जरा सोचिए… ये चाय न होती तो क्या होता? क्या क्या नहीं होता। सबसे पहले तो यही है कि हमारे सशक्त प्रधानमंत्री हमें नहीं मिले होते। कुंआरी कन्याएं होने वाले पति के आगे क्या लेकर जातीं?… लोग मेहमानों को गर्मियों में शिकंजी, छाछ और लस्सी तो पिला देते लेकिन जाड़े में क्या पिलाते, गर्म पानी? ‘चाय पर चर्चा” जैसी महत्वपूर्ण गर्मागर्म बहसें व बैठकें पानी वाले बताशे पर होतीं।
रेलवे स्टेशनों पर जाड़े की आधी रात में वेंडर किस पेय की गुहार लगाते। चाय के खोखे पर पुलीटिकल एजेंडे को बतियाने वाले छुटभैये नेता पान की दुकान पर मुंह में मसाला भर कर बोलने से कतराते और देश में राजनीतिक जागरूकता का सर्वथा अभाव होता। देश गर्त में चला जाता।
कहते हैं कि पहले आदमी बिना चाय के भोला व नासमझी से भरा हुआ भलमानस था। उसके नथुनों में रस्सी बांधकर कोई भी सवारी कर सकता था।
अंग्रेजों से शराब की जगह चाय के नशे का गुलाम बनाने के लिए देश में चाय बागान तैयार कराये और गली गली में मुफ्त चाय बांटी। उन्हें यकीन था कि इस चाय के नशे के आदी लोग हमेशा उनके गुलाम बने रहेंगे।
मुफ्तखोरी की आदत शुरू से रही है हमारे खून में। पूर्वजों ने खूब चाय पी और अपने को चाय का गुलाम बना लिया। वो पहले से ही गुलाम थे तो सोचो होगा चलो चाय की गुलामी भी सही।
यह गुलामी नशीली व मीठी थी। लेकिन इसके सेवन से उनकी नादानी और भोलापन जाता रहा। उनके ज्ञान चक्षु खुल गये और वे आजादी आजादी चिल्लाने लगे।
अंग्रेज इसकी तासीर से परिचित नहीं थे। अगर जानते तो कभी न पिलाते। 15 अगस्त 1947 को अंग्रेज केवल बेड टी पीकर देश छोड़कर चले गये। आज वो हमारी चाय के मोहताज है। कोेटारा लेकर चाय चाय की गुहार लगाते हैं। हमारे गुलाम हैं।
ज्यादा दूर मत जाइये। हमारे पिताजी से बड़ा चायखोर पूरे हलके में कोई नहीं था। आंख खुलने से लेकर बंद होने तक वे दर्जनों कप चाय पी जाते थे। हमारी एक भाभी की ड्यूटी उनकी चाय बनाने में ही रहती थी।
वे अपने आफिस फुल लेंथ थर्मस भरकर चाय ले जाते और दो घंटे के बाद थर्मस फिर रिफिल के लिए आ जाता था। आफिस आैर घर अगल बगल ही थे। वे पच्चासी साल तक जिन्दा रहे इसी चाय की बदौलत और मरते दम तक नौकरी की।
हां तो किस्सा कोताह ये कि बंदे की शादी की बात चली तो उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि देखिए एक बात तो हम आपको बताना ही भूल गये। सब चौकें।
बिना दहेज की लव मैरिज में यह कौन से नया पैंतरा खड़ा करने वाले हैं? उधर से कोई बोला अच्छा आप चाहते हैं कि बारातियों को स्वागत पान पराग से किया जाए! ये कोई टीवी विज्ञापन का शौकीन था।
पिताजी ने उसे शांत रहने का इशारा किया और चुटकी बजाते हुए फरमाया,’ पूरी शादी के दौरान मेरे हाथ में चाय का कप खाली न रहे।
उधर से सबने राहत की सांस ली और पक्का वादा किया कि बाबूजी हमें सेवा का अवसर तो दें। आप ही मना न कर दें तो हमें कहिएगा। हुआ भी वही। जब भी बाबूजी सोने चलें कोई न कोई आकर जगा दे और चाय का कप थमा दे।
विदाई के समय बाबूजी को थर्मस भर चाय से नवाजा गया। एक किस्सा और याद आ रहा है। बाई रोड दोस्तों के साथ नेपाल घूमने गये। एक चाय की टपरी पर गाड़ी रोकी गयी।
चाय बनाने वाले गोरखा ने कहा कि चाय पीना है तो इत्मीनान से इनके साथ बेंच पर बैठ जाइये। चाय चढ़ाई गयी। एक खौल आया। दो खौल आया। हमने कहा कि भइये काढ़ा नहीं पीना है हमें चाय दे दो।
उसने कहा कि मैंने पहलेे ही कहा था कि चाय पीना है तो इत्मीनान रखना। जब तक सात खौल नहीं आयेंगे मैं चाय को भट्टी से नीचे नहीं उतारूंगा। हमें अंधेरा होने से पहले होटल पहुंचना था।
हमें उससे कहा कि भाई हमें पीना है आपको पैसे से मतलब। हमें दे दें। लेकिन बन्दा टस से मस न हुआ। हम चौथे खौल तक अंदर तक खौल चुके थे। चल दिये। सोचा कि आवाज देगा। लेकिन उसने बाय बाय कर अलबत्ता हमारा अंदरूनी खौल और बढ़वा दिया।
कपूरथला अलीगंज में हमारेे और आफिस आरिफ चैम्बर की लेन में पतली सी जगह में ठाकुर का होटल है। होटल कहना होटल की तौहीन होगी। यूं समझ लीजिए राम मड़ैया है।
सारी कुर्सी कहीं न कहीं से टूटी हुईं। मरहम पट्टी की हुई। ठाकुर साहब के यहां सबसे ज्यादा मसाला लेमन टी बिकती थी। दूध न जाने कौन पी जाता। लोग लेमन टी ही पीकर काम चला लेते थे।
हमारे फोटोग्राफर संजय त्रिपाठी वहींं पाये जाते थे। जो कोई भी स्कूटर स्टैंड पर गाड़ी खड़ी करके ठाकुर के होटल से निकलता तो संजय भाई की आवाज आती, ‘आओ एक एक कप लड़ जाए!
संजय भाई ने नौकरी से वीआरएस ले लिया। उनकी चाय छूट गयी। एक दिन पता चला कि यह जुदाई वे बर्दाश्त नहीं कर पाये और इस फानी दुनिया को छोड़कर कूच कर गये।
उधर सेे गुजरते हुए आज भी लगता है कि पीछे से संजय भाई की आवाज आयेगी कि” आओ एक एक कप लड़ जाए। हमारे एक मित्र संजय और भी हैं ये श्रीवास्तव हैं। हम अक्सर चाय पर मिलते हैं। वह जिस इलाके में होते हैं वहां की सबसे अच्छी चाय का ही सेवन कराते हैं। उनकी बदौलत मैं भी शहर के कई चाय के ठेले, गुमटी और फुटपाथी सब तरह की चाय पीने का आनंद ले चुका हूं। हमारा एक परमानेंट ठीहा भी है। यह जगह है डीएम निवास के सामने और हिन्दी संस्थान के बगल वाली सड़क पर पार्क से लगा टी स्टाल। यहां कुल्हड़ में चाय और गर्मागर्म पकौड़े का आनन्द ही कुछ और है। उस दिन यह तय हुआ कि चलो तंदूरी चाय पीते हैं। पहुंच गये पुस्तक मेले में। मेेले में पीछे की तरफ खानपान का भी इंतजाम किया जाता है।
उसी में तंदूरी चाय का भी एक स्टाल लगा हुआ था। हम दोनों पहली बार ही बहुचर्चित तंदूरी चाय नोश फरमाने पहुंचे थे। उसने दो कुल्हड़ भट्टी से निकाले और थर्मस में रखी पता नहीं कब की चाय में उसमें डाल कर झाग निकाला। कुल्हड़ में डाल कर हमारे आगे बढ़ा दी। पहली ही घूंट में पता चल गया कि मामला बासी है। साठ रुपये दिये और वापस अपने अड्डे पर आकर चाय पी तब कहीं जाकर मूड फ्रेश हुआ।
टेेेेलीफोन डिपार्टमेंट के आला अधिकारी हमारे मित्र बने। आफिस में बुलाया तो मैं मिलने गया। खातिरदारी में उन्होंने पूछा कि कैसी चाय पियेंगे। मैंने कहा जो आप पियेंगे वही पी लूंगा। ‘
उन्होंने हर्बल टी बोल दी। उसमें न दूध न शक्कर न साथ में बिस्कुट। दो घूंट किसी तरह हलक के नीचे उतारी। एकदम बेमजा। बोले यह सेहत के लिए बहुत मुफीद होती है। मैं तो यही पीता हूं। उन्होंने हर्बल टी के कई कसीदे पढ़े। जल्दी समझ आ गया है कि उनका विभाग क्यों घाटे में चल रहा है।
बताते हैं कि जापान में चाय बनाने, सर्व करने और जूठे बर्तन धोने का तीन साल का डिग्री कोर्स होता है। पुराने लखनऊ की कश्मीरी चाय पी नहीं खायी जाती है। शर्मा की चाय तो वर्ल्ड फेमस है।
यूं तो हर गली मोहल्ले में चाय की अपनी खूबी और अरोमा है। लेकिन लिपटन की चाय का अपना ही मजा है। एक चाय है बाघ बकरी। इसमें आदमी जब कुंआरा होता है तो वह बाघ की तरह चाय पीता है और जब उसकी शादी हो जाती है तो वह बकरी की तरह चाय पीने लगता है।