अशोक कुमार
8 अप्रैल, 2025 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु विधानसभा द्वारा विश्वविद्यालयों से संबन्धित, पारित किए गए 10 विधेयकों को मंजूरी दी, जो राज्यपाल द्वारा रोक दिए गए थे।
इन विधेयकों के पारित होने के बाद, राज्य सरकार को तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति का अधिकार मिल जाएगा।यह अधिकार पूर्व में माननीय राज्यपाल को था।
कुलपति की नियुक्ति को लेकर राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच केरल , पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक:, महाराष्ट्र, पंजाब , हिमाचल मे विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर मतभेद सामने आए हैं।
विवाद समाज पर कई नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। इससे शिक्षा प्रणाली में अस्थिरता, गुणवत्ता पर प्रभाव, शैक्षणिक माहौल का खराब होना, शासन और प्रशासन में अवरोध, संस्थाओं की स्वायत्तता का क्षरण, राजनीतिक ध्रुवीकरण और विकास पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। इसके अतिरिक्त, यह संवैधानिक मूल्यों और संघीय ढांचे पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, जिससे जनता का विश्वास कम हो सकता है।
इस संवेदनशील और महत्वपूर्ण मामले के समाधान के लिए राज्य सरकार और राज्यपाल दोनों को संविधान और विश्वविद्यालय अधिनियमों में उल्लिखित अपनी-अपनी शक्तियों और सीमाओं का स्पष्ट रूप से पालन करना चाहिए।
यदि किसी विशेष बिंदु पर अस्पष्टता है, तो दोनों पक्षों को मिलकर निष्पक्ष कानूनी विशेषज्ञों से राय लेनी चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए।
राज्यपाल और मुख्यमंत्री (या शिक्षा मंत्री) को नियमित रूप से इस मुद्दे पर और अन्य संबंधित मामलों पर चर्चा करनी चाहिए ताकि गलतफहमी और टकराव की स्थिति से बचा जा सके। कुलपति के नामों पर विचार करते समय, दोनों पक्षों को ऐसे नामों पर सहमति बनाने का प्रयास करना चाहिए जो योग्यता, अनुभव और निष्पक्षता के मानदंडों को पूरा करते हों।
चयन प्रक्रिया में सुधार के लिए कुलपति के चयन के लिए एक स्पष्ट, पारदर्शी और योग्यता-आधारित प्रक्रिया स्थापित की जानी चाहिए। इसमें शिक्षाविदों, विशेषज्ञों और विश्वविद्यालय प्रशासन के प्रतिनिधियों को शामिल किया जा सकता है। एक निष्पक्ष और प्रतिष्ठित खोज समिति का गठन किया जाना चाहिए जो संभावित उम्मीदवारों के नामों की सिफारिश करे।
इस समिति की सिफारिशों पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। लपति पद के लिए योग्यता मानदंड को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए और राजनीतिक विचारों से ऊपर रखा जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाना चाहिए ताकि वे स्वतंत्र रूप से शैक्षणिक और प्रशासनिक कार्य कर सकें।
विश्वविद्यालय अधिनियमों में कुलाधिपति (अक्सर राज्यपाल) की भूमिका और शक्तियों को और अधिक स्पष्ट किया जाना चाहिए ताकि किसी भी तरह की अस्पष्टता या अतिरेक से बचा जा सके। यदि मामला न्यायालय में जाता है, तो सभी पक्षों को सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का पूरी तरह से पालन करना चाहिए। इस तरह के महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दों पर निर्णय लेने के लिए आवश्यकतानुसार संवैधानिक पीठ का गठन किया जा सकता है ताकि व्यापक कानूनी दृष्टिकोण मिल सके।
राज्यपाल और मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के लिए एक आचार संहिता विकसित की जा सकती है जो उनके आपसी संबंधों और कार्यप्रणाली के लिए दिशानिर्देश प्रदान करे।
नागरिक समाज की भूमिका: नागरिक समाज, शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों को इस मुद्दे पर रचनात्मक चर्चा को बढ़ावा देना चाहिए और राजनीतिक नेतृत्व पर संवैधानिक मूल्यों और शिक्षा के हित में काम करने का दबाव डालना चाहिए।मीडिया को इस मुद्दे पर निष्पक्ष और तथ्यात्मक रिपोर्टिंग करनी चाहिए ताकि जनता को सही जानकारी मिल सके।
कुलपति नियुक्ति विवाद एक संवेदनशील मुद्दा है जिसका समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। इसका समाधान संवैधानिक प्रावधानों का सम्मान, आपसी संवाद, पारदर्शी प्रक्रिया और विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का सम्मान करने में निहित है। सभी हितधारकों को शिक्षा के महत्व को समझना चाहिए और राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर एक ऐसा समाधान खोजने का प्रयास करना चाहिए जो उच्च शिक्षा के हित में हो और समाज पर सकारात्मक प्रभाव डाले।
(लेखक : पूर्व कुलपति कानपुर , गोरखपुर विश्वविद्यालय , विभागाध्यक्ष राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर)