मल्लिका दूबे
गोरखपुर। नाथ संप्रदाय के विश्व प्रसिद्ध गोरक्षपीठ, धार्मिक साहित्य के प्रकाशन में विश्व में सिरमौर गीता प्रेस, सूफी संत रौशन अली शाह, कालजयी रचनाधर्मी मुंशी प्रेमचंद, फिराक गोरखपुरी, विश्व प्रसिद्ध टेराकोटा शिल्प की वजह से देश-दुनिया में अपनी ख्याति बनाने वाले गोरखपुर की सियासत भी हमेशा सुर्खियों में रही है। गोरक्षपीठ के उत्तराधिकारी से आगे बढ़कर हिंदुत्व के राष्ट्रस्तरीय फायरब्रांड नेता बने योगी आदित्यनाथ अब यूपी के मुख्यमंत्री हैं।
लगातार पांच बार लोकसभा चुनाव जीतकर देश की सियासत में चर्चित रहे योगी अब अपने अभेद्य समझे जाने वाले गढ़ को बचाने में पसीने-पसीने हो रहे हैं। यूपी समेत देश की राजनीति में गोरखपुर की एक नई पहचान भी जुड़ गयी है।
दो दशक से अधिक समय तक एक दूसरे की जानी दुश्मन बनी रही सपा-बसपा के बीच दोस्ताना संबंध बनाने की जमीन भी गोरखपुर ही है। लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियों ने दोस्ती का बीज बोया जो यहां के परिणाम से अंकुरित हुआ। इस लोकसभा चुनाव में सबकी नजर इसी बात पर टिकी है कि सपा-बसपा के गठबंधन का बीजांकुर बदले सियासी माहौल के खाद-पानी से राजनीतिक बाग में वटवृक्ष बनेगा या नर्सरी में ही सूख जाएगा।
गोरखपुर में ही फूटा था गठबंधन के बीज का अंकुर
2 जून 1995 के लखनऊ में वीआईपी गेस्ट हाउस कांड को कौन नहीं जानता। यह वही घटना थी जिसके बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच तल्खी ऐसी बढ़ी कि दोनों एक दूसरे के लिए दुश्मन नंबर वन हो गये। पहले 2014 का लोकसभा चुनाव और फिर 2017 का यूपी विधानसभा चुनाव। दोनों के परिणामों ने सपा-बसपा को नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया। यूपी की राजनीति में बीजेपी से मिली तगड़ी चुनौती से दोनों दल पुरानी दुश्मनी बुलाकर ‘दुश्मन का दुश्मन-दोस्त’ वाले फार्मूले की तरफ बढ़े।
प्रयोग के तौर पर इसकी शुरुआत 2018 में उस वक्त हुई जब गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के इस्तीफे के बाद यहां लोकसभा चुनाव की नौबत आयी। बसपा प्राय: जब सत्ता में नहीं होती है तो उप चुनावों से दूर ही रहती है। ऐसे में उसने गोरखपुर के उप चुनाव में सपा को सपोर्ट कर दिया। बसपा के वोट सपा के लिए शिफ्ट हुए तो यहां का परिणाम ऐसा आया कि अपने श्योर विन वाली सीट पर भाजपा चारो खाने चित हो गयी।
भाजपा को गठबंधन से तगड़ी चुनौती
सियासतदां हमेशा कहते हैं कि दिल्ली यानी केंद्र में सरकार बनाने का रास्ता यूपी से होकर जाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी व उसकी सहयोगी अपना दल ने यूपी की 80 में से 73 सीटों पर जीत हासिल की थी। सपा पांच और कांग्रेस दो सीटों पर सिमट गयी जबकि बसपा का खाता ही नहीं खुला। पर, इस बार के हालात बदले-बदले से हैं।
कांग्रेस राहुल-प्रियंका की जोड़ी के बूते कुछ जगहों पर लड़ाई में आ रही है लेकिन भाजपा को तगड़ी और असल चुनौती सपा-बसपा के गठबंधन से मिल रही है। उप चुनावों की भांति गठबंधन के दोनों दल अपने-अपने परंपरागत वोट बैंक को सहेजने में सफल रहे तो यहां बीजेपी को पिछला प्रदर्शन दोहराना बिल्कुल आसान नहीं होगा।
2022 के विधानसभा चुनाव की लड़ाई भी होगी तय
सपा-बसपा के बीच गठबंधन का चुनावी परिणाम क्या होगा, इसी से 2022 के विधानसभा चुनाव की लड़ाई के कोण भी तय होंगे। गठबंधन यूपी में बीजेपी की राह रोकने में कामयाब हुआ तो 2022 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों दल मिलकर बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने का नया प्लान बनाने में जुट जाएंगे।
बीजेपी की परेशानी भी इसी बात को लेकर है। यदि बीजेपी की यूपी में कुछ सीटें कम हुई तो वह अन्य राज्यों में छोटे दलों को अपने साथ आने का आफर दे सकती है लेकिन इसके साथ उसकी दिक्कत यूपी में तीन साल बाद होने वाले असेम्बली इलेक्शन को लेकर बढ़ जाएगी।
सर्वाधिक परेशानी योगी की
लोकसभा चुनाव यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के लिए प्रतिष्ठा का विषय बना हुआ है। वह अपने गढ़ मे उप चुनाव की हार के दंश को नहीं भूल पा रहे हैं। इस चुनाव में उप चुनाव वाला परिणाम न दोहराया जाए, इसके लिए वह गोरखपुर के हर विधानसभा क्षेत्र और हर मतदाता वर्ग को मथने में दिनरात एक किये हुए हैं। भाजपाइयों के साथ ही योगी संरक्षित हिन्दू युवा वाहिनी की पूरी टीम को लगा दिया गया है। बावजूद इसके सपा-बसपा के वोट बैंक-जातीय समीकरणों से आश्वस्त होने वाली बात नजर नहीं आती। इस चुनाव के जरिए भाजपा योगी की जमीनी पकड़ और सीएम के रूप में उनकी लोकप्रियता की भी परख करने से बाज नहीं आएगी। ऐसे में योगी का ही सर्वाधिक परेशान होना लाजिमी भी है।