नवेद शिकोह, @naved.shikoh
अपना आधे से ज्यादा आधार दलित वोट बैंक गंवा चुकी बहुजन समाज पार्टी की सियासत इन दिनों मुस्लिम समाज की हिमायत और भाजपा विरोध पर केंद्रित नजर आ रही है।
इससे शंकाएं गहरी हो रही हैं कि बसपा भाजपा का विरोध कर भाजपा की मदद करने लिए मुस्लिम समाज की एकजुट वोट की ताकत को बिखेरने का एसाइनमेंट तो नहीं कर रही !
डा.अम्बेडकर के मिशन को ज़मीनी संघर्ष से आगे बढ़ाने वाले कांशीराम के दलित मूमेंट ने जिस राजनीतिक दल बसपा की सूरत इख्तियार की थी उस बसपा का एक इशारा दलित समाज का जनसैलाब लाने की ताक़त रखता था। लेकिन अब वो ज़माने लद गए, ट्वीटर में सिमटे बसपा सुप्रीमो के दस ट्वीट में सात ट्वीट मुसलमान-मुसलमान चिल्ला रहे हैं।
लेकिन मुस्लिम समाज में पैदा हो चुकी सियासी समझ बसपा की मुस्लिम हिमायत की अति को नई चाल समझ रही है। इस समाज के जानकारों का मानना है कि मुसलमान उस धर्मनिरपेक्ष दल को चुनता है जो खुद के आधार और हिन्दु समाज का समर्थन पानी का संघर्ष करता दिखता है।
समतल जमीन पर अल्पसंख्यकों का भरोसा क़ायम होता है। बसपा की दलित वोट बैंक की जमीन फिलहाल समतल नहीं है, बसपाई जमीन पर भाजपा ने इतने गड्ढे कर दिए हैं इस जमीन पर आकर अकलियत और भी गड्ढे में गिरना पसंद नहीं करेगी।
बसपा मुसलमानों की पैरवी की ट्यूटबाजी ना करके यदि अपने आधार बीस से पच्चीस फीसद दलित वोट बैंक को वापस हासिल करने का संघर्ष करती दिखे तो मुस्लिम समाज खुद बा खुद बसपा के समर्थन में एकतरफा भरोसा क़ायम कर सकता है। ये सच है कि एम वाई से अधिक असरदार ताक़त दलित-मुस्लिम गठजोड़ हो सकती है ऐसा तब संभव है जब दलित समाज की बसपा में घर वापसी हो या इसकी कोशिश की जाए। पर अपने आधार वोट बैंक को नजरंदाज कर भाजपा के विरोध की झड़ी लगाने वाली बसपा सुप्रीमो की इस नई राजनीतिक को भी भाजपा की मदद की शंका के नजर से देखा जा रहा है। ताकि यूपी की अक़लियत की एकजुटता-एकता टूटे, बिखरे और इनके वोटों का विभाजन भाजपा के लिए लाभकारी साबित हो।
अल्पसंख्यक समाज से जुड़े दानिशमंदों (बुद्धिजीवियों) का कहना है कि भाजपा ने काफी वक्त के बाद राजनीति में अकलियत को अछूत साबित करने की कोशिश में कामयाबी हासिल की।
इसके बाद पश्चिम बंगाल और यूपी के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम समाज ने जिस तरह बिना बिखरे एकजुट होकर किसी एक दल को भाजपा के खिलाफ लड़ने की ताकत दी इसे देखकर भाजपा ने अकलियत के वोटों में विभाजन-बिखराव की योजना तैयार की है।
याद दिला दें कि क़रीब आठ-दस बरस पहले मुस्लिम समाज का भारतीय सियासत में सिक्का चलता था, जाति का भेद मिटाकर सनातनियों की एकता स्थापित कर भाजपा की कुशल रणनीति ने इस सिक्के को खोटा साबित कर दिया।
हाशिए पर आया मुस्लिम समाज अपने खैरख्वाह दलों की भी उपेक्षा की आग में तप कर राजनीतिक समझ का कुंदन बनता दिख रहा है।
ये समाज समझने लगा है कि भाजपा की रणनीति ने धर्मनिरपेक्ष दलों को जाहिरी तौर पर मुस्लिम हितों की बात ना करने पर मजबूर किया है।
अल्पसंख्यक बिरादरी समझने लगी है कि प्रत्यक्ष रूप से उनकी ज्यादा बात करने वाले दलों पर तुष्टिकरण के आरोपों के रंग गहरे करके भाजपा उन दलों से बहुसंख्यकों को दूर करती रहेगी।
इसलिए सियासत की समझ रखने वाले अक़लियत के लोगों ने अपनी बिरादरी में ये बात आम कर दी कि वही दल भाजपा को हरा सकता है जो जाहिरी तौर पर (प्रत्यक्ष रूप से) उनकी बात नहीं करे और बहुसंख्यक समाज का वोट हासिल करने का संघर्ष करता दिखे।
यही वजह थी कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत मुस्लिम समाज को नजरंदाज किया और वो ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों को साथ लाने के लिए भाजपा के पिछड़ी जातियों के बड़े नेताओं, विधायक-मंत्री तोड़कर सपा लाने में कामयाब रहे।
धुआंधार ज़मीनी प्रचार करके हिन्दू समाज का विश्वास जीतने का संघर्ष करते दिखे। उधर बसपा ने अपने आधार दलित समाज का विश्वास कायम रखने और भाजपा से दलित समाज की वापसी के लिए चुनाव से पूर्व भी ऐसा संघर्ष नहीं किया जैसा जमीनी संघर्ष पहले बसपा करती थी।
बल्कि अपने आधार दलित वोट को एकजुट करने के बजाय खूब सारे मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की बसपाई मंशा को जानकर मुस्लिम समाज ने बिना बंटे, बिना बिखरे एकतरफा समाजवादी पार्टी को वोट किया। भले ही सपा गठबंधन नहीं जीत सका पर उसे जितने फीसद वोट मिले इतने फीसद सपा ने कभी भी किसी भी चुनाव में वोट हासिल नहीं किए थे।
अस्सी-बीस की लहर में कुछ ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों के वोट हासिल कर अखिलेश यादव ने पैंतीस फीसद से अधिक वोट हासिल कर हार कर भी जीत का पैग़ाम दिया। गैर यादवों पिछड़ी जातियों का कुछ वोट हासिल करना और एक तरह मुस्लिम समाज का समर्थन भी भाजपा को हराने में कामयाबी नहीं दिला सका। और ये साबित हो गया कि किसी भी दल को बहुसंख्यकों के विश्वास के बिना अल्पसंख्यक वर्ग नहीं जिता सकता।
एक ज़माना था जब मुस्लिम समाज को किंग मेकर माना जाता था,ये ऐसा वोट बैंक था जिसकी तिज़ोरी की चिरौरी में तमाम दल कोई कसर नहीं छोड़ते थे। ख़ासकर यूपी में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और देश के और भी तमाम क्षेत्रीय दल मुस्लिम वोटरों को लुभाने की ख़ूब कोशिश करते थे।
2014 के बाद मोदी लहर और भाजपा की राजनीति सफलता के दौर ने मुस्लिम वोट बैंक की सारी दौलत के सारे सिक्कों को जैसे खोटा साबित कर दिया। लगभग एक दशक के मौजूदा दौर में भाजपा ने सिर्फ कांग्रेस को ही हाशिए पर नहीं डाला बल्कि पिछड़ों, दलितों का भी दिल जीत कर अस्सी- बीस की सियासत में जाति की राजनीति से सत्ता हासिल करने वाले क्षेत्रीय दलों की कमर तोड़ दी।
धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले दलों से हिन्दू समाज छिटकने लगा। ऐसे में कुछ दलों ने दूर होते बहुसंख्यक समाज को क़रीब लाने के लिए साफ्ट हिन्दुत्व का दिखावा किया तो किसी ने मुस्लिमों का नाम लेने से भी परहेज करना शुरू कर दिया।
वजह ये भी थी इस दौर में भाजपा को शिकस्त देने वाले मुलायम सिंह यादव और कांशीराम जैसे नेताओं का दौर खत्म होने के बाद नई पीढ़ी में ऐसे नेताओं का कोई विकल्प नहीं रहा।
नब्बे के दशक में अयोध्या विवाद और कार सेवकों पर गोली चलने की घटना के बाद ही भाजपा के पाले में गेंद आ चुका था। अस्सी-बीस डिवाइड हो चुका था। समाजवादी पार्टी मुखिया से बहुसंख्यक वर्ग में इतनी नाराजगी थी कि यदि मुलायम सिंह यादव की सियासत दशकों तक हाशिए पर चली जाती तो ताज्जुब नहीं था।
लेकिन चंद वर्षों बाद ही मुलायम और कांशीराम ने दलितों, मुसलमानों, यादवों और कुछ गैर यादव पिछड़ी जातियों को एकजुट करके हिन्दुत्व और राम मंदिर आंदोलन की लहर को पीछे करके गठबंधन सरकार बना ली। सपा-बसपा गठबंधन चल नहीं चला।
इसके बाद माया-मुलायम ने क्रमशः दलित-मुस्लिम, मुस्लिम-यादव फार्मूले पर कमजोर ही सही पर सरकारें बनाईं। ये वो दौर था जब त्रिकोणीय या चौतरफा मुकाबले में पच्चीस से तीस फीसद वोट से इतनी सीटें आ जाती थी कि सरकार बनाने का दावा पेश किया जाया जा सकता था।
आज पूरा परिदृश्य बदल चुका है। भाजपा इतनी मजबूत हो गई है कि 37-38 प्रतिशत वोट हासिल करके भी कोई भाजपा को हराया नहीं जा सकता।
बसपा का आधार दलित वोट आधे से ज्यादा भाजपा का समर्थक हो गया है इसलिए दलित-मुस्लिम फार्मूला कैसे कारगर होगा ?
सपा का आधार यादव उसके साथ है और गैर यादव पिछड़ी जातियों को साधने के लिए सपा ने विधानसभा चुनाव से पूर्व मेहनत की, यही कारण था कि मुस्लिम समाज एकजुट होकर सपा का वोट प्रतिशत बढ़ाने में तो कामयाब हो गया लेकिन भाजपा को हराने के लिए सपा चालीस प्लस फीसद लाने में नाकाम रही।
लेकिन यदि बसपा सुप्रीमों अपने कोर वोट दलित वोट की घर वापसी करने का संघर्ष करें तो ताज्जुब नहीं कि सपा के बजाय बसपा के समर्थन में मुस्लिम समाज एकजुट हो जाए।लेकिन फिलहाल ऐसा इसलिए संभव नहीं क्योंकि दलितों की घर वापसी के लिए बसपा सुप्रीमो ज़मीनी संघर्ष करती नज़र नहीं आ रहीं !
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और ये उनके निजी विचार हैं)