Tuesday - 29 October 2024 - 11:50 AM

क्या हिन्दू क्या मुसलमान, कोरोना काल में सबका अंतिम संस्कार कर रहा है ये शख्स

शबाहत हुसैन विजेता

गुजरात का शहर सूरत कपड़ा उद्योग में अपनी अलग पहचान रखता है. गुजराती सिल्क सारी दुनिया में मशहूर है. इस शहर की पहचान डायमंड कटिंग और उस पर की जाने वाली पॉलिश की वजह से भी है. इस शहर को इंसानियत की खुशबू से महकाने का काम भी चल रहा है. यह काम पिछले 33 साल से लगातार चलता आ रहा है लेकिन कोरोना काल में इसकी खुशबू गुजरात की सरहदें लांघकर पूरे हिन्दुस्तान में फैलने लगी है.

सूरत में रहते हैं अब्दुल रहमान मलबारी. साधारण शक्ल सूरत वाले अब्दुल रहमान जो काम करते हैं वह असाधारण है. कोरोना की महामारी पूरी दुनिया में फैली तो उससे सूरत अछूता कैसे रह जाता. सूरत में भी कोरोना ने तमाम लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लिया. लोग अस्पताल में भर्ती हुए. भर्ती होने वालों में ठीक भी होने लगे और मरने भी लगे.

कोरोना से मौतें शुरू हुईं तो एक बड़ी दिक्कत सामने आ गई. जिन घरों के लोगों की मौत हुई वह भी अपने रिश्तेदारों के शव लेने अस्पताल नहीं गए. प्रशासन ने उनके घरों पर सूचना भी दी लेकिन उन घरों के दरवाज़े नहीं खुले.

घर वाले लाश लेने नहीं आये तो सूरत के अब्दुल रहमान मलबारी ने इन लाशों के अंतिम संस्कार का बीड़ा उठाया. मरने वाला किसी भी धर्म का हो इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता. हिन्दू मरता है तो हिन्दू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किया जाता है. अंतिम संस्कार से पहले शव के मुंह में गंगा जल भी डाला जाता है. लकड़ी और घी की व्यवस्था भी यह करते हैं.

मुसलमान की मौत होती है तो कब्र खुदवाने से लेकर कफ़न और दफ़न का पूरा इंतजाम करते हैं. दफन से पहले नमाज़-ए-जनाज़ा भी पढ़ी जाती है. दफन के वक्त घर वालों की तरफ से यह खुद और इनके चार साथी कब्र को मिट्टी देते हैं. अंतिम संस्कार के ख़ास मौकों की तस्वीरें भी खींची जाती हैं जो मरने वाले के घर भेज दी जाती हैं ताकि उसे यह सुकून रहे कि अंतिम संस्कार ठीक से किया गया है.

अब्दुल रहमान से जब यह पूछा गया कि उन्हें कोरोना से मरने वालों की लाशों से डर नहीं लगता तो वह बोले कि कोरोना से बचने की जो सावधानियां हैं उन्हें अपनाया जाए तो लाश से कोई नुक्सान नहीं होता है. वह कहते हैं कि इस दौर में लाश नहीं जिन्दा इंसान ज्यादा खतरनाक है.

अब्दुल रहमान ने बताया कि 33 साल पहले सूरत में सकीना बेगम नाम की एक महिला की एड्स से मौत हो गई थी. एड्स से डरे हुए घर वालों ने उसे छूने से भी इनकार कर दिया. उसकी लाश 22 दिन तक पड़ी रही. लाश पूरी तरह से सड़ गई. घर वाले नहीं आये तो उस बॉडी के अंतिम संस्कार का फैसला किया. लाश पर रेंगते कीड़े देखकर नहलाने वाली महिलायें भी भाग गईं. तब खुद उस लाश पर पानी डाला. कीड़े हट गए तो डीटाल से घाव साफ़ किये और उसे दफना दिया. इस घटना ने इतना सुकून दिया कि उसके बाद यह सिलसिला ही चल पड़ा.

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यह काम मुश्किल था मगर बहुत ज़रूरी था. इसके लिए एकता ट्रस्ट का गठन किया, कुछ साथी जोड़े. अब तक 43 ऐसी लाशों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं जिन्हें लावारिस करार दिया गया था. अपनी वैगनआर कार को एम्बूलेंस का रूप दे दिया. कोरोना काल में ज़िम्मेदारी बढ़ गई है. काम थोड़ा मुश्किल है मगर यह सिलसिला लगातार जारी है.

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