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गांधी के बारे में अमित शाह और अरुंधति राय के विचार कितने मिलते हैं न !

देवेन्द्र आर्य

गांधी इस देश में सबसे मुलायम लक्ष्य हैं (सॉफ्ट टारगेट)। इतिहास की बात जाने दें तो अभी हाल में गांधी के तीन नए आलोचक उभरे हैं – एक पूर्वन्यायाधीश, एक भगवा साध्वी और एक लेखिका। काटजू साहब ने फिलहाल अपनी कोई वैचारिकी घोषित नहीं की है। परन्तु साध्वी और अरुंधती राय की वैचारिक प्रतिबद्धता न केवल स्पष्ट है बल्कि परस्पर विरोधी भी।

गांधी इसके पहले एक साथ साम्प्रदायिक शक्तियों और वामपन्थियों के निशाने पर रहे हैं।अम्बेडकर, सुभाष, भगत सिंह, जिन्ना के भी निशाने पर रहे हैं। देश के बाहर भी वे उपनिवेशवादी, साम्राज्यवादी शक्तियों-सत्ताओं के निशाने पर रहे हैं। आश्चर्य है कि गोली मार देने और बार-बार तर्पण करने के बाद भी वे जनमानस में बचे हुए हैं। आखिर कैसे? आखिर क्यों?

ताजा सन्दर्भ बुकर सम्मान प्राप्त अंग्रेजी की लेखिका अरुंधती राय द्वारा गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के उद्घाटन पर दिया गया बयान है कि गांधी देश के पहले कारपोरेट एन.जी.ओ. थे। यानी गांधी पूंजीपतियों के प्रतिनिधि थे।

सात्र के लिए नोबल पुरस्कार आलू का बोरा रहा होगा, अरुंधती के लिए नहीं है। पचास हजार पाउण्ड के बुकर पुरस्कार से प्रतिष्ठित अरुंधती जी इतना तो स्वीकार करेंगी ही कि बुकर पुरस्कार किसी धर्मनिरपेक्ष, जनवादी, प्रगतिशील व्यक्ति या संस्था द्वारा दिया जाने वाला पुरस्कार नहीं है जिसका उद्देश्य शोषित-पीडि़त जनता के आर्थिक-सामाजिक संघर्ष में शिरकत करना हो।

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समझ पाना कठिन है कि कारपोरेट एजेण्ट, पूंजीपतियों के दलाल, साम्राज्यवादी ताकतों के हाथ का खिलौना, गांधी को इनके सबसे बड़े पुरस्कार ‘नोबलÓ के योग्य आज तक क्यों नहीं समझा गया, मलाला से लगायत ओबामा तक नोबल के योग्य हैं, गांधी नहीं। गांधी इन्हीं शोषक शक्तियों के अपुरस्कृत एजेण्ट हैं, बिना सम्मान, पुरस्कार और अनुदान के।

गांधी दिखते क्या हैं, और भीतर से क्या हैं, यह गुत्थी सुलझती ही नही है। वे बार-बार विवादास्पद हो जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी देन, व्यक्तिगत जीवन की पारदर्शिता और अहिंसा को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की तकनीकी विकसित करने की रही है।

अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’  में उन्होंने मरणासन्न पिता को नजर अन्दाज कर कामांध गांधी का पत्नी के कमरे  में होने का वर्णन किया है। कितने सेलीब्रिटीजों का जीवन इतना पारदर्शी है? कम से कम हिन्दुस्तान में। जैसे धर्म का अफीम निरीह व्यक्ति की आत्मा का संबल है वैसे ही अहिंसा आम आदमी का संबल है। सुरक्षा-शस्त्र है।

पीड़ित-प्रताड़ित होकर भी जीवन से विमुख न होने देने में ये दोनों आमजन को सहारा देते हैं। केन्द्रित होती जा रही आर्थिक शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की थीसिस गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’  में दी है। जिन 20 प्रतिशत कारपोरेट लोगों के हाथों में 80 प्रतिशत समान्य जन की आर्थिक आजादी गिरवी है, उनसे मुक्त होने की राह ग्राम स्वराज के रूप में गांधी ने दिखाई थी जिसे ‘जंगल में वापसी’  प्रचारित किया गया। कारपोरेट के विरुद्ध कुटीर उद्योग का हथियार खड़ा करके भी गांधी कारपोरेट के एजेण्ट ही माने जा रहे हैं।

अरुंधती द्वारा गांधी के सन्दर्भ में ‘कारपोरेट’ और ‘बनिया, इन दो शब्दों का पर्यायवाची के रूप में एक साथ प्रयोग करने का निहितार्थ क्या है, खासकर तब जब गांधी जाति से बनिया थे। अंग्रेजी का नहीं मालूम, मगर हिन्दी पट्टी में बनिया के लिए एक लोकगीत है–‘हमके सज्जो चीज बनियवा हंसि हंसि बेसी तउले ला।’ 

लोक में बनिया परचूनिए के अर्थ में प्रचारित है, उद्योगपति के रूप में नहीं। कारपोरेट को बनिया में रिड्यूस करना ताकि बनिया जाति चमकदार रूप से घृणित साबित हो सके, कहाँ की समझदारी है। समकालीन आर्थिक-सामाजिक खतरों के मूल्यांकन के क्रम में कारपोरेट और जाति (बनिया,अर्थ विस्तार के साथ सवर्ण) के गठबन्धन की चर्चा लेखिका ने की है।

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‘जाति’  का प्रत्यय दो तीन दशक पहले तक वामपन्थ के लिए, वर्ग संघर्ष के लिए एक भटकाव का फैक्टर था। गांधी की निगाह में अम्बेडकर स्वतन्त्रता संग्राम को तोडऩे के लिए जितने दोषी थे, उतने ही दोषी वामपन्थियों के लिए भी, वर्ग-संघर्ष को नुकसान पहुँचाने की समझ के कारण थे। परन्तु यह पहले की बात है। वैसे ही जैसे ज्योति बसु को प्रधानमन्त्री बनने की हरी झण्डी न दिखाने का निर्णय पहले की बात है। अभी की बात यह है कि वामपन्थ के लिए कारपोरेट और जाति का गठजोड़ महत्त्वपूर्ण हो गया है।

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मनुस्मृति की स्थापनाओं के समर्थक परन्तु अंग्रेजों और मैकाले की शिक्षा नीति के विरोधी गांधी, वामपन्थ के लिए कारपोरेट एजेण्ट हैं। मनुस्मृति के विरोधी परन्तु अंग्रेजों के आगमन और मैकाले की शिक्षा नीति को वरदान मानने वाले दलित चिन्तकों को वामपन्थी देशप्रेमी-हमसफर मानते हैं।

वामपन्थ की एक स्वीकारोक्ति यह भी है कि गांधी की स्वतन्त्रता संग्राम में जनसामान्य को भागीदार बनाने में महती भूमिका रही है। यानी उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद के विरुद्ध उन्होंने स्वयं संघर्ष किया और जनता को भी गोलबन्द किया। अब वही गांधी इनके एजेण्ट भी हैं, यह कैसे? पूछा जा सकता है कि क्या यह सम्भव नहीं कि दुनिया में लगातार बढ़ रही हिंसा, असहिष्णुता, पर्यावरणीय

चेतावनियों और औद्योगिक केन्द्रीकरण के विरुद्ध अहिंसा, प्रेम, प्रकृति संवर्धन तथा विनिर्माण विकेन्द्रण की गांधी की थीसिस को वैचारिक रूप से भोथरा और अविश्वसनीय बनाने के षड्यन्त्र में कहीं काटजू, साध्वी और अरुंधती जैसे लोग जाने या अनजाने स्वयं एजेण्ट के रूप में तो काम नहीं कर रहे हैं?

क्या क्या न हुआ देश में गांधी तेरे रहते
क्या होता अगर देश में गांधी नहीं रहते।

सार्वकालिक और महादेशीय मेधाओं पर हड़बड़ी में दो टूक बयान देना अधैर्य का ही सूचक है। गांधी हों या मार्क्स या अम्बेडकर इन्हें बार-बार पड़के समझने, व्याख्यायित करने तथा इनकी शिक्षाओं से अपना मार्ग प्रशस्त करने की जरूरत है। आज जब मुख्य खतरा विकास के नाम पर साम्प्रदायिक शक्तियों की पुर्नस्थापना और पूंजी संकेन्द्रण के गठजोड़ का है, साम्प्रदायिकता के विरुद्ध अपनी जान गंवाने वाले और देशी सामर्थ्य के आधार पर लम्बवत की जगह क्षैतिज विकास के प्रवक्ता गांधी को विवादास्पद बनाना, संघर्ष की सम्भावनाओं को दिग्भ्रमित करना है। जनता की दुश्मन ताकतों का हाथ मजबूत करना है।

एक अच्छा निर्णय काफी दिनों बाद वामपन्थियों ने दिल्ली चुनाव में ‘आप’ का समर्थन करके लिया था। इस एकजुटता की प्रासंगिकता अभी खत्म नहीं हुई है। अन्यथा तो भगत सिंह पर भी भगवावादियों ने कब्जा जमाना शुरू ही कर दिया है। तब ऐसे में आपके आईकॉन क्या रह जायेंगे?

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