- एक औसत भारतीय वायु प्रदूषण की वजह से अपने जीवन का पांच साल कम जीने को मजबूर: एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स में हुआ खुलासा
डॉ सीमा जावेद
(इंडिपेंडेंट जर्नलिस्ट, पर्यावरणविद & स्ट्रेटेजिक कम्युनिकेशन एक्सपर्ट)
भारत की आबादी का एक चौथाई हिस्सा वायु प्रदूषण को झेलने के लिए मजबूर है। दुनिया के किसी भी देश में इतनी बड़ी आबादी इससे प्रभावित नहीं है। यह जानकारी आज जारी एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स (AQLI) से उजागर हुई।
वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक यानी एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स (एक्यूएलआई) के हिसाब से जीवन जीने के लिए जिस गुणवत्ता की हवा चाहिए, उस मामले में भारत विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर खरा नहीं उतरता है।
यही वजह है कि भारत में लाइफ एक्सपेक्टेनसी (यानी औसत जीवन प्रत्याशा), पांच साल कम हो गई है। यानी एक औसत भारतीय वायु प्रदूषण की वजह से अपने जीवन का पांच साल कम जीने को मजबूर है।
गौतलब है कि मानव शरीर में वायु प्रदूषण के अनदेखे प्रभाव हृदय, फेफड़े और अन्य प्रणालियों पर संक्रामक रोगों जैसे तपेदिक, एचआईवी एवं धूम्रपान और युद्ध जैसी व्यवहार जनित समस्याओं से अधिक घातक और जीवन प्रत्याशा पर विनाशकारी प्रभाव डालने वाले हैं।
इस वर्ष की शुरुआत से चल रही कोविड-19 की चुनौती से यह बात साफ़ हो चुकी है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करना सबसे महत्वपूर्ण है। फिर भी, जहाँ दुनिया भर के देश कोरोनोवायरस वैक्सीन विकसित करने की दौड़ में लगें हैं, वहीँ दूसरी तरफ हर रोज़ वायु प्रदूषण जैसे हत्यारे के कारण अरबों लोग वक़्त से पहले साँस की बिमारियों (दमा, साँस फूलना, अस्थमा, क्रोनिक ब्रोंकाइटिस, कमज़ोर फेफड़े की वजह से अनेक जान लेवा श्वसन रोगों आदि) की गिरफ्त में जकड़ कर एक बीमार जीवन जीते हैं और अकाल मौत की गोद में समा जाते हैं।
एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स (AQLI) के डाटा, जो वायु प्रदूषण के लाइफ क्वालिटी पर होने वाले प्रभाव में परिवर्तित करता है, यह बताता है कि कोविड-19 से पहले मानव स्वास्थ्य के लिए पार्टिकुलेट प्रदूषण सबसे बड़ा जोखिम था और किसी मजबूत और निरंतर सार्वजनिक नीति के बिना, यह कोविड-19 के बाद भी सबसे बड़ा जोखिम होगा।
पार्टिकुलेट मैटर यानी हवा में घुले धूल मिट्टी और रसायनों के वह सूक्ष्म कण जो साँस के ज़रिये हमारे फेफड़ों तक पहुँच जाते हैं और हमें तमाम रोगों की सौगात दे डालते हैं वही वायु को प्रदूषित करने की एक ख़ास वजह हैं। एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स (AQLI) में यह पाया गया कि पार्टिकुलेट मैटर से होने वाला वायु प्रदूषण वैश्विक जीवन प्रत्याशा (या क्वालिटी ऑफ़ लाइफ) में लगभग दो साल की आयु कम करता है, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की वायु गुणवत्ता के सापेक्ष गाइड लाइन से मेल खाती है।
विश्लेषण में पाया गया है कि पार्टिकुलेट प्रदूषण वैश्विक जीवन प्रत्याशा में लगभग दो साल की कटौती करता है, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की गाइडलाइन से मेल खाती वायु गुणवत्ता के सापेक्ष। यह पिछले दो दशकों में लगातार होता रहा है, दो वर्षों में प्रदूषण से जीवन प्रत्याशा में औसत वैश्विक गिरावट के साथ चीन जैसे कुछ देशों में सुधार अन्य देशों में बिगड़ती स्थितियों से संतुलित थे।
रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो दशकों में भारत में पार्टीकुलेट मैटर (कण प्रदूषण) में 42 प्रतिशत की तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। आज भारत में 84 प्रतिशत लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जो भारत के स्वयं के वायु गुणवत्ता मानकों से अधिक प्रदूषित हैं। वहीं पूरी आबादी डबल्यूएचओ की ओर से तय मानक से अधिक के स्तर के वायु गुणवत्ता वाले माहौल में जीने को विवश हैं। नतीजतन, औसत भारतीय अपना जीवन पांच साल कम जीते हुए देखे जा सकते हैं। डबल्यूएचओ के मानक के मुताबिक पांच साल आयु कम हो रहे हैं, वहीं राष्ट्रीय मानक के मुताबिक दो साल कम हो रहे हैं।
इस बीच, भारत की जनसंख्या का एक चौथाई हिस्सा जिस प्रदूषण स्तर में जी रहा है, दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं देखा गया है। डबल्यूएचओ के मानकों पर खड़ा न उतरने की वजह से उत्तर प्रदेश के 230 मिलियन लोगों का जीवन आठ साल कम हो गया है। वहीं दिल्ली के निवासी भी अपने जीवन में 9 साल अधिक देख सकते थे।
रिपोर्ट में यह भी दिखाया गया है कि प्रदूषण के स्तर को डबल्यूएचओ के मानक के अनुसार रख कर बिहार औऱ पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी आम जन के जीवन को सात साल तक बढ़ाया जा सकता है। वहीं हरियाणा के लोगों का जीवन आठ साल तक बढ़ाया जा सकता है।
दक्षिण एशिया में प्रदूषण में 44 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। बांग्लादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान में औसतन जीवन प्रत्याशा दर में 5 साल की कमी हुई। वैश्विक आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा इन चार देशों में रहता है, जीवन के 60 प्रतिशत वर्ष ये देश प्रदूषण के कारण खो देते हैं।
कोविड के साथ प्रदूषण कम करने पर भी देना होगा खासा ध्यानः ग्रीनस्टोन
एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक, ऊर्जा नीति संस्थान में सहयोगियों के साथ AQLI के निर्माता और शिकागो विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के मिल्टन फ्रीडमैन (प्रतिष्ठित सेवा प्राध्यापक) प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं, ”कोरोना वायरस का खतरा काफी है। इस पर गंभीरता से ध्यान देने आवश्यकता है। लेकिन कुछ जगहों पर, इतनी ही गंभीरता से वायु प्रदूषण पर ध्यान देने की जरूरत है। ताकि करोड़ों-अरबों लोगों को अधिक समय तक स्वस्थ जीवन जीने का हक मिले।” माइकल ग्रीनस्टोन ने ही शिकागो यूनिवर्सिटी में ऊर्जा नीति संस्थान (ईपीआईसी) में अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर एक्यूएलआई की स्थापना भी की है।
वह आगे कहते हैं, वास्तविकता यह है कि फिलहाल जो उपाय और संसाधन भारत के पास है, उसमें वायु प्रदूषण के स्तर में खासा सुधार के लिए मजबूत पब्लिक पॉलिसी कारगर उपाय है।
एक्यूएलआई रिपोर्ट के माध्यम से आम लोगों और नीति निर्धारकों को बताया जा रहा है कि कैसे वायु प्रदूषण उन्हें प्रभावित कर रहा है। साथ ही, प्रदूषण को कम करने के लिए इस रिपोर्ट का कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है।
साल 2019 में केंद्र सरकार ने प्रदूषण से लड़ने के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP- National Clean Air Programme) की घोषणा की। इसके माध्यम से साल 2024 तक 20-30 प्रतिशत तक प्रदूषण कम करने का लक्ष्य रखा है। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। लेकिन एक्यूएलाई के अनुसार इस लक्ष्य को हासिल करने के साथ स्वास्थ्य व्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार की आवश्यकता है।
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