यशोदा श्रीवास्तव
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री तथा टीएमसी सुप्रीमों ममता बनर्जी के इंडिया एलायंस से अलग होने से बसपा नेत्री मायावती के एलायंस में शामिल होने के प्रयास तेज हो गए हैं। एलांयस के अंदरखाने की खबर है कि उन्हें 25-30 सीटों का आफर भी दे दिया गया है। चर्चा तेज हो कि उन्हें प्रधानमंत्री का चेहरा तक बनाने की बात चल रही है।
इसके लिए अखिलेश यादव को भी तैयार कर लिया गया है। गेंद मायावती के पाले में है। इसके लिए जिस तेजी से प्रयास चल रहे उस हिसाब से हां या न का फैसला दो एक दिन में ही हो जाना है। जानकारों का कहना है कि इंडिया एलायंस मायावती को अपने साथ लाने में सफल हुआ तो आसन्न लोकसभा चुनाव में यह बड़ा गेम चेंजर साबित होगा।
ममता बनर्जी ने एलांयस से अलग होकर वहां की सभी 42 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं। इसके पीछे तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। उनका भतीजा ईडी के निशाने पर है तो सांसद महुआ मोइत्रा एक गंभीर आरोप के चलते संसद से मुक्त हो चुकी हैं। संदेशखाली की घटना भी ममता को कहीं न कहीं कटघरे में खड़ा करता है। पं बंगाल के भाजपा नेताओं ने खुल्लम खुल्ला ममता सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन की मांग कर रखी है।
इसके पहले वहां के कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने भी ममता सरकार पर कानून व्यवस्था को लेकर अंगुली उठाई है। राष्ट्रपति शासन की मांग सबसे पहले उन्होंने ही की। ममता के साथ इंडिया एलायंस का न रुक पाना,यह भी एक वजह हो सकता है। परिजनों को जेल और सरकार जाने का खतरा संभवतः ऐसा कारण है जो उन्हें एलांयस से हटने को मजबूर किया। ममता का एलायंस से अलग होना बड़ी बात नहीं,बड़ी बात यह है कि वे मेघालय और असम में अपना उम्मीदवार खड़ा कर एलायंस खास तौर पर कांग्रेस को कमजोर करने की कोशिश कर रही हैं। इससे ऐसा लगता है कि वे किसी न किसी के हाथों इस्तेमाल हो रहीं हैं?
इंडिया एलायंस में ममता के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब नीतीश कुमार को एलांयस का संयोजक चुना जाना था तो कहा गया कि ममता जी से इस पर एक मशवरा हो जाना चाहिए। संभवतः नीतीश कुमार के एक झटके में एलांयस को बाय कहने के पीछे का कारण यह भी था। नीतीश कुमार के बाद ममता बनर्जी का इंडिया एलायंस से अलग होने का संदेश बड़ा है। इसे कांग्रेस भी बखूबी समझ रही है इसीलिए कांग्रेस के जय राम रमेश कहते भी हैं कि उनकी पार्टी टीएमसी के साथ गठबंधन के लिए अभी भी इच्छुक है। दरवाजे बंद नहीं हुए हैं।
ममता बनर्जी इस बार जब तीसरी बार मुख्यमंत्री बनीं तो उन्हें मुख्यमंत्री से ऊपर का ख्वाब दिखने लगा। संभवतः बंगाल के बाहर के कुछ बड़े नेताओं को पार्टी में शामिल करने के पीछे यह साबित करना रहा है कि उनकी स्वीकार्यता केवल प.बंगाल भर में नहीं है। उनका हरियाणा, बिहार,यूपी असम, तमिलनाडु सरीखे अन्य प्रदेशों तक भी पहुंच हैं। टीएमसी में दाखिल होने वाले ज्यादातर कांग्रेस के ही हैं। टीएमसी के एक प्रवक्ता ने कहा भी कि कांग्रेस यदि सभी दलों के स्वीकार्य विपक्ष की भूमिका के लायक होती तो उसके नेता पार्टी क्यों छोड़ते?
दरअसल भाजपा के मुकाबले इंडिया एलायंस ज़रूर बन गया लेकिन इसके भीतर ही इसकी अगुवाई कर रही कांग्रेस पर चौतरफा हमला जारी है। इसके बावजूद कांग्रेस ने भाजपा से मुकाबले के लिए एलायंस में शामिल अन्य घटक दलों को किसी परिस्थिति में नाराज करने की कोशिश नहीं की। पंजाब में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच फ्रेंडली फाइट का फार्मूला इसका उदाहरण है। ममता चाहतीं तो इंडिया एलायंस में रहकर भी अपने प्रदेश में पंजाब जैसा फार्मूला निकाल सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा न कर विपक्षी गठबंधन को जानबूझकर कमजोर करने की कोशिश की है।
ममता का कांग्रेस से खार खाए रहना समझ से परे हैं। प.बंगाल की राजनीति में ममता और कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी के बीच की प्रतिस्पर्धा किसी से छुपी नहीं है लेकिन यह ममता के एलायंस से अलग होने का कारण नहीं हो सकता। ममता गठबंधन का खेल बिगाड़ने पर अमादा हो गई हैं। मेघालय तथा असम में ममता भले ही न कुछ कर पाएं लेकिन गठबंधन खासकर कांग्रेस को मुश्किल में जरूर डाल सकती हैं।
ममता ही क्यों देखा जाय तो गठबंधन में शामिल कई क्षेत्रीय दल हैं जो कांग्रेस को अंतर्मन से पसंद नहीं करते। इसके पीछे कारण यह है कि उन्हें कांग्रेस के उभरने से स्वयं के समाप्त हो जाने का खतरा है। आम आदमी पार्टी का पंजाब में अकेले चुनाव लड़ने के पीछे शायद यही कारण है। यूपी में सपा और कांग्रेस का साथ भले ही बचा रह गया लेकिन मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने कांग्रेस को क्या क्या कहा सबको पता है। करीब साल भर पहले जब विपक्षी दलों के गठबंधन की बात चल रही थी तभी ममता बनर्जी ने कहा था ऐसे किसी गठबंधन में कांग्रेस को लीड रोल में नहीं बल्कि सहयोगी की भूमिका में होना चाहिए। कहने का मतलब ममता बनर्जी सदैव ही कांग्रेस को अंडर स्टीमेट करती आई हैं।
ममता यह भूल रहीं हैं कि प.बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जरा भी मजबूती से लड़ी होती या फिर लेफ्ट अपना तेवर दिखाया होता तो निश्चित ही तीसरी बार ममता की सरकार बनना मुश्किल होता। कहना न होगा कि उनकी जीत को आसान बनाने में लेफ्ट और कांग्रेस का ढीलापन भी कहीं न कहीं मददगार रहा। ममता बनर्जी पूर्व की बीजेपी सरकार के सहभागी रही हैं। आगे भी उनके इस दल के साथ जाने की संभावना पर पूर्ण विराम नहीं लगा है। हां जब इंडिया एलायंस की भाजपा के विकल्प के रूप में स्वीकार्यता बढ़ रही है तब ममता का अलग होना इंडिया एलायंस को ज्यादा न सही थोड़ा बहुत तो प्रभावित किया ही है।