रतन मणि लाल
क्या राजनीति के बिना समाज और लोगों के बिना राजनीति की कल्पना की जा सकती है? भले ही राजनीति की दिशा बंद कमरे में बैठ कर कुछ लोग तय करते हैं, लेकिन राजनीतिक व्यक्ति के लिए लोगों के सामने और बीच में जाना, उन्हें इकठ्ठा कर के उनसे बात करना, भाषण देना और वादे करना राजनीतिक सफलता के मूल मन्त्रों में है।
राजनैतिक सभाएं, रैली, बैठक, गोष्ठी आदि सभी देशों में राजनीतिक लोगों के आगे बढ़ने में बड़ी भूमिका निभाते आ रहे हैं और इन सभाओं आदि में लोगों की उपस्थिति किसी भी नेता के लिए उसकी लोकप्रियता या सफलता का पैमाना है।
लेकिन अब तो परिस्थितियां बदल रहीं हैं। लोगों का इकठ्ठा होना और इकठ्ठा होने पर भी एक दूसरे से दूरियां बनाये रखना आने वाले दिनों में जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है। ऐसे में एक राजनीतिक व्यक्ति के लिए लोगों के बीच जाने, भाषण देने और वादे करने की जरुरत का क्या होगा?
ऐसा हो सकता है नजारा
ज़रा कल्पना कीजिये- एक मैदान में सभा करने पर वहां दस हजार लोग इकठ्ठा हो सकते हैं, लेकिन व्यक्तिगत दूरियों के नियमों की वजह से दो व्यक्तियों के बीच पांच या छः फिट की दूरी होनी चाहिए, सभी को मास्क लगाये होना चाहिए और एक दूसरे के संपर्क में आने से या छूने से बचना है। यानी उस मैदान में शायद दो या तीन हजार लोग ही जमा होने चाहिए। क्या किसी राजनीतिक सभा के लिए यह संभव है कि मैदान ठसाठस भरा होने के बजाए खाली- खाली दिखे? और लोग चीखने चिल्लाने या नारे लगाने के बजाए मुंह पर मास्क लगाये केवल सर हिलाते नजर आएं?
यह दृश्य ही अपने- आप में अकल्पनीय और अविश्वनीय लगता है, लेकिन अगर आजकल के हालत ऐसे ही बने रहे तो यही सचाई होगी- और वह भी तब, जब ऐसे कार्यक्रम या सभा करने की अनुमति मिलेगी। वो पहले जैसे रैली, महा रैली, महारैला, अपार जनसमूह, खचाखच भरा मैदान, भयंकर भीड़ आदि जैसे वर्णन भाषा विज्ञान की किताबों में पाए जायेंगे और यदि ऐसा हुआ, तो चुनावी सभाओं, आक्रोश रैली, जन प्रदर्शन, आन्दोलन आदि जैसे आयोजनों का क्या होगा?
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शायद इन्ही संभावनाओं में इस सवाल का जवाब भी मिलेगा। क्योंकि राजनीतिक व्यक्ति के लिए कोई भी समस्या इतनी बड़ी नहीं है जिसका उसके पास इलाज न हो।
रैली तो होगी
आज जब पूरी दुनिया में कोरोना संकट से बचने के लिए देशों में लगाये गए प्रतिबन्ध कब और कितनी जल्दी हटाये जाएं, इस बात पर बहस चल रही है, उस बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि इस साल के अंत में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से सम्बंधित रैलियां तो होंगी, क्योंकि उनके विचार से रैली देश के लिए जरूरी है। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में वे राजनीतिक सभाएं करने की पहल कर सकते हैं।
भारत में अभी इस साल या अगले साल एक या दो राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं। गनीमत है कि लोक सभा चुनाव अभी कुछ साल प्रस्तावित नहीं है। चुनावी राज्यों में वहां के नेताओं के बीच सभाएं करने की चिंता वास्तव में चर्चा का विषय बनी हुई है।
यह बात दूसरी है कि कंप्यूटर टेक्नोलॉजी की मदद से वर्चुअल रैली, या थ्री-डी (त्रि-आयामी) प्रोजेक्शन से रैली आयोजित की जा सकती है, जिसमे भाषण देने वाले व्यक्ति की थ्री- डी छवि किसी जगह पर दिखाई जा सकती है, और लोगों को लगेगा कि उनका लोकप्रिय नेता वास्तव में वहीं उपस्थित है। अभी तक इस तकनीक का प्रयोग कुछ सभाओं में किया भी जा चुका है।
सच तो यह है कि राजनीतिक व्यक्ति के लिए जब तक लोगों की प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं होती, तब तक राजनीति करने का मज़ा नहीं आता। लोगों की भीड़ इकठ्ठा होना, उनका शोर, नारेबाजी और धक्कम-धक्का ही तो राजनीति का असली अर्थ है।
सामाजिक जरूरत
लोगों का आपस में मिलना जुलना एक सामाजिक जरूरत है और लम्बे समय तक ऐसा न होने पर कई तरह की विसंगतियां या व्यवहार-सम्बंधित कठिनाइयां हो सकती हैं। पिछले मार्च से देश- दुनिया का बड़ा हिस्सा अपने घरों में बंद है, और यदि लोगों का काम की वजह से निकलना हो भी रहा है, तो वह केवल जरूरत तक सीमित है।
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परिवारों में, समूहों में, दोस्तों या रिश्तेदारों के बीच तो करीबी आपसी सम्बन्धों की वजह से रिश्ते बने ही रहते हैं, लेकिन राजनीति में तो “आउट ऑफ़ साईट, आउट ऑफ़ माइंड”, यानी, दिखे नहीं तो कोई मतलब नहीं, का सिद्धांत बड़ी क्रूरता से लागू होता है। जो दिखता है, वही मायने रखता है।
ऐसे में किसी बने- बनाये नेता के लिए, या उभरते हुए नेता के लिए तो अपने समर्थकों के बीच बने रहना बड़ा ही जरूरी होता जा रहा है। यही बात लोगों या समर्थकों (चमचों) पर भी लागू होती है। वे यदि लम्बे समय तक अपनी शक्ल नेताजी को न दिखाएँ तो नेताजी भी उन्हें भूल जायेंगे।
यही वे कारण हैं, जिनसे यह लगता है कि रैली या सभा करने का कोई व्यवहारिक विकल्प जल्दी ही निकलेगा। राजनीतिक प्राणियों के लिए यह आवश्यक सेवाओं की श्रेणी में आता है, और किसी भी प्रकार की आपातस्थिति में भी इनको बनाये रखने के रास्ते निकल ही आते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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