सुरेंद्र दुबे
महाराष्ट्र में अजब ड्रामा चल रहा है। पता नहीं चल रहा है कि वहां सरकार बनाने के लिए संघर्ष हो रहा है कि सरकार न बनाने के लिए संघर्ष हो रहा है। एक हफ्ते से ऊपर हो गया है भाजपा और शिवसेना के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। दोनों एक-दूसरे को तलवार से मारना भी नहीं चाहते हैं पर तलवार दिखाने से बाज नहीं आ रहे हैं। जनता एक संस्पेंस थ्रिलर की तरह इस ड्रामें के क्लाइमेक्स का इंतजार कर रही है।
महाराष्ट्र में सतही तौर पर देंखे तो कर्नाटक टाइप राजनैतिक ड्रामा चल रहा है। पर यहां के ड्रामें में एक अंतर है। यहां लगता है कि भाजपा और शिवसेना दोनों खरीद-फरोख्त का बाजार शुरु नहीं कर पा रही है। भाजपा भी कह रही है कि मुख्यमंत्री उसका ही होगा और उसे बड़ी संख्या में निर्दलीयों व अन्य विधायकों का समर्थन प्राप्त है। शिवसेना भी धमकी दे रही है कि मुख्यमंत्री उसका ही बनेगा चाहे जो हो जाए। शिवसेना भी दावा कर रही है कि उसके पास सरकार बनाने के और भी विकल्प मौजूद है। पर दोनों में से कोई भी अपने पत्ते नहीं खोल रहा। लगता है ब्लाइंड गेम चल रहा है। और आया राम, गया राम वाले कलाकार तलाशे नहीं मिल रहे हैं।
खरीद-फरोख्त में माहिर बीजेपी दूसरे दलों के विधायकों को तोड़ नहीं पा रही है। इसलिए गतिरोध बना हुआ है। लगता है कि इनकम टैक्स और ईडी के नाम पर डराकर अपने पाले में लाने का फॉर्मूला भी काम नहीं आ रहा है। वर्ना भाजपा ने अब तक संख्याबल जुटाकर अपना सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया होता।
इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि भाजपा ने आजिज आकर अब राष्ट्रपति शासन लगाने की धमकी देकर दबाव बनाना शुरु कर दिया है। परंतु इस धमकी का भी शिवसेना पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। ऊपर से शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में बीजेपी पर तंज कसते हुए कहा है कि ‘राष्ट्रपति तुम्हारी जेब में है क्या’ कहकर खूब कोसा है। इसका जवाब बीजेपी नहीं दे पा रही है। अन्य कोई भी दल भाजपा के दबाव में टूटता-फूटता नजर नहीं आ रहा है।
इस पोलिटिकल ड्रामें के बीच एनसीपी नेता शरद पवार ने यह कहकर कि जनता ने उन्हें विपक्ष में बैठने का मेंडेड दिया है, भाजपा और शिवसेना दोनों की आशाओं पर तुसारापात कर दिया है। दोनों की आशाएं शरद पवार की पार्टी एनसीपी पर ही टिकी थी। अब जब एनसीपी विपक्ष में बैठने की जिद पर अड़ गई है तो फिर भाजपा और शिवसेना की जिद कैसे पूरी होगी। ये एक लाख टके का सवाल है। पूरे देश में जो राजनैतिक माहौल है उसे देखते हुए एक बात तो कहनी होगी कि महाराष्ट्र के नेता कुछ अलग किस्म के हैं। वर्ना आज के दौर में सत्ता पाने के लिए नेता को किसी भी स्तर पर जाने में कितनी देर लगती है।
ताज्जुब तो इस बात का भी है कि जिस कांग्रेस में नेतृत्व का संकट महीनों से चल रहा है उसके भी विधायक महाराष्ट्र में चट्टान की तरह अपनी पार्टी के साथ खड़े हैं। यह अजीबोगरीब दृश्य लोकतंत्र के जिंदा रहने का सुबूत दे रही है। नहीं तो पिछले कुछ महीनों में गोवा, कर्नाटक, हरियाणा में जिस तरह राजनीति की शुचिता का हरण किया गया उससे तो यही लग रहा था कि देश में लोकतंत्र जैसा कुछ बचा ही नहीं है।
एक और दृश्य भी विचित्र सा है। न राज्यपाल किसी दल को बुला रहे हैं और न ही कोई दल सरकार बनाने का दावा करने के लिए उनके पास पहुंचा है। जब चुनाव परिणाम सौंपे जा चुके हैं तो प्रदेश में एक सरकार का गठन राज्यपाल की भी संवैधानिक जिम्मेदारी है। राज्यपाल खामोश हैं और भाजपा के एक विधायक सुधीर मुनगंटीवार ने राष्ट्रपति शासन लगाने की धमकी देना शुरु कर दिया है।
इससे ऐसा लगता है कि सरकार बनेगी या नहीं इसका निर्णय राजभवन से इतर दिल्ली दरबार से तय होगा। राज्यपाल इक लंबे अरसे से रबर स्टैंप की तरह काम कर रहे हैं। परंतु अब तो ऐसा लगने लग गया है कि रबर स्टैंप भी दूसरे हाथों में है। राज्यपाल की स्थिति हस्तिनापुर के भीष्म पितामह जैसी हो गई है, जिनके सामने राजनैतिक शुचिता कि द्रौपदी रूसवा हो रही है और वह कुछ भी कर पाने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)