जुबिली न्यूज डेस्क
पिछले एक साल से कोरोना वायरस की भयावहता से पूरी दुनिया परेशान है। कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए दुनिया के अधिकांश देशों ने तालाबंदी का सहारा लिया। इस दौरान ऑफिस बाजार और स्कूल-कॉलेज बंद रहे। कुछ देशों में स्कूल खोले गए तो कोरोना के मामले मिलने की वजह से बंद कर दिए गए। भारत में भी ऐसा ही हुआ।
कोरोना महामारी की वजह से अरबों की संख्या में बच्चों के स्कूल नहीं जाने के कारण न केवल उनकी मनोदशा पर कुप्रभाव पड़ा है बल्कि वे पढ़ाई में पिछड़ भी गए हैं।
लेकिन एक कहावत है कि, हर रात के बाद सुबह होती है। कुछ ऐसा ही भारत के पांच राज्यों के दूर-दराज इलाकों में पढ़ रहे आदिवासी और गरीब छात्रों के लिए हुआ है।
मतलब यह है कि आखिर लंबे अंधेरे के बाद (सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का स्तर) यह तालाबंदी उनके लिए वरदान बन गया।
दिल्ली छोड़कर देश के अधिकांश राज्यों में सरकारी स्कूलों की हालत बद से बदतर है। सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले छात्रों के माता-पिता की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं होती है कि वे अपने बच्चों को किसी अच्छे शिक्षक के पास भेज कर पढ़ा सकें।
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इतना ही नहीं सरकारी स्कूलों में तो जब तालाबंदी नहीं था तब भी स्कूलों में आने वाले शिक्षकों की संख्या न के बराबर होती है। आए दिन सरकारी स्कूलों की पढ़ाई-लिखाई से जुड़ा वीडियो वायरल होता है। इस वीडियो से अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्कूलों में पढ़ाई के स्तर क्या है।
पिछले साल मार्च महीने में जब तालाबंदी हुई तो बंगलुरु स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईएसई) में पढ़ा चुके प्रोफेसर राहुल पांडे (वर्तमान में आईआईएम लखनऊ में विजिटिंग प्रोफेसर) ने संस्थान में अपने कुछ प्रोफेसर साथियों के साथ विचार कर फैसला किया कि देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे हमारे साथी प्रोफेसर हों या शिक्षाविद हों या जिन्हें ये विषय पढ़ाने का पैशन हो, वे अपने अपने क्षेत्रों में वहां की स्थानीय भाषा में ये विषय पढ़ाएं।
प्रोफेसर राहुल को ये भलीभांति एहसास है कि अपने देश में सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे साइंस के विषयों जैसे मैथ्स, फिजिक्स, कमेस्ट्री, जुलॉजी-बॉटनी और अंग्रेजी जैसे विषयों में वे बहुत ही कमजोर होते है। इसका कारण हम सभी को पता है।
सरकारी स्कूलों में इन विषयों को पढ़ाने वाले शिक्षक एक तो नियमित रूप से वे अपनी कक्षाओं में आते नहीं हैं और आते भी हैं तो वे अपडेट नहीं होते हैं।
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इसी को ध्यान में रखते हुए प्रोफेसर राहुल पांडे ने बच्चों को पढ़ाने का फैसला किया। दरअसल प्रो. पांडे का मानना है कि यदि आपने एक बार किसी भी छात्र की बुनियाद मजबूत कर दी तो वह आगे का रास्ता खुद-ब-खुद ढूढ़ लेता है।
वह कहते हैं कि हर छात्र के लिए एक अदद शिक्षक की बहुत ही अधिक जरूरत होती है। हम शिक्षक के चुनाव में बहुत अधिक सावधानी बरतते हैं, क्योंकि छात्रों व पढ़ाई के बीच की वही एक सबसे बड़ी कड़ी है।
राहुल पांडे के मुताबिक वर्तमान में वो और उनके साथी पांच राज्यों, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और केरल में ऑन लाइन कक्षाएं चला रहे हैं।
उन्होंने कहा कि स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पढ़ाने का तौर-तरीका वहां पढ़ाने वाले शिक्षक स्वयं तैयार करते हैं। शिक्षक एक ऐसा सिलेबस तैयार करते हैं ताकि बच्चे को पूर्व स्थिति से बेहतर किया जा सके। इसके बाद जब नियमित कक्षाओं में होने वाली परीक्षाओं की भी तैयारी भी वही टीचर करवाता है ताकि छात्र नियमित रूप से अगली कक्षाओं में जाने के लिए परीक्षाएं पास कर सकें।
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वर्तमान में पांचों राज्यों में लगभग 18 शिक्षक ऑनलाइन पढ़ा रहे हैं और इसके अलावा बंगलूरु में एक कक्षा आनलाइन न होकर वहां बकायदा एक शिक्षक सरकारी स्कूल में पढ़ रहे बच्चों के घर के पास ही एक अलग कमरा लेकर पढ़ते हैं।
प्रो. राहुल पांडे के कहा कि हम सभी लोग कक्षाओं का नियमित रूप से मॉनिटरिंग भी करते हैं। यदि किसी प्रकार की कमीबेसी होती है तो उसे दूर करने के लिए स्थानीय शिक्षक व वहां पढ़ रहे बच्चों के साथ विचार कर सुलझाने की कोशिश की जाती है।
गरीब बच्चे कैसे ऑनलाइन पढ़ाई करेंगे के सवाल पर वह कहते हैं कि हर किसी के जेहन में यह बात आती है कि गरीब आदमी के पास दो जून की रोटी का बंदोबस्त कर पाना मुश्किल है तो वह स्मार्ट फोन या लैपटॉप कहां से लायेगा। हमारे भी जेहन में यह बात आई। इसके लिए हमने यह तरकीब निकाली है।
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वह कहते हैं कि काफी सोच विचार के बाद यह बात भी सामने आई है कि अब तक देश में जहां कहीं भी ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है और यहां हमें यह भी देखना होगा ये ऑनलाइन पढ़ाई अधिकांत: निजी स्कूलों में ही संभव हो पा रही है।
प्रो. राहुल कहते हैं कि हमने इसका आंकलन किया तो पाया कि लैपटॉप या फोन के सामने बैठकर पढऩे वाले बच्चों की स्थित वन-वे जैसी है। टीचर बोलता जा रहा है और दूसरी ओर स्टूडेंट बस उसकी बात सुन रहे हैं। छात्र अपनी ओर से किसी प्रकार की बहुत अधिक एक्टीविटी नहीं कर रहे हैं।
वह कहते हैं कि ऐसे में हमने जिस भी राज्य के जिस टीचर ने पढ़ाने की रूचि दिखाई तो हमने उस इलाकों में काम कर रहे एनजीओ के साथ संपर्क किया और उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी की आप अपने इलाके के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे स्टूडेंट्स को एकत्रित कर एक कमरे बैठाएं और वहां पर एक छोटा प्रोजेक्टर लगाने की व्यवस्था की ताकि स्टूडेंट को आसानी से टीचर के साथ-साथ उसके द्वारा लिखे जाने वाले शब्द भी आसानी से दिखाई दें।
प्रो. राहुल कहते हैं कि हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है कि स्टूडेंट्स को सिखाने की क्वालिटी उच्च स्तर पर हो। इस प्रकार की कक्षाओं में केवल सरकारी स्कूल में पढऩे वाले छात्र ही नहीं शामिल हें बल्कि ड्रापआउट हो चुके बच्चों से लेकर पलायन करने वाले माता-पिता के बच्चे आदि भी शामिल हैं। (साभार: डाउन टू अर्थ )
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