Friday - 1 November 2024 - 3:33 PM

महात्मा गाँधी की स्मृति में….

 डॉ. मनीष पाण्डेय 

जिस समय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव के लिए कार्ल मार्क्स की वैचारिकी से प्रभावित होकर हिंसा और सशस्त्र विद्रोह के साये और सहारे में दुनिया के कई हिस्सों में सत्ता का नया स्वरूप उभर रहा था और साम्राज्यवाद के साथ पूंजीवाद के खेल में विश्व युद्ध की परिस्थितियाँ अपने चरम पर थीं, लगभग उसी दौरान गुलामी की पीड़ा और शोषण से जर्जर हो चुके भारत में नस्लीय भेदभाव से बार-बार अपमानित हुए महात्मा गाँधी बढ़ते साम्प्रदायिक विद्वेष के मनोभाव के बीच मिथकों के संदर्भ और भविष्य की दृष्टि से एक काल्पनिक राम राज्य की कल्पना का साहस करते हैं, जहाँ अहिंसा और मानवमात्र के कल्याण का दृढ़ आग्रह है|

यहीं महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर न केवल सामाजिक मूल्यों का आदर्श प्रारूप स्वरूप ग्रहण करता है, बल्कि साम्यवाद और पूँजीवाद के विकल्प के रूप में प्रकृति के न्यूनतम दोहन व सीमाबद्ध उपयोग पर आधारित विकास का गांधीवादी प्रारूप भी सामने आता है, जिसके महत्व को समझते हुए ही एक समय पश्चात यूएनडीपी संधारणीय विकास की अवधारणा को आगे बढ़ाता है।

हालांकि हमेशा से महात्मा गाँधी के विचारों की व्यावहारिकता और प्रासंगिकता पर सवाल खड़े होते रहे हैं, लेकिन समय के साथ कोई भी अल्पमत विचार बहुसंख्य होकर सामान्य व्यवहार बन जाता है|

जिस अहिंसक समाज का अपुष्ट अवशेष सिंधु की सभ्यता में मिलता है, तथागत बुद्ध अपनी करुणा और दया की अकल्पनीय शक्ति से नए युग का सूत्रपात करते हैं, जहाँ युद्ध के मैदान के बगल भी किसान निश्चिन्त भाव से फसलें काटा करते थे, जहाँ की सामाजिक-सांस्कृतिक संबद्धता के बीच सीमाई तनाव कोई मुद्दा ही नहीं होता था, उसी देश में महात्मा गाँधी तत्कालीन आतंक, उत्पीड़न और युद्ध के नरसंहार से पीड़ित विश्व और पददलित देश का नागरिक होने के बावजूद सत्य का आग्रह करते हुए अहिंसक समाज का स्वप्न देखते हैं और उस दिशा में ‘वन स्टेप इज इनफ़ फॉर मी’ की सोंच के साथ कदम बढ़ा देते हैं|

समाज की गतिशीलता इसी अनुरूप रही है| दुनियाभर में फैली हिंसा, आतंक और बर्बरता की तमाम घटनाओं के बाद भी गाँधी के विचार ख़ारिज होने के बजाय दिन ब दिन प्रासंगिक हो रहे हैं तो यह विश्वास पैदा होता है कि, उनका काल्पनिक समाज अस्तित्व में आएगा, यह महज यूटोपिया नहीं है|

हालांकि भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही वर्तमान तनातनी और दुनियाँ के विभिन्न हिस्सों में बढ़े तनावके माहौल के बीच अहिंसा की बात अप्रासंगिक और सामान्य आलोचना का कारण हो सकती है, क्योंकि व्यक्ति के विचार का समाज और काल की परिस्थितियों के अनुरूप होना मानव समाज की एक सामान्य विशेषता है| लेकिन, गाँधी के न रहने के लगभग आधी सदी से ज्यादा समय बीत जाने के और इस 2 अक्टूबर को मनायी जा रही उनकी 150वीं जयन्ती के सापेक्ष जिस प्रकार मानवता संकट में है और दूसरे समूहों के प्रति बढ़ते वैमनस्य के भाव के बीच ख़ास मनसूबों के साथ चयनित विमर्श हो रहा है, उससे गाँधी का वक्त आने की सीमा लगातार बढ़ती जा रही है|

महान भौतिकविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि पीढियां भरोसा नहीं करेंगे कि गाँधी जैसा भी कोई इंसान हो सकता है, अर्थात ऐसे समय में जब सामाजिक परिवेश ही हिंसात्मक था, कोई गाँधी कैसे हो सकता है। निश्चित ही यह अविश्वसनीय सा लगता है। प्रसिद्ध इतिहासकर ए. एल. बाशम के संदर्भ से महात्मा गाँधी समय से बहुत आगे थे, लेकिन इस प्रकार बिगड़ती परिस्थितियों में उस संभावित समय की कल्पना करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है, जिसमें गाँधी के विचार ही समूह का विचार बन जायेगा।

उत्तर आधुनिक सिद्धांतकार वर्तमान समाज को सूचनाओं के प्रवाह का समाज मानते हैं, जिसको संचार क्रांति ने सर्वसुलभ कर दिया है| इसके एक स्वरूप सोशल मीडिया के माध्यम से सभी के आंतरिक मनोभाव बिना फ़िल्टर हुए सामने आ रहे हैं, जिसके कारण भ्रम और भय के माहौल में व्यक्ति अपना विवेक खो रहा है| यहाँ कई सैद्धांतिक कमियों के बाद भी सिगमंड फ्रायड के समाजीकरण का सिद्धान्त याद आ जाता है, जिसमें व्यक्ति के मन की स्वाभाविक वासनात्मक अभिव्यक्ति ‘इड’ समाज के मूल्यों और सरोकारों द्वारा नियंत्रित होकर ईगो और अंततः ‘सुपर इगो’ के दायरे से होकर अभिव्यक्त होती है|

वर्तमान मीडिया समाज ने अपनी प्रविधियों से ‘इड’ रूपी अदम्य इच्छाओं और सोंच को उघाड़ दिया है| समाज में बढ़ते वैचारिक छिछलेपन और अगंभीरता का नमूना है, जिसमें लोग पाकिस्तान के बड़े मानव समूह को रातोरात कुचल देना चाहते हैं| अमेजन के जलते जंगलों में अपना व्यापार देखते हैं, धरती के विनाश में अपनी परमाणु ताकत आज़माते हैं। इसपर कोई विमर्श नहीं हो रहा है कि शांति, अहिंसा या फिर गीता में श्री कृष्ण के दिये उपदेशों के अनुरूप युद्ध द्वारा ही किस प्रकार का निराकरण किया जाए ताकि भविष्य की पीढ़ी युद्ध और हिंसा की पीड़ा से मुक्त हो सके| परंतु यहाँ तो वैचारिक हठ के अधिनायकत्व में लोग अपने ही तर्क गढ़ते हैं|

तमाम विद्वतजन, राजनीतिक दलों के नेता और धार्मिक समुदायों से जुड़े बड़ी संख्या के लोग बगैर इंतजार किसी भी प्रकरण को संदेहास्पद कर देने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अभियान छेड़े देते हैं| कोई भी व्यक्ति किसी भी घटना की मनगढंत व्याख्या कर दे रहा है और उसे ही सच साबित करने हेतु हिंसक होने को आतुर है।

मन, वचन और कृत्य की हिंसा अपनी व्याप्ति बढ़ा रही है। इन सबके बीच एक सामान्य व्यक्ति के लिए सत्य की पहचान करना मुश्किल हो जाता है| जब सूचनाएँ इतना भ्रमित करने लगती हैं, तब खतरा बढ़ जाता है| फिर तर्क की जगह लोग जाति, धर्म, समुदाय, वैचारिक निकटता या व्यक्तिगत लाभ-हानि के नजरिए से विवेकहीन भीड़ का हिस्सा बनने लगते हैं|

ऐसे समय में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता बढ़ और जाती है| उनका सत्य का प्रयोग तार्किक बन जाता है| सत्य यही है, कि अंतिम विकल्प शांति और अहिंसा में है| शांति ही सृजन करती है युद्ध अपरिहार्य हो जाने बाद भी सिर्फ विनाश करता है| टॉलस्टॉय के वार एन्ड पीस में यही निष्कर्ष मिलता है। महाभारत में युद्ध के पश्चात शेष कुछ न बचने का संदेश छिपा है।

यह बात समाज का सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझता है, फिर भी न सिर्फ़ भारत बल्कि दुनियाभर में तनाव के साथ हिंसा और जुल्म बढ़े हैं| असहिष्णुता और आपसी कटुता का नया उभार हुआ है|

राज्य की हिंसा के साथ दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे समूहों का उभार हुआ है, जो अपनी छद्म वैचारिकी और विभिन्न देशों की आपसी राजनीति के बलबूते हिंसक प्रवृत्तियों और सिलसिलेवार हत्याओं को अपनी ताकत मानते हैं| सीरियाई हिंसा से ग्रस्त खून और मलबे के धूल से सने बच्चे की तस्वीर सामने आते ही दुनियाभर के लोग द्रवित हो जाते हैं, कि अब समाज को हिंसा और पशुता से मुक्ति चाहिए लेकिन क्या यह निकट भविष्य में संभव है?

निश्चित ही हिंसा, आतंक और पशुता से मुक्ति का विचार समय और समाज की परिस्थितियों से तय होगा| भारत की धरती ने अगर बुद्ध और गांधी को पैदा किया है, तो इस कल्पना में जीना गलत नहीं कि एक दिन शायद सदियों बाद ही कोई समय आएगा, जहां समाज में युद्ध और हिंसा अनावश्यक हो जाएगी|

वह समाज उत्तर आधुनिक, हालांकि इसकी चर्चा के प्रवाह को वैश्वीकरण की आर्थिक आँधी ने कुचल दिया, से भी कई चरण आगे होगा, जो महात्मा गांधी के सपने जैसा अहानिकर समाज (अनआफ़ेंडिंग सोसाइटी) का आदर्शीय प्रारूप होगा, जहाँ अहिंसा का संकल्प अपनी उच्चतम पूर्णता की प्राप्ति करेगा।

(लेखक समाजशास्त्री है)

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