जुबिली न्यूज डेस्क
बिहार में चुनावी नूरा-कुश्ती जारी है। विधानसभा चुनाव की तिथि की अभी घोषणा नहीं हुई पर चुनाव आयोग ने तय समय पर चुनाव कराने का इशारा दे दिया है। चुनाव करीब आ रहा है तो राजनीतिक दलों की बैचनी भी बढ़ती जा रही है। चुनावी बिसात पर राजनैतिक दल अपनी-अपनी चालें भी चलने लगे हैं।
विधानसभा चुनाव को देखते हुए राजनैतिक दलों द्वारा वोटों की गोलबंदी शुरू कर दी गई है। बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने चुनाव से पहले ‘दलित कार्ड’ खेलने की तैयारी कर ली है। इसके लिए राजद में कई दलित नेताओं को मैदान में उतार दिया है।
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दरअसल राजद ने नीतीश सरकार पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाया है और अपने इस आरोप को सिद्ध करने के लिए तीन वरिष्ठ नेताओं को आगे कर दिया है।
राजद के वरिष्ठ नेता और पूर्व सभापति उदय नारायण चौधरी, पूर्व मंत्री रमई राम और हाल ही में जदयू छोड़कर राजद में शामिल होने वाले श्याम रजक ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर नीतीश सरकार पर दलित विरोधी काम करने का आरोप लगाया है।
राजद का दलित नेताओं को मैदान उतारने का एक बड़ा कारण है जीतनराम मांझी का महागठबंधन से नाता तोडऩा भी है।
प्रेस कांफ्रेंस में उदय नारायण चौधरी ने नीतीश सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार ने छात्रवृत्ति बंद कर दी और साथ ही सभी बैकलॉग पदों को भी इस सरकार ने बंद कर दिया है। वहीं राजद सरकार में मंत्री रहे रमई राम ने कहा कि प्रदेश के दलितों को खेती के लिए जमीन दी गई लेकिन आज तक भी उन्हें जमीन पर कब्जा नहीं मिला है।
श्याम रजक ने नीतीश सरकार में दलितों पर बढ़े अत्याचार का मुद्दा उठाया है और कहा कि साल 2005 में राज्य में अनुसूचित जाति पर अत्याचार 7 फीसदी था, वो आज बढ़कर 17.5 प्रतिशत हो गया है।
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राजद के इस वार का जदयू ने भी पलटवार किया है। जदयू प्रवक्ता संतोष निराला ने कहा है कि राजद के जो दलित नेता नीतीश सरकार पर आरोप लगा रहे हैं, अगर उनमें हिम्मत है तो वह राजद की तरफ से किसी दलित को सीएम पद का उम्मीदवार घोषित कराकर दिखाएं।
वहीं जदयू नेता अशोक चौधरी ने कहा कि नीतीश सरकार ने दलितों के कल्याण के लिए कई अहम काम किए हैं, जिनमें पंचायती राज व्यवस्था में आरक्षण जैसे अहम कदम शामिल है।
बिहार की राजनीति में घमासान चरम पर है। सत्तारूढ दल में जहां चिराग पासवान नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं तो वहीं जीतनराम मांझी ने भी महागठबंधन से किनारा कर लिया है। मांझी का यह कदम महागठबंधन के लिए तगड़ा झटका माना जा रहा है।
मांझी के जाने से दलित वोटों की नुकसान की भरपाई के लिए ही राजद ने नीतीश सरकार को दलितों के मुद्दे पर घेरने की योजना बनाया है।
दरअसल राजद इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के तहत अपने पारंपरिक मतदाताओं यादव और मुस्लिमों के साथ ही दलितों को भी लुभाने का प्रयास कर रही है। यदि राजद ऐसा करने में सफल हो जाती है तो यकीनन इससे एनडीए की मुश्किलें काफी बढ़ सकती हैं।
क्या है दलित वोटों का समीकरण
बिहार में 16 फीसदी आबादी दलितों और महादलितों की है। वहीं मुस्लिम और यादव वोट बैंक बिहार में क्रमश: 16.9 और 14.4 फीसदी है। राजद की कोशिश है कि इन तीनों वोटबैंक को अपने पक्ष में गोलबंद किया जाए।
वहीं ओबीसी वोटबैंक में से 6.4 फीसदी कुशवाहा, 4 फीसदी कुर्मी वोटबैंक पर जदयू की अच्छी पकड़ है। वहीं राज्य के उच्च जाति वोटबैंक जिनमें 4.7 फीसदी भूमिहार, 5.7 फीसदी ब्राह्मण, 5.2 फीसदी राजपूत और 1.5 फीसदी कायस्थ शामिल हैं, इनमें बीजेपी की मजबूत पकड़ है।
ऐसी स्थिति में बिहार में दलितों का वोट किस पार्टी को मिलता है, यह काफी अहम रहेगा। इसी को देखते हुए राजनैतिक पार्टियों की तरफ से दलितों के मुद्दों पर जमकर आरोप -प्रत्यारोप का दौर चल पड़ा है।