डा. रवीन्द्र अरजरिया
जीवन की आपाधापी में लोगों ने समस्याओं का अम्बार लगा लिया है। शारीरिक सुख और थोथे सम्मान की चाहत में भौतिक वस्तुओं की भीड़ में निवास स्थान एक अजायबघर बनकर रह गया है। यही अजायबघर विभिन्न समस्याओं का कारक बनता जा रहा है। कभी एसी खराब तो कभी कार खराब।
कभी वाशिंग मशीन खराब तो कभी वैक्यूम क्लीनर खराब। यह सब मिलकर निवास स्थान में रहने वालों की जहां अनावश्यक व्यस्तताओं में वृधि करते है वहीं आर्थिक बोझ भी लादते हैं।
सुपाच्य भोजन, सरल निवास और सामान्य वस्त्र कभी भी परेशानी का कारण नहीं बन सकते। अपेक्षाओं की अति और इच्छाओं की अनन्तता ने ही जीवन को कठिन से कठिनतम बना दिया है। संभ्रांत स्तर के लिए जो कथित मापदण्ड स्थापित हुए हैं वे आवश्यकता से अधिक की आय के बोझ को ठिकाने लगाने के लिए ही हुए हैं।
व्यक्ति को अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु बेहद सीमित साधनों की जरूर होती है परन्तु उस जरूरत की पूर्ति से सैकडों गुना अधिक आय होने से लोगों ने शारीरिक सुख हेतु भौतिक विलासता के संसाधनों को जुटाना शुरू कर दिया। यहीं संसाधन कालान्तर में परेशानियों का कारण बनते चले गये। आज लोगों के पास एक ही रोना है कि समय नहीं है, पैसा बचता नहीं है, घर में शांति नहीं है।
यह सब दिखावा और विलासता के कारण से जन्मे राक्षसों का आक्रमण है जो इच्छा पूर्ति की पगदण्डी से चलकर मन मस्तिष्क के सिंहासन पर आरूढ हो गये हैं। इन राक्षसों ने दैवीय संस्कारों को समाप्त कर भोगवादी चरित्र का विस्तार प्रारम्भ कर दिया है।
परिणाम सामने है कि समाज में समस्याओं का अम्बार लगा है। कहीं भौतिक वस्तुओं की भीड़ में खोये मनष्य को ढूढ़ना कठिन हो रहा है तो कहीं परिवार के भविष्य की ठेकेदारी ने सुख-चैन समाप्त कर दिया है।
भौतिक वस्तुओं के बेतहाशा उपयोग से आदी हो चुके लोगों को बिना मांगे बीमारियों की सौगात मिलने लगी है। अधिक उत्पादन की चाहत में जहां आधुनिक प्रजातियों के नाम पर वनस्पतियों के बीजों को संक्रमित किया जा रहा वहीं पशुओं की नस्लों को भी बिगाड़ने की क्रम जारी है।
पवित्रता से लेकर शुध्दता तक को हाशिये पर फेंका जा रहा है परिणामस्वरूप विकृति से उत्पन्न खाद्यान्न और दुग्ध आदि के उत्पाद भी अनजाने कीटाणुओं के साथ मानवीय काया में प्रवेश करने लगे हैं।
टाइफाइड, टीबी, एड्स, कोरोना जैसे संक्रमण की स्थितियां इसी विकृति का परिणाम हैं। नकल पर आधारित सिधान्तों पर टिकी देश-दुनिया की व्यवस्था का मानसिक दिवालियापन आज सामने आ चुका है।
सरकारों ने पहले रसायनिक खादों को जबरजस्ती किसानों पर थोपा, सड़कों के किनारे लगे नीम, आम, जामुन आदि के पेडों के स्थान पर यूकोलिप्टस के पौधे रोपे, सूती वस्त्रों के स्थानों पर पौलिस्टर के कपडों को प्रोत्साहन जैसे अनेक कृत्य बिना सोचे समझे लागू कर दिये गये और अब तो कैशलैस जैसी नीतियों के आने के बाद तो हाथ में कुछ भी नहीं रहता।
साइबर अपराध को रोकने, नेट की स्पीड नियंत्रित करने, सरर्वर की क्षमता के अनुरूप भार डालने, समाज के अंतिम छोर पर बैठे अनपढ व्यक्ति को प्रशिक्षित किये बिना फील गुड जैसे शब्द शायद ही शतप्रतिशत लोगों की समझ में आये होंगे। स्वयं की बुलाई आफत और सरकार द्वारा दी जाने वाली परेशानियों के मध्य आज वैदिक संस्कृति को अंगीकार करने वालों की पीढ़ियां तड़प रहीं है।
देश में हमेशा से ही तानाशाही का परचम फहराता रहा। कभी राजशाही के तले फरमान जारी होते थे, तो कभी आक्रान्ताओं का हुक्म मानना मजबूरी बना। कभी गोरों की चाबुकों से पीठ लहूलुहान हुई तो कभी संविधान के नाम पर विदेशी भाषा में थोपी गई मनमानियों ने चैन छीन लिया। तिस पर विश्वगुरू होने का भ्रम आज तक मिट नहीं पाया।
वैदिक इतिहास को पढे बिना ही देश के कथित ठेकेदार पुन: विश्वगुरु बनने दावा कर रहे हैं।वास्तविकता को झुठलाकर कब तक हम हवा में गोते लगाते रहेंगे, एक न एक दिन तो हमें धरातल पर आना ही पडेगा।
पुरातन संस्कृतिक के पुरोधाओं ने प्रकृति से साथ सामस्य स्थापित करके स्वयं की जिन्दगी को सुगम, सरल और सुविधायुक्त बनाने हेतु परा विज्ञान के जो अविष्कार किये थे, वे ही सर्वोच्च थे। वैदिक साहित्य के गूढ़ रहस्यों को समझने के स्थान पर लोगों ने आक्रान्ताओं की नकल करते हुए उन्हें ही आदर्श मान लिया।
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तभी तो योग जब विदेशों से होकर योगा बनकर आता है तब हम उसे स्वीकरते हैं, विदेशी मंदिरों के मठाधीशों से श्रीकृष्ण चरित्र सुनकर हमें समझ आती है, आयुर्वेद के नुक्से जब अंग्रेजी के लेबिल लगकर मिलते हैं तब हमें विश्वास होता है। समस्याओं के निदान हेतु त्यागना होगी नकल संस्कृति। तभी मौलिकता की विशुध्दि के मध्य आनन्दित हो सकेगा जीवन।