Monday - 28 October 2024 - 10:15 AM

खुल गए कितने राज़, भला हो चुनाव प्रचार का

रतन मणि लाल

आज से दो महीने पहले शुरू हुआ आम चुनाव का चक्र अब अपने अंतिम दौर में है। चुनाव आयोग ने जब 10 मार्च को मतदान की तिथियाँ और परिणाम की तिथि की घोषणा की थी, तब यह अंदाज़ तो लग गया था कि इस बार चुनावी प्रचार का मौसम कुछ लम्बा चलेगा। फिर शुरू हुआ भीषण प्रचार, और आई भीषण गर्मी।

आज, जब नतीजे आने में दो हफ्ते से भी कम का समय बचा है, कभी- कभी लगता है कि कितना कुछ हमारे नेता एक दूसरे के बारे में कहना चाहते थे, बताना चाहते थे, जो पिछले इतने सालों में नहीं कह पाए थे। लेकिन चुनाव प्रचार ने उन्हें ये मौका दे दिया कि वे अपने दिलों में कैद प्रेम, आदर, निरादर और अपेक्षाओं की भावनाओं की अभिव्यक्ति करें, जिनसे उन्हें प्रचार के मौसम में लाभ हो सके, और उनके विरोधियों को नुकसान पहुंचे।

किसे मालूम था कि धुर विरोधी समझे जाने वाले उत्तर प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री एक दूसरे का इतना आदर करते थे, उनके दिलों में एक दूसरे के प्रति इतना सम्मान था और एक दूसरे का समर्थन करने के लिए कितना तैयार थे। यही नहीं, एक तीसरे मुख्यमंत्री के मन में अपने विरोधी दल की नेता को प्रधानमंत्री बनाने की इतनी तीव्र इच्छा दबी हुई थी।

शीर्ष पद के दावेदार राष्ट्रीय स्तर के नेता तो और भी राज़ अपने दिलों में छिपाए हुए थे। किसी के कपड़ों के बारे में, किसी की जाति के बारे में, किसी के चरित्र के बारे में, किसी के मनोरंजन की आदतों के बारे में और न जाने क्या क्या देश की जनता को इस प्रचार के नाते पता चल गया। न होता चुनाव तो इतनी गंभीर, देश- हित की बातें अनजानी, अबूझी ही रह जातीं।

विरोधी दलों की महिलाओं के बारे में, बीते समय में उनके काम और अनुभव के बारे में, उनकी अनजानी उपलब्धियों के बारे में बताने में भी कई नेता पीछे नहीं रहे। वर्ग और सम्प्रदाय के बारे में तो इतना कुछ कहा गया कि कुछ नेताओं को कुछ समय तक चुप रहने तक को कहना पड़ गया।

लेकिन अभी बहुत कुछ ऐसा है जो शायद हम नहीं जानते हैं। चुनाव प्रचार का चक्र अभी एक हफ्ते और चलना है, 12 और 19 मई को दो अंतिम चक्रों में मतदान होना है। फिर 23 मई का इन्तजार होना है। भले ही चुनाव के लिए प्रचार 17 मई को समाप्त हो जायेगा, लेकिन राजनीतिक बढ़त हासिल करने की मुहीम उसके कहीं आगे तक चलती रहेगी। अगर परिणाम निर्णायक नहीं आते हैं, तो 23 के बाद तो राज़ खोलने का नया दौर भी शुरू हो सकता है।

याद आता है 2016 में अमेरिका में राष्ट्रपति के लिए चुनाव हो रहे थे और प्रचार के दौरान एक पक्ष की प्रत्याशी डेमोक्रेटिक पार्टी की हिलेरी क्लिंटन के विरुद्ध कई प्रकार के आरोप लगे, झूठी ख़बरों का जाल बिछाया गया और यहाँ तक कहा गया कि इन कोशिशों के पीछे रूस का हाथ था।

हालाँकि इस आरोप की जांच हुई, लेकिन उसकी रिपोर्ट में भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा गया है। अब रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति हैं और ऐसा सुनने में आता है कि घटती लोकप्रियता के बावजूद वे 2020 में दोबारा चुनाव लड़ सकते हैं और कई अमेरिका वासियों का मानना है कि वे शायद जीत भी जाएं। लेकिन और कुछ हुआ हो या नहीं, प्रचार के दौरान क्या- क्या हो सकता है उसके अनजाने आयाम लोगों के सामने तो आये।

यह अलग बात है कि अमेरिका के विपरीत, हमारे देश में राष्ट्रपति पद्धति के अनुसार चुनाव नहीं होते और आम लोग अपने स्थानीय प्रतिनिधि चुनते हैं, जो अपने दल की प्रतिबद्धता के हिसाब से अपना नेता चुनते हैं, और बहुमत वाले दल को सरकार बनाने का मौका मिलता है। लेकिन अंततः किन्ही दो पक्षों के बीच ही चुनना पड़ता है, इसलिए शुरू से ही सभी दल किसी एक चेहरे को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सामने रख कर चुनाव प्रचार करते हैं। लेकिन उन दो पक्षों के नेताओं के ऊपर आरोप लगाने का फायदा या नुक्सान तो होता ही है।

अमेरिका या अन्य देशों में पिछले कुछ वर्षों में हुए चुनावों से क्या यह माना जाए कि प्रचार के दौरान कही गई बातें, आरोप और वादे- दावे गंभीरता से नहीं लिए जाते? यदि भारत की विशिष्ट परिस्थितियों की बात करें, तो क्या लोग समझते हैं कि हर व्यक्ति के पास बिना कुछ किये कुछ रूपए आ जाने से लोगों का जीवन सुधर जायेगा? क्या वे अभी तक न मिल पाए किसी न्याय के इंतज़ार में हैं?

क्या उन्हें एक मजबूत नेता ज्यादा पसंद है? क्या वे मानते हैं कि पड़ोसी देश के रुख और खतरे से निपटने के लिए आक्रामकता बेहतर विकल्प है? क्या वे ऐसी परिस्थिति को पसंद करेंगे जिसमे कोई पूर्व-निर्धारित नेता घोषित नहीं है?

और अंत में फिर वही सवाल जो पिछले कई चुनावों से अनुत्तरित रहा जा रहा है – क्या रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के संघर्ष से जुड़ी समस्याओं का हल चुनावी मुद्दा नहीं बनता ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि लोग चुनाव प्रचार के दौरान कही बातों को अपने सामान्य ज्ञानवर्धन या मनोरंजन के तौर पर ही लेते हैं और चुनाव ख़त्म हो जाने पर फिर अपनी ज़िन्दगी और संघर्षों में लौट जाते हैं- यह मान कर कि चुनावी राजनीति और बेहतर ज़िन्दगी के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है ?

Radio_Prabhat
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