मल्लिका दूबे
गोरखपुर। लोकसभा चुनाव में यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ अपने ही गढ़ में विपक्षी दलों की गणित के चक्रव्यूह में फंसते नजर आ रहे हैं। जातीय गणित वाले इस चक्रव्यूह को योगी उस दशा में कैसे तोड़ पाएंगे जबकि वह खुद चुनावी मैदान में नहीं हैं? योगी के खुद प्रत्याशी होने की दशा में गोरक्षपीठ की आस्था हमेशा जातीय समीकरणों पर भारी पड़ी लेकिन उप चुनाव में जब योगी खुद प्रत्याशी नहीं थे तो यहां का परिणाम देश-दुनिया तक चर्चा में रहा। एक बार फिर यहां उप चुनाव जैसे समीकरणों ने अपने प्रत्याशी को लेकर योगी को बेचैन कर दिया है।
क्या हुआ जब योगी खुद नहीं थे मैदान में
सालों से गोरक्षपीठ की आस्था से जुड़े रहे वीआईपी संसदीय क्षेत्र गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद आया परिणाम विपक्षी दलों के लिए संजीवनी बनकर आया। लगातार पांच चुनाव तक खुद योगी और इसके पहले लगातार तीन चुनाव तक उनके गुरू महंत अवेद्यनाथ के नाम रही गोरखपुर लोकसभा सीट पर 2018 के उप चुनाव का परिणाम भाजपा के लिए तगड़ा झटका था। सीएम बनने के बाद योगी को गोरखपुर के सांसद पद से इस्तीफा देना पड़ा। उप चुनाव हुआ तो यहां बसपा और निषाद पार्टी के समर्थन से सपा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की। योगी के चुनाव तक जातीय समीकरण गोरक्षपीठ के प्रति जनसामान्य की आस्था के आगे जहां पानी भरते थे वहीं उप चुनाव में इन्हीं समीकरणों ने भाजपा को पानी पिला दिया। योगी के मैदान में होने की दशा में दलित, पिछड़े, अति पिछड़े आस्था के नाम पर उनके साथ नजर आते थे। उनके खुद प्रत्याशी न होने की दशा में आस्था का जादू कैसे चलेगा?
एक बार फिर योगी के सामने जातीय समीकरणों की चुनौतियां
भाजपा ने उप चुनाव में जहां वर्तमान में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष उपेंद्र दत्त शुक्ल को प्रत्याशी बनाया था तो वहीं इस बार नेशनल प्रोफाइल के भोजपुरी फिल्म स्टार रवि किशन शुक्ला को। यानी उप चुनाव की तरह एक बार फिर ब्राह्मण प्रत्याशी। उप चुनाव से अधिक इस बार का चुनाव मुख्यमंत्री योगी की प्रतिष्ठा का विषय बना हुआ है। कारण, जातीय गणित एक बार फिर उप चुनाव जैसे ही हैं।
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लंबे-समय तक सपा व बसपा की न्यूज कवरेज करने वाले गोरखपुर के वरिष्ठ पत्रकार आलोक दूबे मानते हैं कि उप चुनाव की तरह जातीय समीकरणों से पार पाना योगी व भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। वह गिनाते हैं मुस्लिम बीजेपी को वोट देंगे नहीं। यादवों पर पहले मुलायम और अखिलेश यादव के अलावा अन्य किसी का जादू चलता नहीं। बसपा का वोट बैंक सालिड होने के साथ पार्टी सुप्रीमो के निर्देश पर आसानी से शिफ्ट हो जाता है। ऐसे में दलितों के वोट बैंक में भी सेंधमारी भाजपा के लिए आसान नहीं। रही बात इस संसदीय क्षेत्र के बहुसंख्यक निषाद मतदाताओं की तो उप चुनाव की भांति एक बार फिर निषाद प्रत्याशी देकर सपा ने निषाद मतदाताओं को पहले ही लुभा लिया है।
प्रभावकारी निषाद समाज के वोट में कैसे होगी सेंधमारी
गोरखपुर के उप चुनाव में सपा की जीत को काफी हद तक निषाद समाज के मतदाताओं की एकजुटता का परिणाम माना जाता है। तब सपा ने प्रवीण निषाद जैसे राजनीतिक नौसिखुए को प्रत्याशी बनाकर बाजी मार ली थी। इस बार उसके प्रत्याशी निषाद समाज में अच्छी पैठ रखने वाले और यूपी में पूर्व राज्यमंत्री रह चुके रामभुआल निषाद प्रत्याशी हैं। ऐसे में भाजपा के लिए निषाद बिरादरी के वोटों में सेंधमारी आसान बात नहीं होगी।
चुनावी लड़ाई के शुरुआती दिनों में योगी ने पूर्व मंत्री जमुना निषाद के पुत्र अमरेंद्र निषाद को अपने पाले में कर इस बिरादरी के वोटों पर अपनी पैठ बनाने की कोशिश की थी लेकिन सियासी करवट में अमरेंद्र निषाद की घर वापसी हो जाने के बाद बीजेपी का यह दांव फुस्स हो गया है। अमरेंद्र वर्तमान चुनाव में सपा प्रत्याशी के लिए कैम्पेनिंग कर रहे हैं। अब ले देकर प्रभावकारी निषाद समाज में अपने हिस्से का वोट बटोरने के लिए निषाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय निषाद का ही आसरा है।
पर, संजय निषाद अभी योगी के गढ़ गोरखपुर की बजाय संत कबीरनगर में पसीना बहा रहे हैं। गठबंधन से किनारा करके भाजपा को समर्थन देने वाले निषाद पार्टी के प्रमुख के बेटे प्रवीण निषाद को बीजेपी ने संतकबीरनगर से प्रत्याशी बनाया है।
इस बार बहुत नहीं चलेगा निषाद पार्टी का जादू
उप चुनाव की भांति इस बार के चुनाव में निषाद पार्टी गोरखपुर में सीधे तौर पर सक्रिय नहीं है। उप चुनाव में प्रवीण निषाद सपा के सिम्बल पर चुनाव लड़ रहे थे तो बिरादरी के वोटरों को सहेजने का जिम्मा निषाद पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उठा रखा था। निषाद पार्टी के जो भी कार्यकर्ता हैं, वो संतकबीरनगर में प्रवीण निषाद के लिए सक्रिय हैं। ऐसे में यहां बीजेपी के लिए निषाद पार्टी का वैसा जादू चलता नहीं दिख रहा जैसे उप चुनाव में सपा प्रत्याशी के पक्ष में नजर आ रहा था।
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वरिष्ठ पत्रकार आलोक दूबे इसके साथ यह भी जोड़ते हैं कि कभी सपा तो कभी भाजपा से समझौता करके निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद की अब अपने समाज में वह विश्वसनीयता नहीं रह गयी है जो उप चुनाव के दौरान थी। ऐसे में यदि बेटे के चुनाव से खाली होकर संजय निषाद गोरखपुर में चार-पांच दिन समय देंगे भी तो अपनी बिरादरी के वोटरों को अपेक्षाकृत कम ही सहेज पाएंगे।
बहुसंख्यक निषाद समाज को तो निषाद प्रत्याशी ही पसंद
यहां जमीनी स्तर पर निषाद समाज की मंशा को भांपें तो पता चलता है कि उन्हें किसी पार्टी से बहुत मतलब नहीं है। उन्हें अपनी बिरादरी का प्रत्याशी चाहिए। ऐसे में उनके सामने गठबंधन के सपा प्रत्याशी रामभुआल निषाद ही अधिक पसंद आ रहे हैं। जब तक योगी खुद चुनाव लड़ते थे तो यह समाज आस्था के प्रभाव में काफी हद तक उनके साथ भी जुड़ा रहता था। चूंकि बीजेपी से उनकी जाति का प्रत्याशी नहीं है, ऐसे में निषाद पार्टी प्रमुख संजय निषाद को अपने समाज के मतदाताओं को बीजेपी के लिए समझना बेहद मुश्किल काम होगा।
कांग्रेस के ब्राह्मण कार्ड ने बढ़ायी योगी की मुश्किलें
आसन्न लोकसभा चुनाव में गठबंधन की जातीय घेराबंदी के बीच कांग्रेस ने ब्राह्मण कार्ड खेलकर योगी को प्रतिष्ठा बचाने की कड़ी चुनौती पेश कर डाली है। बीजेपी ने भी रवि किशन के जरिए ब्राह्मण प्रत्याशी उतारा है। कांग्रेस प्रत्याशी मधूसूदन तिवारी यूपी बार काउंसिल के मेम्बर हैं और गोरखपुर में उनका वकालत पेशा भी काफी मशहूर रहा है। ऐसे में सजातीय मतदाताओं में उनकी पैठ को आसानी से समझा जा सकता है।
उधर बीजेपी के ब्राह्मण प्रत्याशी की अपने समाज में अभी पूरी स्वीकार्यता नहीं हो पायी है। इस समाज की सहानुभूति उप चुनाव के प्रत्याशी उपेंद्र दत्त शुक्ल के साथ थी लेकिन अब वह मैदान में नहीं हैं। इस दशा में ब्राह्मण वोट बैंक का बंटवारा होना तय है। ऐसे में कांग्रेस के ब्राह्मण प्रत्याशी की जितनी बढ़त होगी, उतना ही घटाव बीजेपी के वोट में होता दिख रहा है।
उदासीन भाव में दिख रहा सैंथवार समाज
गोरखपुर में योगी के प्रति गहरा लगाव रखने वाला सैंथवार समाज इस बार उदासीन नजर आ रहा है। सैंथवार समाज इस संसदीय क्षेत्र में निषादों के बाद दूसरे नंबर की बहुलता वाला वोटर है। इस चुनाव में इस समाज की उदासीनता की वजह दो दिन तक शिद्दत से पिपराइच के विधायक महेंद्रपाल सिंह का नाम टिकट की चर्चा में आना और अचानक फुस्स हो जाना है। जैसे ही महेंद्रपाल सिंह के नाम की चर्चा चली थी, उनकी बिरादरी यानी सैंथवार समाज उत्साहित होकर चुनावी तैयारी में लग गया था लेकिन जैसे ही उनका नाम टिकट से गायब हुआ, उनके समाज के मतदाता खुद को अपमानित समझते हुए चुप्पी साध लिए।
दलित बसपा तो यादव-मुस्लिम सपा के पुराने साथी
रवि किशन के चुनाव के जरिए अपनी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश में दिनरात एक कर रहे योगी आदित्यनाथ के लिए बसपा और सपा के वोट बैंक ने भी तगड़ी चुनौती पेश कर रखी है। परंपरागत रूप से दलित बसपा के तो यादव-मुस्लिम सपा के वोट बैंक बने हुए हैं। इस वोट बैंक की एकजुटता गोरखपुर के उप चुनाव में दिखी तो सपा-बसपा को पूरे यूपी स्तर पर आधिकारिक तौर पर गठबंधन करने का एक प्लेटफार्म भी मिला।
क्या योगी कर पाएंगे गठबंधन के वोट बैंक में सेंधमारी
उप चुनाव के परिणाम से सबक लेते हुए अपने गढ़ में योगी आदित्यनाथ पार्टी प्रत्याशी की सफलता के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। पर, गठबंधन के वोट बैंक में सेंधमारी आसान नहीं दिखती। समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता कीर्तिनिधि पांडेय मानते हैं कि उप चुनाव में गठबंधन के वोटरों की एकजुटता पूरी दुनिया देख चुकी है। गठबंधन के वोट बैंक में सेंधमारी की बात सोचने से पहले बीजेपी को पहले अपने नाराज वोट बैंक को मनाना ही चुनौतीपूर्ण है। जीएसटी और नोटबंदी जैसे फैसलों से बीजेपी का वोट बैंक पहले से नाराज है।
क्या है योगी की रणनीति
अब यहां योगी की चुनावी रणनीति अपने चुनाव का फार्मूला लागू करने की है। योगी भाजपा प्रत्याशी के जरिए अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए उस प्लान पर काम कर रहे हैं जैसे वह खुद चुनाव लड़ते वक्त बनाते थे। इसके लिए उन्होंने अपनी पुरानी टीम, खासकर हिन्दू युवा वाहिनी को पुराने ढर्रे पर सक्रिय किया है। इसके साथ ही वह समाज के अलग-अलग प्रोफेशनल क्लास के साथ बैठक-सम्मेलन कर उन्हें रिझाने और माहौल बनाने की कोशिश में हैं। लेकिन, एक बार फिर यही सवाल सामने आ जाता है कि जब योगी खुद मैदान में नहीं हैं तो दूसरे के लिए वोट मांगने पर उनकी बात का कितना असर होगा।