अंकित प्रकाश
कई बार जो बातें हो चुकी हैं उन्हें भी दुहराया जाना लाभकारी साबित होता है। इसकी बहुत सी वजहें हो सकती हैं। सबसे बड़ी वजह तो ये है कि बिना दुहराये, हम भूलने लगते हैं, हमारी याददाश्त फीकी पड़ने लगती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई गणितज्ञ भी गणित का अभ्यास छोड़ दे तो वह भी बहुत से नियम भूल जाएगा। ऐसे ही यदि कोई गायक संगीत का अभ्यास न करे तो उसकी कला धीरे धीरे विस्मृत होने लग जाती है। यह तो हुई एक विशेष वर्ग की बात।
अपनी बात की जाय तो अगर घर की चाभी रखने का स्थान तय न हो तो हम रोज़ चाभी रखने के बावजूद भूल जाते हैं कि कल चाभी कहाँ रखी थी। हमारे अंदर भूलने की असीम क्षमता है। सभ्यताओं की सभ्यताओं, सदियों की सदियों, लोगों के लोगों को भुला दिया जाना कोई मामूली क्षमता का परिणाम नहीं है। यह बुरा भी नहीं है, यदि हम भूलें नहीं तो पागल हो जाएँगे। आप एक बार सोच के देखिए कि अगर गुज़रा हुआ कल आपको क्षण प्रति क्षण याद हो और वही दिमाग़ में चलता रहे तो आप क्या आज कुछ कर सकने की स्थिति में रहेंगे? भूलना ज़रूरी है, हमारे मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए। भूलने पर दिमाग़ में कुछ जगह ख़ाली होती है जहाँ पर नयी बातों के लिए जगह बनती है। वहीं दूसरी ओर, कुछ बातें, कुछ जगहें, कुछ पल, कुछ लोग, कुछ क़िस्से, कुछ नियम, कुछ सूत्र और बहुत से कुछ, ऐसे भी हैं जिन्हें भुलाया जाना अच्छा नहीं है।
शिक्षक पढ़ाना भूल जाय, अभियंता यांत्रिकी के नियम भूल जाय, चिकित्सक शरीर के नियम भूल जाय, तो अनर्थ हो जाएगा। ये लोग अपने अपने विज्ञान, ज्ञान और कला को भूल न जायें, इसलिए ये लोग इसका अभ्यास करते रहते हैं, दुहराते रहते हैं। दुहराते रहने से इनकी कलाएँ, इनके ज्ञान, इनके विज्ञान न केवल बने रहते हैं बल्कि निखरते भी हैं। हम और आप जो भी काम बहुत समय से करते आ रहे हैं, उस काम में हम माहिर हो जाते हैं। वो काम हम दूसरों के मुक़ाबले अच्छा करने लगते हैं। पंचर बनाने वाला जैसा पंचर बना लेता है वैसा कोई और नहीं बना सकता क्यूँकि उसका अभ्यास उसे निखारता है। लेखक की कलम लिखते रहने से निरंतर बेहतर होती जाती है।
स्पष्ट है कि न दुहराने से, अभ्यास न करने से, हमारी भूलने की अदभुत क्षमता काम करने लगती है और हम भूलने लगते हैं। इसी का एक उदाहरण है भगवत् गीता। इसमें कोई शक नहीं कि हम सभी गीता के ज्ञान को याद रखना चाहते हैं। हमने एक बार, दो बार गीता पढ़ी हो तब भी हम उसे दुहराने का प्रयास तो नहीं करते। संस्कृत श्लोक तो दूर, हम उसके हिंदी अर्थ भी भूलते जा रहे हैं। आइए इस लेख के माध्यम से हम गीता के एक एक श्लोक कहीं बीच से लेकर उसे दुहराते हैं, उस पर चिंतन मनन करते हैं। इस प्रकार हम लोग गीता ज्ञान को फिर से अपने मस्तिष्क में जड़ करने का प्रयास करते हैं। इस बार का श्लोक मैंने गीता के अध्याय 13 से लिया है। आइये देखते हैं यह श्लोक क्या है।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति ।।
इस श्लोक को छोटे छोटे भागों में बाँटकर समझने का प्रयत्न करते हैं।
“सर्वेषु भूतेषु”, पद में भगवान ने सभी प्राणियों के विषय में कहा है। “सर्वेषु” यानी सभी और “भूतेषु” यानी “ प्राणी। यहाँ भूत का मतलब भूत पिशाच नहीं है। इसका मतलब भूतकाल भी नहीं है। भूत कहने का प्रयोजन यह बताना है कि सभी प्राणी पंच भूतों से मिलकर बने हैं। तुलसी दास जी ने भी अपनी चौपाइयों में कहा है;
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
इन्हीं पाँच तत्वों को गीता में पाँच भूत कहा गया है। तो “सर्वेषु भूतेषु” का मतलब “सभी प्राणियों में”।
“समं तिष्ठन्तं परमेश्वरम्”
“समं” का अर्थ है, समान रूप से, सम रूप से। समकालीन का अर्थ होता है समान समय में होने वाला। समांतर का मतलब है समान अंतर। “समं” का अर्थ भी समान (एक ही जैसा) लगाया जा सकता है। “तिष्ठति” शब्द का अर्थ होता है “बैठना”। इसका अर्थ विराजमान होने से लगाया जाना उचित होगा। “तिष्ठन्तं”, “तिष्ठति” का ही एक रूप है। “परमेश्वर” तो हम सभी भगवान को ही कहते हैं। यह शब्द परम और ईश्वर से मिलकर बना है।
यदि हम अब तक के अर्थों को मिलाकर पहली लाइन का मतलब निकालने की कोशिश करें तो हम पाएँगे कि “समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।” का अर्थ निकलता है, “ सभी प्राणियों में ईश्वर, एक सा ही विराजमान है”। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर छोटे प्राणियों में थोड़ा कम और बड़े प्राणियों में ज़्यादा है बल्कि सारे प्राणियों में ठीक उतना ही है। समरूप से बराबर मात्रा में है।
जैसे मोबाईल फ़ोन चाहे जिस ब्रांड का हो, जिस आकार का हो, पुराना हो, नया हो, बेसिक से बेसिक हो, स्मार्ट से स्मार्ट हो मोबाईल का सिग्नल सभी तरह के मोबाइल्स में उतना ही आवश्यक है। ऐसा नहीं है कि छोटे मोबाईल को कम सिग्नल और बड़े मोबाईल को ज़्यादा सिग्नल चाहिए। ऐसा गीता में नहीं लिखा है, ये बस उदाहरण है। अक्सर हम नए नियमों को समझने के लिए उदाहरण का प्रयोग करते हैं। उदाहरण हमें समझने में आसानी देता है। तो पहली लाइन हमें यह बताती है कि ईश्वर हम सभी प्राणियों में एक समान रूप से उपस्थित है और यह भी बताती है कि ईश्वर प्राणियों में उपस्थित है। अब दूसरी लाइन पर चलते हैं।
“विनश्यत्स्वविनश्यन्तं”
यह पद दो शब्दों से मिलकर बना है, “विनाशवान” और “अविनाशी”। प्राणियों की संरचना में गीता ने दो भाग दिखाए हैं। एक तो प्राणी का शरीर, जो कि भूतों से मिलकर बना है, जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा। दूसरा प्राणियों में उपस्थित परमेश्वर। शरीर विनाशवान है। प्रतिदिन शरीर बदलता है। जो शरीर आज है, कल वो नहीं रहेगा। कोशिकायें बदलेंगी, जवान होंगी, बूढ़ी होंगी, मरेंगी और फिर पंच भूतों में मिल जाएँगी। नए शरीर बनते रहते हैं, पुराने शरीर मरते रहते हैं। शरीर नाशवान है, उसको नष्ट होना ही है। यही शरीर का स्वभाव है। इसी शरीर में उपस्थित परमेश्वर अजर अमर है, अविनाशी है। उसका न कभी जन्म होता है न कभी मृत्यु। उसमें परिवर्तन होता ही नहीं है। यह ईश्वर का स्वभाव है।
“ य: पश्यति स पश्यति”
“पश्यति” का अर्थ होता है “देखना”। इस पद का एक अर्थ यह लगाया जा सकता है कि, “जो देखता है, वही वास्तव में देखता है।” और एक अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि “जो देखना चाहता है, वही देख पाता है।”
अब यदि हम दूसरी लाइन का मतलब देखें तो कुछ इस प्रकार बनता है, “पल पल विनष्ट होते शरीर के भीतर विराजमान अविनाशी परमेश्वर को जो देखता है या देखना चाहता है, वही सच में असलियत देख पाता है।”
भगवत् गीता को समझने के लिए इसकी टीकाओं का उपयोग किया जाता है। इन टीका और व्याख्याओं में, श्री स्वामी रामसुख दास जी का एक बहुत विशेष स्थान है और मैं इससे पूर्णतय: सहमत हूँ। स्वामी रामसुख दास जी ने इस श्लोक का अर्थ ऐसे बताया है कि, “ जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमात्माको नाशरहित और समरूपसे स्थित देखता है, वही वास्तव में सही देखता है।” गीता एक और प्रमुख जानकार स्वामी तेजोमयानंद जी कहते हैं, “जो पुरुष समस्त नश्वर भूतों में अनश्वर परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।”
इस श्लोक में भगवान ने अर्जुन को, और अर्जुन के माध्यम से हमें यह समझाया है कि हमें हर जीव में, प्रत्येक प्राणी में उसके अंदर विद्यमान परम आत्मा, परम ईश्वर का आभास करते रहना चाहिए और वाह्य शरीर को प्राणी नहीं समझना चाहिए। प्राणियों को इस प्रकार देखने का तरीक़ा ही भगवत् गीता के अनुरूप है।
सभी प्राणियों को इस प्रकार देखने का एक लाभ यह भी है कि हमें सारे प्राणी एक समान, एक बराबर दिखेंगे क्यूँकि ईश्वर सभी प्राणियों में समान रूप से उतना ही बराबर उपस्थित है। दूसरा लाभ यह है कि हमें हमेशा ये आभास और ये ज्ञान रहता है कि हमारा शरीर नश्वर है एवं लगातार नष्ट हो रहा है किंतु हम शरीर नहीं हैं, हम परमेश्वर का अंश हैं इसलिए हम नष्ट नहीं हो रहे हैं।
हम नष्ट हो ही नहीं सकते हैं और हमारे शरीर को नष्ट होने से कोई रोक ही नहीं सकता। इस नज़र से देखने पर हम व्यक्ति, गधे, बिल्ली, बंदर, कुत्ते आदि सभी प्राणियों में एक ही जीवात्मा को देखने लगते हैं और सभी के समान होने का अनुभव होता है। ऐसे अनुभव से ही हमारा आचरण स्वयं ही सभी के लिए समान होने लगता है।
गीता के श्लोकों का मतलब समझना बहुत मुश्किल नहीं है। इसके अर्थों की टीका भी कई टीकाकारों ने बहुत ही आसान शब्दों में की है। इन श्लोकों का अपने आचरण में अभ्यास करना थोड़ा कठिन है। इसको दुहराते रहने से यह हमारे मस्तिष्क में जड़ हो सकता है और धीरे धीरे हमारे आचरण में उतर सकता है। इसके लिए कोशिश करते रहना पूरी तरह से हमारे हाथ में है।
गीता की इस सीरीज़ में मैं आपके समक्ष कुछ और श्लोकों के शाब्दिक अर्थ, उनकी व्याख्या और उनकी प्रसिद्ध टीकाएँ प्रस्तुत करने की कोशिश करूँगा। उम्मीद है हम सभी इन श्लोकों का मतलब समझने में सक्षम हो सकेंगे और इसका अभ्यास करने में हमें आसानी होगी। याद दिलाना चाहता हूँ कि दुहराते रहना ज़रूरी और महत्वपूर्ण है।
(लेखक जर्मनी के म्यूनिख शहर में रहते हैं और ड्यूस बैंक में असिस्टेंट वाईस प्रेसीडेंट हैं )
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