Friday - 25 October 2024 - 10:22 PM

वैश्विक संकट में वैश्विक धर्म की जरुरत

रिपु सूदन सिंह

इस वैश्विक संकट मे पृथ्वी अवसाद, आशंका और दुख से भर गयी है। मानो काल-अंतराल की गति रुक गयी है। कोरोना वाइरस ने आधुनिक सभ्यता को ही चुनौती दे डाला है। ऐसे हालात मे कुछ लोग धर्म धारण करने को कह रहे है। वैसे विगत दो दशकों मे धर्म स्वम एक वैश्विक संकट बन गया और हिंसा और उन्माद बन व्यक्त हुआ। पश्चिम एशिया मे तो धर्म एक शैतान मे बादल गया है। यूरोप की छाती अभी भी मध्ययुगीन धार्मिक हिंसा से कांप उठती है।

इस वैश्विक संकट मे अब धर्म के विषय को दकियानूसी, अवैज्ञानिक, और कालग्रस्त मानकर और नहीं टाला जा सकता। धर्म से वैश्विक स्तर पर आम आदमी जुड़ा है। सदियो से जो उसे जो बताया गया है वही वह धर्म के नाम पर कर रहा है। उसे समझने के लिए न तो वह तैयार है और न ही ऐसा कोई प्रयास ही किया गया है।

धर्म को पवित्र पुस्तको और धार्मिक गुरुओं की व्याख्या तक सीमित कर दिया गया है। इस संकट की स्थिति मे धर्म पर चिंतन मनन कर एक व्यापक और वैश्विक समझ बन सकती है। इस पर एक वैश्विक जन विमर्श करके इसका प्रयोग मानवीय कल्याण के लिए किया जा सकता है। इंसानी सभ्यता शायद सुरक्षित बच जायेगी।

धर्म प्रकृति के अनुकूल एक ग़ैरपाश्विक अहिंसापूर्ण भावमय आचरण है। इसके पालन हेतु किसी प्रकार के कर्मकांड की जरूरत नहीं। यह ओढ़ने की नहीं बल्कि स्वतः ग्रहण का अद्भुत संकल्प है। इसे किसी लाचारी के चलते न तो स्वीकार किया जा सकता और न ही छोड़ा ही जा सकता। धर्म से संस्कृति और सभ्यता का भी जन्म होता है। पर इसे किसी एक स्थान तक बांधा भी नहीं जा सकता। यह शाश्वत है, विस्तृत है, परिवर्तनशील है और नित नवीन बना रहता है।

चौकने वाली बात यह है कि धर्म को मानव जाति के अलावा कोई अन्य धारण भी नहीं कर सकता। पशु और वनस्पति जगत प्रतिपल प्रकृति के अनुकूल ही आचरण करते है। वे धर्म के बिना रह ही नहीं सकते। उन्हें अलग से धर्म की कोई जरूरत भी नही। धर्म की जरूरत मानव जाति की ही है। आज का मनुष्य उसी प्रकृति प्रदत्त प्राणी का विस्तार है जो बहुत लंबे समय तक पशु ही था।

उसने अपनी पशुता और पाशविकता छोड़ी। पर पशु जगत अपनी पाशविकता आज तक न छोड़ पाया क्योकि वह प्रकृति से आबद्ध है, उससे संचालित और निर्देशित होता। प्रकृति प्रदत्त सीमित विवेक के चलते पशु और वनस्पति जगत अपने जीवन और अस्तित्व के लिए प्रकृति पर पूर्णतः निर्भर है। वे विवेक से नहीं बल्कि नैचुरल इन्स्तिंक्त (नैसर्गिक प्रवितियों) से संचालित होते है।

यही कारण है कि आज तक पशु जगत ने अपनी कोई अपनी सत्ता, संस्कृति और सभ्यता का निर्माण नहीं किया। वह आज भी प्रकृति पर ही आश्रित है और आधुनिक सभ्यता की विभिन्न समस्याओं से मुक्त है।

दूसरी ओर प्रकृति ने मनुष्य को विवेक दिया। पर अकारण ही उसने विवेक नही दिया, बल्कि इसलिए दिया कि आदम प्राणी इस ब्रह्मांड में सबसे कमजोर था और वह बिना बुद्धि विवेक के जी न पाता। अपने होमो सेपियन (चिंतन स्वभाव) के चलते और एक लंबे जद्दोजहद के बाद इंसान का जन्म हुआ।

मनुष्य का जीवन प्रकृति के समीप था, उसी की उपज था और उसके साथ कदमताल करके वह अपना जीवन जीता था। विवेक के प्रयोग से मनुष्य अपनी पाशविक प्रवृतियों को रोकने मे सफल हो गया। पर इंसान बनने के बावजूद भी उसके अंदर की पाशविक प्रवृति बनी रही। कालांतर मे वह बल प्रयोग करने लगा, हिंसक, स्वार्थी, भोगी, लालची, मदग्रस्त, वासनाग्रस्त कामुक हो गया।

वह अपने स्वार्थ के लिए ही अपने लोगो के साथ छल और बेईमानी करने लगा, उनको ही मारने लगा, हमले और युद्ध करने लगा। व्यभिचार, विलासिता और लालच मे पड़ वह प्रकृति के साथ भी छेड़छाड़ करने लगा और उसमे रह रहे पशु जगत को भी मारने लगा, उनकी बली चढ़ाने लगा। ऐसे ही अराजक स्थिति मे मनुष्य को धर्म की जरूरत पड़ी। अब मानव जाति उसके बिना नही बच सकता था। पशु जगत की पशुता उस पर पूर्ण हॉबी हो गई।

उन पाशविक प्रवृतियों के उभार

जाति को बचाने के लिए समाज के बीच से अनेक श्रेष्ठ लोग आगे आए। सभी अपने अपने ढंग से अपने अपने तरीके से धर्म की बात करने लगे और उसे धारण हेतु अपने अपने पंथ, सम्प्रदाय, रिलिजन, और मज़हब की संस्तुति भी की।

यदि मनुष्य धर्म को स्वतः और सीधे समझ पाता तो उसे स्वतः धारण कर लेता और फिर उसे किसी रिलीजन, पंथ, मजहब इत्यादि की जरूरत ही नहीं होती। धर्म के नित नए बने रहने के स्वभाव के चलते इसे किसी पंथ, संप्रदाय और फेथ मात्र मे नहीं बांधा जा सकता। आज के हालात मे हमे एक ऐसे ही वैश्विक धर्म की जरूरत है जो इंसान को धर्म धारण करने में सहायक हो।

वैश्विक धर्म मनुष्य को स्वर्ग, नर्क, मोक्ष, मुक्ति, फाइनल जजमेंट के आश्वासन और मोह से मुक्त कर सकता है और इसी धरा पर स्वर्ग निर्मित करने मे अपना बड़ा योगदान दे सकता है। इस वैश्विक दुख और मंदी में एक वैश्विक धर्म की जरूरत हो रही है। मानो धर्म स्वतः पुकार रहा है। धर्म की विशद और सारगर्भित व्याख्या भारतीय मनीषियों ने बहुत ही स्पष्ट तौर पर की है।

वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृतियाँ, रामायण, महाभारत, त्रिपितक, अगम सूत्र इत्यादि इससे संदर्भित है। यह आदर्श परंपरा मे ब्राह्मन-न्याय, वैशेषिका, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदानता और भौतिक परंपरा मे जैन, आजीविका, अजनना और चारवाक मे विभाजित है। इसे नाग-नाथ परंपरा, भक्ति के सगुण और निर्गुण मे भी देखा जा सकता है।

भारतीय दर्शन को समझने के लिए इसकी तुलना मध्य एशिया के इस्राइल मे उत्पन्न अब्राहमिक दर्शन से किया जा सकता है। उससे उत्पन्न यहूदी, ईसाई और इस्लाम ऐसे ही तीन पंथ थे जिन्होने रिलीजन का प्रतिपादन किया। अब्राहमिक दर्शन परंपरा मे फेथ (आस्था) की प्रमुख भूमिका है, वही पर भारत के दर्शन मे धर्म की केंद्रीय भूमिका है।

प्रकृति के अनुकूल आचरण धर्म है, पाशविक प्रवृतियों पर नियंत्रण धर्म है, प्रकृति मे व्याप्त नित होते परिवर्तन को स्वीकार करना ही धर्म है, न्याय और समानता की स्थापना धर्म है, उसमे उपस्थित विविधता और सौंदर्य, करुणा, दया, परोपकार और सहयोग को अपनाना ही धर्म है।

प्रकृति मे विद्यमान सूरज, चाद, ग्रह नक्षत्र मे विश्वास करना ही धर्म है। धर्म सर्वत्र है, सर्व उपलब्ध है, सर्वशक्तिमान है। यह मार्गद्रष्टा और मुक्ति गामी है। यह धर्म मात्र फेथ (आस्था) और अंतःप्रेणना मात्र नहीं है। यह सत्य को समग्रता मे देखता है और उसके पार भी जाता है।

आम आदमी उसी को धर्म मानता है जिसे उसके पंथ की किताबें, प्रतिनिधि और परम्पराएं बताती है। वह फेथ और आस्था, अवतार-ईशपुत्र-नबी को ही धर्म मान बैठता है। धर्म के नाम पर वह देश बनाने लगता, सरकारें बनाता-उखाड़ता और इंसान को एक आदर्श साँचे मे तब्दील कर देता है। वह इंसान को इंसान नहीं रहने देता।

वह धर्म को विचारधारा मे बदल देता और उसे नस्ल और राष्ट्रवाद के पहिये से बांध देता। उसका प्रयोग कर राजसत्ता हथियाने, बाज़ार निर्मित करने, युद्ध और तबाही मचाने के लिए करता। आज इस पर चर्चा करनी ही होगी की क्या यही धर्म है? क्या यही धर्म का लक्ष्य है? आज धर्म पर एक वैश्विक राय बनानी होगी।

इस चर्चा से चाहे किसी की सरकार क्यो न हिले, व्यापार क्यो न रुक जाये और किसी की सत्ता या किसी का वर्चस्व क्यो न कमजोर पड़ जाये? प्रश्न यह है कि धर्म पर एक वैश्विक राय और सहमति क्यो नहीं बन सकती है?

यदि धर्म विस्तृत, वैश्विक, प्रगतिशील, परिवर्तनवादी और समावेशी है तो यह सभी के लिए जरूरी है। यह जीवन केन्द्रित है, मृत्यु केन्द्रित नहीं। यह सकारात्मक है, नकारात्मक नहीं। यदि इससे संपन्नता मिलती, स्वास्थ मिलता, इसी पृथ्वी पर ईश्वर मिलता तो इसे सभी को क्यो न दी जाये?

यदि धर्म प्रत्येक अच्छे मूल्यों धारण मात्र है तो इसे सभी को यथा जनप्रतिनिधि, राज्य संचालक, व्यापारी, धर्म गुरु, चिंतक सभी को धरण करना होगा। जिस तरह यूएनओ ने पर्यावरण, आतंकवाद, नाभिकीय हाथियोरों को लेकर वैश्विक पहल किया है उसे एक वैश्विक धर्म के लिए भी कदम उठाना होगा जिससे धर्म को मनुष्य केंद्रित, प्रकृति केंद्रित, कल्याण और करुणा केंद्रित बनाया जा सके। भूले भटके वाइरस को भी इस प्रकृति मे अपनी जगह मिल जायेगी और हम सभी इस संकट से भी मुक्त हो जाएगे।

(लेखक अंबेडकर केंद्रीय विश्वविदयालय लखनऊ में प्रोफ़ेसर हैं)

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