Tuesday - 29 October 2024 - 11:00 AM

कितनी सशक्त हुईं महिलाएं

प्रीति सिंह

“लोगों को जगाने के लिये”, महिलाओं का जागृत होना जरुरी है। एक बार जब वो अपना कदम उठा लेती है, परिवार आगे बढ़ता है, गांव आगे बढ़ता है और राष्ट्र विकास की ओर उन्मुख होता है।

यह वाक्य पंडित जवाहर लाल नेहरू के हैं। उन्होंने एक भाषण के दौरान यह बातें कही थी। नेहरू के बाद देश में कितने प्रधानमंत्री आए और गए, लेकिन इस वाक्य का भाव नहीं बदला। आज भी महिला को जागृत करने की बात, सशक्त बनाने की बात चल रही है। भाव वही है, बस शब्दों का हेर-फेर है।

1947 में भारत आजाद हुआ और इतने समय बाद भी महिला सशक्तिकरण की बात की जाती है। महिलाओं के हक की लड़ाई लड़ी जाती है। भारत अब विकसित देशों की श्रेणी में आ गया है, लेकिन भारत की महिलाएं कितनी विकसित हुई हैं इसका अंदाजा हर साल राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के जारी होने वाले आंकड़ों से समझा जा सकता है।

हर छह घंटे में एक महिला का होता है बलात्कार

सात साल पहले दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया कांड ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। चलती बस में लड़की के साथ जिस तरह से दंरिदगी की गई थी, सुनकर लोगों के रोंगटे खड़े हो गए थे। निर्भया इस दुनिया से चली गई लेकिन एक उम्मीद जगी कि अब इस देश में कोई और बेटी निर्भया नहीं बनेगी। लेकिन हम गलत साबित हुए। निर्भया के कातिल इस देश के लचर कानून का फायदा उठाकर अभी भी जिंदा है और इन सात सालों में हजारों निर्भया ऐसे दरिंदों की शिकार हुई।

पिछले साल दिसंबर में हैदराबाद और उन्नाव में जिस तरह लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया और फिर उन्हें मार दिया गया, ऐसी घटनाएं अब आए दिन सुनाई दे रही है। इसी हफ्ते असम में एक 11 साल की बच्ची के साथ सात लड़कों ने बलात्कार कर उसे मार डाला और फिर उसे फंदे से लटका दिया। ये दो-चार घटनाएं एक बानगी है। यदि हम आंकड़ों को देखे तो देश में महिलाओं की स्थिति को समझ सकते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2010 के बाद से महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 7.5 फीसदी वृद्धि हुई है। साल 2012 के दौरान देश में 24,923 मामले दर्ज हुए, जो 2013 में बढ़कर 33,707 हो गए। बलात्कार पीडि़तों में में ज्यादातर की उम्र 18 से 30 साल के बीच थी। हर तीसरे बलात्कार पीडि़ता की उम्र 18 साल से कम रही। वहीं, 10 में एक पीडि़त की उम्र 14 साल से भी कम है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर छह घंटे में एक लड़की का बलात्कार होता है।

Gang-rape-India

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक साल 2017 में 50 लाख 07 हजार 44 अपराध के मामले दर्ज किए गए, जिनमें से तीन लाख 59 हजार 849 मामले महिलाओं के खिलाफ अपराध संबंधी हैं। साल 2015 में महिलाओं के प्रति अपराध के तीन लाख 29 हजार 243 मामले दर्ज किए गए। 2016 में इस आंकड़े में नौ हजार 711 मामलों की बढ़ोतरी हुई और तीन लाख 38 हजार 954 मामले दर्ज किए गए। वहीं साल 2017 में ऐसे 20 हजार 895 मामले और बढ़ गए और इस साल तीन लाख 59 हजार 849 मामले दर्ज किए।

भारत में सौ में केवल 24 हैं कामकाजी महिलाएं

देश में महिला श्रम की भागीदारी पर अक्सर बहस होती है। बार-बार इसकी कवायद की जाती है कि महिला श्रम की भागीदारी बढ़ाई जाए, पर ऐसा होता दिख नहीं रहा है। जनवरी माह में आई वर्ल्ड इकोनामिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट-2020 में भारत 4 स्थान नीचे खिसककर अब 153 देशों की सूची में 112 में नंबर पर है। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश (50), नेपाल (101) और श्रीलंका (102) से भी नीचे है।

इस रिपोर्ट में सबसे मजेदार बात यह है कि 153 देशों में भारत इकलौता ऐसा देश है जहां राजनैतिक लिंग अंतर की तुलना में आर्थिक लिंग अंतर ज्यादा है। महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी घटा है। संसद में इस समय केवल 14.4 प्रतिशत महिलाएं हैं और इस इंडेक्स में भारत का 122 वां और 23 प्रतिशत कैबिनेट मंत्रियों के साथ दुनिया में 69वां स्थान है।

वहीं कामकाजी महिलाओं का अनुपात देखते तो भारत में 82 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में केवल 24 प्रतिशत महिलाएं ही कामकाजी हैं। 14 प्रतिशत महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिकाओं में हैं और भारत का इस इंडेक्स में 136 वां स्थान है। स्वास्थ्य और जीवन रक्षा इंडेक्स में भारत 150 वें नंबर पर है।

देश की कामकाजी महिलाओं के अनुपात के बारे में विश्व बैंक द्वारा पेश आंकड़े इससे भी अधिक हतोत्साहित करने वाले हैं। वर्ल्ड बैंक की 2017 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीन और ब्राजील में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत 65 से 70 है। वहीं भारत में महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर(FLFPR) के मामले में भारत से नीचे केवल मिस्र, मोरक्को, सोमालिया, ईरान, अल्जीरिया, जॉर्डन, इराक, सीरिया और यमन जैसे नौ देश हैं।

एनएसएसओ द्वारा प्रकाशित आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) ने 2017-18 में श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी केवल 23.3 प्रतिशत दिखाई गई है, जो बहुत ही निराशाजनक है। इससे साफ है कि 15 वर्ष की आयु से ऊपर की चार में से तीन महिलाएं काम नहीं कर रही हैं और न ही काम की खोज रही हैं।

भारत में शहरी महिलाओं के लिए महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर काफी हद तक स्थिर रही है। 2011-12 में 20.5 प्रतिशत से 2017-18 में ये मामूली रूप से घटकर 20.4 प्रतिशत रही है। इसी अवधि में ग्रामीण महिलाओं के लिए कार्यबल की भागीदारी दर 35.8 प्रतिशत से गिरकर 24.6 प्रतिशत हो गई, जो विशेष चिंता का विषय है। 2004-05 में शहरी और ग्रामीण महिलाओं के लिए दर्ज FLFPR  क्रमश: 24.4 प्रतिशत और 49.4 प्रतिशत थी। इससे साफ है कि भारत में महिलाओं के आर्थिक क्षमता और हैसियत पिछले 15 सालों में लगातार घटती रही है।

मैक्किंसे ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अनुसार भारत अपने कार्यबल में लिंग समानता को या महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर (FLFPR)  को अगर 10 प्रतिशत और बढ़ा लेता है, तो भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को 2025 तक 700 अरब डॉलर या 1.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष तक बढ़ा सकता है।

महिला सशक्तिकरण की योजनाएं

महिलाओं को सशक्त करने के लिए केंद्र सरकार कई योजनाएं संचालित कर रही है। यदि ईमानदारी से ये योजनाएं संचालित की जाए तो निश्चित ही भारत की महिलाएं सशक्त हो जायेंगी। सरकार द्वारा जो योजनाएं चलाई जा रही है उनमें बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम, किशोरियों के सशक्तिकरण के लिए राजीव गांधी योजना (सबला), इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना, कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना, प्रधानमन्त्री उज्ज्वला योजना, स्वाधार घर योजना, महिलाओं के लिए प्रशिक्षण और रोजगार कार्यक्रम, महिला ई-हाट, वन स्टाप सेंटर स्कीम, वूमेन हेल्पलाइन स्कीम, वर्किंग वूमेन हॉस्टल, नारी शक्ति पुरस्कार, महिला पुलिस वेलेन्ट्री, राज्य महिला सम्मान व जिला महिला सम्मान, महिला शक्ति केंद्र और निर्भया सहित कई योजनाएं शामिल हैं। इन योजनाओं के माध्यम से सरकार महिलाओं को स्वावलंबी बनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन इसका बहुत असर अभी दिखाई नहीं दे रहा है।

क्या है वजह

महिलाओं के सशक्तीकरण की चाहें जितनी बातें की जाएं लेकिन हकीकत यही है कि उनके साथ दोयम दर्जे का बर्ताव जारी हैर्। पुरुषों के मुकाबले महिलाएं न सिर्फ रोजगार के मामले में पीछे हैं बल्कि वेतनमान में भी भेदभाव की शिकार हैं। श्रम बाजार में महिलाओं को शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में कम दर पर पारिश्रमिक मिलता है। नौकरीपेशा महिलाओं के लिए भारत में अनुकूल परिस्थितियां एक अपरिहार्य जरूरत है, लेकिन भारत में जिस तरह से कई दूसरे क्षेत्रों में भी महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं, उसे देखते हुए यह जल्द होना संभव नहीं लगता।

नौकरी पेशा महिलाओं के लिए परिस्थितियों के इस कदर चिंताजनक होने के पीछे जानकारों को कई सारी वजहें दिखती हैं। जानकारों के मुताबिक कार्य क्षेत्र से महिलाओं की इस गिरती दर के लिए उनकी पारिवारिक परिस्थितियां सबसे ज्यादा जिम्मेदार मानी जा सकती हैं, क्योंकि अक्सर यह देखा जाता है कि बच्चों की परवरिश, पारिवारिक दबाव और सामाजिक नियम कायदों की मजबूरी के चलते महिलाएं अच्छे खासे पदों पर रहने के बावजूद नौकरी छोड़ देती हैं। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्ता परक शिक्षा की कमी के चलते भी कई महिलाएं सीमित दायरे वाली नौकरियां ही कर पाती हैं, जिनमें तरक्की के बहुत कम मौके होते हैं और उनके पद भी स्थायी नहीं होते। इस वजह से कई महिलाएं कुछ साल ही ठीक से नौकरी कर पाती हैं और फिर उन्हें घर बैठ जाना पड़ता है।

समाजशास्त्री डॉ. अनुपमा सिंह कहती है कि भारत में महिला सशक्तिकरण इतना आसान नहीं है। महिलाओं के समक्ष चुनौतियों की लंबी फेहरिस्त है। इससे निपटना आसान नहीं है। महिलाएं तभी सशक्त कही जायेंगी तब वह शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से मजबूत होंगी और भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाज समाज में यह आसान नहीं है।

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