जुबिली स्पेशल डेस्क
लखनऊ। 26 जनवरी को किसान आंदोलन उस समय कमजोर पड़ गया था जब ट्रैक्टर रैली के दौरान हिंसा हो गई थी। तब ऐसी स्थिति बनती नजर आ रही थी कि किसानों का आंदोलन खत्म हो जायेगा लेकिन राकेश टिकैत की बेबसी पर निकले उनके आंख से आंसुओं ने एकाएक किसान आंदोलन को फिर से जिंदा कर दिया।
2 महीने से चल रहे आंदोलन में तब नया मोड आ गया जब राकेश टिकैत के आंखों से निकले आंसुओं ने हारी हुई बाजी को पलट दिया है और सरकार देखती रह गई।
राकेश टिकैत के आंसुओं को पूरे देश ने टीवी पर देखा। राकेश टिकैत के आंसुओं में कितनी ताकत थी इसको अगर समझना है तो इतिहास के पन्नों को पलटना होगा।
कहा जाता है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश के लोग हर चीज को सहन कर सकते हैं लेकिन आंसू किसी भी कीमत पर बर्दाशत नहीं किया जाता है।
राकेश टिकैत के मामले में भी यही हुआ है। इसका असर मुजफ्फरनगर में महा पंचायत में देखने को मिला। इस महा पंचायत सभी लोगों को यही संदेश दिया गया है कि जो हुआ सो हुआ, अब साथ आ जाओ के संदेशके साथ पंचायत समाप्त हुई।
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अगर देखा जाये तो कई मौकों पर इस तरह के आंसुओं ने हारी हुई बाजी को पलटा है . 1985 में चौधरी चरण सिंह ने अपनी बेटी सरोज वर्मा को चुनावी दंगल में छपरौली विधानसभा क्षेत्र में उतारा था लेकिन उस समय उनके इस कदम का विरोध हुआ था लेकिन चौधरी चरण सिंह अपनी बेटी के लिए चुनाव प्रचार किया और थाने के सामने भावुक होकर बैठ गए। सोमपाल शास्त्री की हार का मुंह देखना पड़ा।
1971 में चौधरी साहब पहली बार लोकसभा चुनाव में अपना भाग्य अजमाया था लेकिन हार गए थे। इस हार से दुखी होकर अपने समर्थकों के बीच खूब रोए थे। इसका नतीजा यह रहा कि चौधरी चरण सिंह का दबदबा कायम हुआ था।
चौधरी चरण सिंह के बाद अजित सिंह का नाम खूब सुर्खियों में रहा है। बात अगर 1998 की बात की जाये तो भाजपा के सोमपाल शास्त्री ने अजित सिंह चुनाव में हरा दिया था।
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ये हार इतनी बड़ी थी लोगों का रो-रो कर बुरा हाल था। आलम तो यह रहा कि उस दिन किसी के घर में चुल्हा तक नहीं जला। इसका नतीजा यह रहा कि अगले ही साल सोमपाल शास्त्री दोगुने अंतर से अजित सिंह से पराजित हो गए।
चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की बात की जाये तो उन्होंने कई मौकों पर अपने आंसुओं के सहारे कई बार बाजी को पलटी है। बोट क्लब दिल्ली (25 अक्तूबर 1988) पर 14 राज्यों के पांच लाख किसानों जुटे थे लेकिन उस दौरान किसानों पर आंसू गैस और लाठीचार्ज कर दी गई थी।
उस समय भी महेंद्र सिंह टिकैत रोने लगे और कहा कि किसानों के साथ यह होने नहीं दूंगा। हालांकि इससे पहले े मेरठ कमिश्नरी (27 जनवरी 1988) के घेराव पर भी टिकैत उस वक्त रोये थे जब फोर्स ने कमिश्नरी को घेर लिया था। रजबपुर आंदोलन (मार्च 1988) में जेल भरो आंदोलन के समय भी टिकैत आहत और भावुक हो गए थे।
ये तो बाते इतिहास की थी लेकिन मौजूदा समय में राकेश टिकैत के आंसू भी चर्चा का विषय बना हुआ है।सरकार और किसान के बीच चल रहे शह और मात के खेल के बीच 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस के दिन देश के इतिहास में काला दिन साबित हुआ।
सोशल मीडिया में किसानों के खिलाफ मुहिम चलायी जाने लगी है। ऐसे लगने ये आंदोलन समाप्त हो जाएगा। इस दौरान कई किसान संगठन आंदोलन से हटते नजर आये।तब लगने लगा कि इस आंदोलन की उलटी गिनती शुरू हो गई और तय लगने ये आंदोलन गुरुवार की शाम तक खत्म हो जाएगा।
सरकार भी इसे खत्म करने के लिए अपने कदम बढ़ाने लगी थी।इसके लिए जिला प्रशासन ने किसानों को सीमा क्षेत्र खाली करने के लिए नोटिस भी चस्पा कर दी थी। इसके बाद वहां पर पुलिस पहुंच गई जहां पर राकेश टिकैत मौजूद थे लेकिन गुरुवार की शाम को राकेश टिकैत के आंसू ने सरकार पूरा खेल बिगाड़ दिया।
इसके साथ जो बाजी सरकार के पक्ष में नजर आ रही थी वो एकाएक राकेश टिकैत के आंसू की वजह से पलट गई। आलम तो यह रहा कि राकेश टिकैत का रोता हुआ चेहरा पूरे देश ने टीवी पर देखा।