जुबिली न्यूज डेस्क
पिछले साल कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए अधिकांश देशों ने तालाबंदी का सहारा लिया था। इस दौरान दुनिया भर से महिला ङ्क्षहसा की खबरें आईं।
तालाबंदी के दौरान सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को हुई। तालाबंदी की वजह से सभी घरों में कैद हो गए। इस दौरान महिलाओं का काम बढ़ गया और घर में बैठे पुरुषों की कुंठा। पुरुषों की कुंठा महिला हिंसा के रूप में सामने आई।
जब दुनिया भर में कोरोना काल में बढ़ रहे घरेलू हिंसा के मामले पर चिंता जतायी जा रही थी तो उसी समय पोलैंड की राजधानी वॉरसॉ में हाईस्कूल में पढऩे वाली 18 साल की क्रिसिया ने इन महिलाओं की मदद के लिए एक अनोखा शुरुआत की।
घरेलू हिंसा के बढ़ते मामलों से चिंतित क्रिसिया ने उनकी मदद की ठानी और इसके लिए उसने एक अनोखी तरकीब निकाला।
क्रिसिया ने एक ऐसी वेबसाइट शुरू की जो देखने में तो प्रसाधन सामग्री या कॉस्मेटिक्स बेचने वाली वेबसाइट लगती है लेकिन असल में यह हिंसा की शिकार महिलाओं को मदद मुहैया करवाती है।
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क्रिसिया को यह आइडिया कहां से मिला पर कहती हैं, “मुझे फ्रांस के उस आइडिया से प्रेरणा मिली जिसके तहत हिंसा की शिकार लोग किसी भी दवा की दुकान पर जा कर 19 नंबर का मास्क मांग कर अपने खिलाफ हो रही हिंसा का संकेत दे सकते हैं”।
तभी उन्होंने तय किया कि पोलैंड में भी कोरोना महामारी के दौरान ऐसे किसी कोड का इस्तेमाल किया जा सकता है।
क्रिसिया ने पिछले साल अप्रैल में रूमीआंकि ई ब्रातकी (कैमोमाइलस एंड पैंसीस) नाम से एक फेसबुक पेज बनाया। इस पेज को देखकर आप चौक जायेंगे।
पेज पर लैवंडर साबुन और फेस मास्क जैसे सामान की तस्वीरे लगी हुई है। यह देखकर एक बार आपको लगेगा कि यह कोई ऑनलाइन दुकान है लेकिन असल में ऐसा नहीं है।
दरअसल स्क्रीन के दूसरी तरफ बिक्री स्टाफ की जगह पोलैंड के एक एनजीओ सेंटर फॉर विमेंस राइट्स के वालंटियर मनोवैज्ञानिकों की एक टीम है।
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क्रिसिया ने कहा, “जब कोई इस पेज के जरिये कोई आर्डर बुक करता है और अपना पता देता है तो वो हमारे लिए एक संकेत होता है कि उसे तुरंत अपने घर पर पुलिस की जरूरत है।”
उन्होंने यह भी कहा कि जो महिलाएं सिर्फ बात करना चाहती हैं वो सौंदर्य प्रसाधनों के बारे में और जानकारी मांगेंगीं। इसके बाद मनोवैज्ञानिक इशारों में कुछ सवाल पूछेंगे, जैसे “आपकी त्वचा पर शराब का क्या असर होता है या क्या बच्चों के लिए भी प्रसाधनों की जरूरत है।”
इस टीम ने अब तक लगभग 350 लोगों की मदद की है और पीडि़ताओं को निशुल्क कानूनी सलाह और कार्य योजनाएं दी हैं।
इस नकली वेबसाइट के माध्यम से मदद मांगने वालों में अधिकांश महिलाएं 30 साल से कम उम्र की होती है। इन महिलाओं के साथ हिंसा करने वाला उनका पार्टनर होता है या कोई रिश्तेदार। इन महिलाओं के साथ हिंसा शारीरिक या मानसिक भी हो सकती है।
क्रिसिया के मुताबिक 10 से 20 प्रतिशत मामलों में ही पुलिस की मदद लेने की जरूरत पड़ी। एक मामले का जिक्र करते हुए क्रिसिया कहती हैं, “मुझे एक युवा लड़की का मामला याद है, जिसमें उसका पार्टनर उस पर हर वक्त निगरानी रखता था। वो हमें तभी लिख पाती थी जब वो अपने बच्चे को नहला रही होती थी।”
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क्रिसिया कहती हैं कि उनकी टीम के हस्तक्षेप की वजह से पुलिस उस महिला के घर गई, उसके पार्टनर को अपनी “चाभियां सौंपने पर मजबूर किया और उसे बताया कि अगर वो लौटा तो उसके क्या परिणाम होंगे। सौभाग्य से उस लड़की के उत्पीडऩ का अंत हो गया।”
तालाबंदी के दौरान घरेलू हिंसा का बढ़ जाना एक बड़ी समस्या रही है। पिछले साल मार्च में लगी पहली तालाबंदी में सेंटर फॉर विमेंस राइट्स ने पाया कि उसकी घरेलू हिंसा हॉटलाइन पर आने वाली फोन कॉल की संख्या 50 प्रतिशत बढ़ गई।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरे यूरोप में ऐसे मामलों में बढ़ोत्तरी के बारे में बताया। क्रिसिया को उनकी कोशिशों के लिए यूरोपीय संघ का सिविल सॉलिडैरिटी पुरस्कार दिया गया, जिसके तहत कोविड के दौरान की गई पहलों के लिए 10,000 यूरो दिए जाते हैं।