अली रज़ा
आजादी को 72 वर्ष हो चुके हैं, पूरा देश आजादी का जश्न जैसे-तैसे मना ही रहा है। किसी को आज रिश्तेदारी निभाने का अवसर मिला है तो कुछ लोग परिवार के साथ पिकनिक मनाने जा रहे है सुबह जो बच्चे स्कूल गए है जिन स्कूलों में जाना अनिवार्य है, नहीं तो घर पर बैठ कर वीडियो गेम और कार्टून देख कर स्वतंत्रता दिवस मना रहें हैं।
सरकारी स्कूलों में तो आज लड्डू दिवस है इसलिए बच्चे जाएंगे जरूर। मास्टर जी को भी आज अपनी श्रीमती जी को मायके लेकर जाना है इसलिए स्कूल का ही एक चक्कर लगा कर प्रभात फेरी की परम्परा पूरी कर दी और जल्दी-जल्दी लड्डू बटवाए और ‘भारत माता की जय’ का नारा लगवाए और गाड़ी स्टार्ट करके चलते बने।
इस देश में एक समुदाय ऐसा भी है जो ना तो परिवार के साथ पिकनिक मानता है, ना घरवालों के साथ रिश्तेदारों के यहां जाता है, ना स्कूल के लड्डू खाता है और ना ही भारत माता के नारे लगाता है। यह उन बच्चों का समुदाय है जिनके लिए आजादी के मायने ही कुछ अलग हैं। आजादी इनके लिए रेलवे प्लेटफॉर्म से शुरू होने वाली यात्रा है जो एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक बिना किसी रुकावट के आगे बढ़ती जाती है।
देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जो यात्रा के दौरान इन्होंने नहीं देखा। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत भ्रमण ये कई बार कर चुके हैं। इन्हें किसी का डर नहीं, ना खोने ना बिछड़ने का और देखा जाय तो जिन्दगी में इन्हें कोई अभाव ही नहीं है। सच कहा जाय तो जीवन जीने की कला का ज्ञान इन्हें ही है। जीवन में सिर्फ अभाव ही हो लेकिन देख कर ऐसा लगे कि इन्हें क्या कमी है, तो ऐसे बहादुरों को हम क्या कहेंगे।
लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन से ना जाने कितने नाटू-छोटू गर्मियों में केवल नहाने के लिए लखनऊ से हरिद्वार चले जाते हैं। बिरयानी खाने का मन करता है तो दिल्ली से लखनऊ आ जाते हैं। हरिद्वार से 02-03 घंटे नहाने के बाद वापस आ जाते हैं। उन्हें ना तो गंगा की तेज धारा से डर लगता है और ना ही रफ्तार से चलती हुई ट्रेन से कूदने में। वो रात के अंधेरे से भी नहीं डरते, वो कभी भूख लगने पर रोते नहीं बल्कि मांग कर नहीं तो छीन कर पेट भर लेते हैं।
कहते हैं पेट भरना कोई गुनाह तो नहीं, बड़े-बड़े लोग अपने गोदामों में अनाज भरे रहते हैं उन्हें तो कोई चोरी नहीं कहता। आराम से सोते हैं प्लेटफार्म पर। वे कहते ये हमारी सम्पति है। हर जगह लिखा है यह आपकी अपनी सम्पत्ति है। फुटपाथ पर उन्हें किसी लूट, अपहरण और शोषण का डर नहीं है। न जाने कहां से आ जाती है इतनी हिम्मत इनमें।
शायद इन्हें ये पता है कि ये आजाद भारत के बाशिंदे हैं और कोई इनका बाल भी बाका नहीं कर सकता है। हर मुसीबत का सामना करना इन्होंने सीख लिया है किसी कक्षा में जाकर नहीं, बल्कि हर मुसीबत को अनुभव करके, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारी। जिन्दगी तो इनकी हथेली पर ही है। हिन्दी फिल्म में हीरो द्वारा बोले जाने वाले हर डॉयलाग को जीते हैं ये, इनमें से कुछ ने मां का आंचल देखा है, कुछ ने नहीं। कुछ परिवार का मतलब जानते हैं, कुछ ने केवल परिवार का नाम ही सुना है।
इनमें से कोई मां का प्यार चाहता है तो कोई पिता का साया और किसी को इन दोनों नामों से ही नफरत है। क्योंकि ये मानते हैं कि उनके इन अभावों के लिए ये दो लोग सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। उन्हें नहीं मतलब कि सरकार उनके लिए क्या कर रही है या लोग और समाज उनके साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं। उन्हें तो पता है कि मुकद्दर की रेलगाड़ी यहां तक लायी है, सो आज यहां हैं, कल कहीं और ले जाएंगी तो वहां चले जाएंगे।
जब सब कुछ मोबाइल है तो यह क्यूं ना हो, दुर्घटनाएं तो जैसे रोज के जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं। हाथ-पैर कटना, गिरना आदि सब आम बात है। पैर कट जाए तो कोई पुरसाहाल लेने वाला नहीं। बुखार हुआ तो खुद ही मेडिकल स्टोर से जाकर दवाई ले लेंगे और किसी से उम्मीद भी नहीं है। जो कुछ है खुद पर भरोसा है। आगे क्या होगा कुछ पता नहीं है, सिर्फ वर्तमान में जीते हैं और उसी पर भरोसा करते हैं। इन्हें आजाद देश की इंडियन रेलवे पर बहुत भरोसा है। हो भी क्यों ना।
हजारों नि:शुल्क यात्रियों का बोझ उठाती विश्व के सबसे बड़े सार्वजनिक रोजगार का क्षेत्र है, तो हमारे लिए अवसरों की क्या कमी है। पेट तो कुछ भी ना करें तो भी भर जाएगा और सोने के लिए प्लेटफार्म, पंखे सब तो हैं। लेकिन कुछ की किस्मत इतनी अच्छी नहीं है, उन्हें तो खुले फुटपाथों पर सोना पड़ता है और बारिश आ जाये तो रातभर किसी पान की गुमटी के नीचे बैठ कर काटनी पड़ती है।
सर्दी में तो फिर भी गनीमत है, साथ में रहने वाले भिखारी मित्रों की चिलम मिल जाती है तो रात किसी तरह कट जाती है। जिन्दगी में इतना सब कुछ घट रहा होता है। अब इसमें क्या सुख देता है और क्या दु:ख, यह तो यह बच्चे ही जान सकते हैं! हमें तो अगर अपने बच्चे को इन परिस्थितियों में एक दिन के लिए ही छोड़ना पड़े तो क्या होगा हमारा और हमारे बच्चे का!
हमें समझना होगा कि समस्या कहां है? क्या समस्या सिर्फ भूख है, क्या समस्या सिर्फ बेकारी है या निरक्षरता, या फिर कुछ और? एक बच्चा जो अपने मां-बाप के साथ रह रहा है और सड़क पर भीख मांग रहा है क्यों? क्योंकि उसे शाम को अपने शराबी बाप को पैसा देना है। शराब के लिए इन मां-बाप के लिए बच्चे होते ही कमाई का साधन हैं। बच्चे का जन्म उनका सपना नहीं है, वह तो केवल सेवा और कमाई का साधन भर है। अब आठ-दस बच्चों में से अगर दो-चार कहीं चले गये तो दु:ख सिर्फ इतना कि कमाई के हाथ काम पड़ गए।
घरों-होटलों में काम करने वाले वो बच्चे जो अपना बचपन भूल कर अपने परिवार की जिम्मेदारी उठाने लगते हैं, वो यह सब अपनी इच्छा और खुशी से नहीं करते बल्कि करना पड़ता है, मजबूर मां और बाप के लिए। और बाप भी इन्हें इसी उम्मीद के साथ पैदा करते हैं कि उनकी जिन्दगी का कुछ बोझ इन मासूम कन्धों पर आसानी से टिक जाएगा। इसलिए बच्चों की फौज लगा दो। जितने हाथ उतना ही मजबूत परिवार। इन्हें काम देने वाले इन्हें काम देकर अपना एहसान समझते हैं। वो कहते हैं कि गरीब समझ कर काम दे दिया, इनका और इनके परिवार का पेट भरता है हमसे। इन मतलबपरस्तों की नीयत से कौन नहीं वाकिफ कि ‘बाल श्रम सस्ता श्रम’ होने की वजह से वे और फल-फूल रहे हैं। कोई इन बच्चों के माता-पिता को काम क्यों नहीं देता है क्योंकि बच्चा जो काम 500 रुपया महीने पर करेगा बाप उसी काम के 4000 रुपये मांगेगा, तो कोई भला उसी काम के 4000 रुपया क्यों देगा जो काम 500 रुपये में हो जाता है।
बच्चों के शोषण को रोकने के लिए बहुत से कानून आये। सरकारों द्वारा बहुत से प्रयास किये गए, बहुत से कानून लाये गए। राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर बाल आयोगों का गठन किया गया, बाल श्रमिक विद्यालय चलाये गए। शिक्षा से जोड़ने के लिए बच्चों को पैसा बांटा जाता है। शिक्षा का अधिकार कानून लाया गया लेकिन समस्या जस की तस रही, कुछ नहीं बदला। जो कुछ बदला कागजों पर। अगर जो कुछ थोड़ा-बहुत बदला वह सरकार और गैर सरकारी संगठनों के परस्पर सहयोग से काम करने से बदला है। लेकिन वह बदलाव संतोषजनक नहीं है। फिलहाल हालत सुधरने की स्थिति भी नहीं नजर आ रही है क्योंकि कोई भी सरकार समस्या की मूल जड़ पर चोट करने का साहस नहीं दिखा पा रही है।
आजादी के 72 साल बाद भी भारत में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कोई कानून नहीं बना। औरत की कोख केवल बच्चा जनने कि मशीन बन कर रह गई है और बच्चे आमदनी का जरिया भर। जब तक देश में बच्चों को पैदा कर उनकी जिन्दगी नरक और जिल्लत भरी बनाना जुर्म नहीं होगा और इस जुर्म की सजा मां-बाप की बजाय बच्चों को मिलती रहेगी तब तक यह बच्चे आपको ऐसे ही रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, मार्केट में, होटलों में, ढाबों पर और 15 अगस्त के दिन सड़कों पर, चौराहों पर हमारे बच्चों के लिए तिरंगा बेचते हुए मिलते रहेंगे। जब इस देश के हर बच्चे को उसका बुनियादी हक नहीं मिलता तब तक यह आजादी केवल कुछ लोगों के लिए ही है, सबके लिए नहीं।