ सत्य और अहिंसा की चाशनी घोल कर भारत को विश्वगुरु बना दिया था. यह उन्हीं के आदर्श और उसूल तथा नेहरु की वैश्विक सोच थी कि 1947 में आज़ाद हुआ भारत जो आर्थिक और सैनिक रूप से बहुत कमज़ोर था बटवारे ने जिसकी कमर तोड़ दी थी वही भारत न केवल तीसरी दुनिया का नेतृत्व कर रहा था बल्कि अमरीका और सोवियत यूनियन जैसे सर्वशक्तिमान देश भी जिनकी बातों को गौर से सुनते थे और वैश्विक समस्याओं के हल के लिए भारत और नेहरु कि ओर देखते थे और आज जब भारत तब के मुकाबले में सौ गुना अधिक ताक़तवर और विकसित है उसके प्रधानमंत्री को विदेशों में गांधी के रास्ते पर चलने की सीख दी जाती है उसके यहाँ मानवाधिकारों,महिलाओं अल्पसंख्यकों, और कानून की हुकूमत आदि पर सवाल खड़े किये जाते हैं.
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हिन्दुत्व वादियों को सोचना होगा की वह देश को किस जगह पर ले जाना चाहते हैं क्या वह नहीं जानते कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी नरसंहार, मानवाधिकार हनन और ऐसी ही अलोकतांत्रिक गैर कानूनी हरकतों के खिलाफ चुप नहीं बैठेगी क्या उन्हें यूगोस्लाविया का इतिहास नहीं पता जो कभी भारत और मिस्र के साथ मिल कर दुनिया को युद्धों की तबाही जसे बचाता था घृणा और हिंसा ने आज उसका वजूद ही मिटा दिया है. इतिहास सबक के लिए होता है चाहे इतिहास से सबक लो या इतिहास के लिए सबक बनो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)