केपी सिंह
यह संयोग है कि कोरोना के दौर ने दुनिया के सभी बड़े धार्मिक पर्वो को समेटा है जिनमें हिन्दुओं की नवरात्रि और रामनवमी, ईसाइयों का ईस्टर, मुसलमानों का रमजान और बौद्धों की बुद्ध जयंती है जो 7 मई को आने वाली है। इन सारे पर्वो में एक जैसी विशेषताऐं हैं।
अलग-अलग धर्म के मानने वाले अपने पर्व के समय व्रत रखते हैं, विलासी भावनाओं के प्रति आकर्षण से परहेज दर्शाते हैं, मनसा-वाचा-कर्मणा पवित्र होने के लिए तमाम संयम ओढ़ते हैं और आराधना में लीन होने के माध्यम से समाधि में रहने का अभ्यास ज्यादा से ज्यादा बढ़ाते हैं।
जो लोग अध्यात्म को सायास न मानकर मानव चेतना के अन्य नैसर्गिक स्वभावों की तरह मौलिक भावना मानते हैं उन्हें कोरोना के पीछे की प्रेरणा को समझने के लिए इस संयोग को संज्ञान में लेना चाहिए जिसके बिना लाॅकडाउन की इतनी मुद्दत गुजर जाने के बावजूद लोगों का उद्धार नहीं हो पा रहा है।
इसका संबंध उन दायित्वों से है जिनके निर्वाह के लिए मनुष्य जन्म लेते ही बंध जाता है। अध्यात्म की अमूर्तता का प्रकटन इसी में होता है।
पहला दायित्व है-दिनचर्या के अनुशासन का-समय से जागना, नित्य क्रिया और स्नान व ध्यान जिसमें शामिल है। विधिवत दिन की शुरूआत के पहले ध्यान अनिवार्य है जिसका नास्तिकता और आस्तिकता के द्वंद से कोई लेना देना नहीं है।
इसके पीछे विज्ञान है कुछ देर के लिए समाधिस्थ होकर सारी क्रियाओं को रोक लेने और शून्य में जा टिकने से भौतिक जगत और मनोजगत की सारी क्षमतायें रीचार्ज हो जाती हैं। इसलिए चाहे भक्ति भावना के अंतर्गत करें या वैज्ञानिक वाध्यता समझकर ध्यान अथवा समाधि प्रतिदिन अनिवार्य है।
एक और दायित्व है-वृक्ष और पशु सेवा का। मनुष्य सृष्टि का सबसे क्षमतावान और सशक्त जीव है इसलिए उस पर प्रकृति का कर्ज है कि वह कमजोर जीवों के सरंक्षण के अपने कर्तव्य को लेकर सचेत रहे। भारतीय संस्कृति में पीपल, बरगद, आंवला आदि वृक्षों को पवित्र की कोटि में रखा गया है। तमाम पर्व इससे जोड़े गये हैं। पवित्र वृक्ष ही नहीं धतूरा आदि खरपतवार के लिए भी भारतीय संस्कृति में कोमल कोना है। शिवरात्रि का पर्व आता है तो धतूरे की भी तलाश भक्तों को करनी पड़ती है।
आज भी पवित्र वृक्षों की पूजा का महत्व कम नहीं हुआ लेकिन ये वृक्ष दुर्लभ होते जा रहे हैं। अपने आप नहीं मनुष्य की करनी के कारण फिर भी आस्थावान जनता तक विचलित नहीं है यह आश्चर्य का विषय है। शहर में लोगों के पास खुद की जगह नहीं है जहां वे वृक्षारोपण कर सकें लेकिन इस बहाने से उन्हें वृक्षों के रखरखाव में समय देने से निजात नहीं मिल सकती।
जिनके पास अपनी जगह है वे कम से कम इन पवित्र वृक्षों का रोपण तो वहां करा ही सकते हैं जिनके पास जगह नहीं है वे वृक्षारोपण के सीजन में सरकारी जमीन पर संबंधित विभाग को इसके लिए प्रेरित करें और इसके बाद वहां प्रतिदिन लगाये गये पौधे को सींचने और उसकी सुरक्षा, खाद देने का जिम्मा अपने सिर लें।
यह तो न्यूनतम है जो हर व्यक्ति को करना ही चाहिए। इस प्रक्रिया में लोगों का वृक्ष प्रेम बढ़ता है और वे व्यापक पौध रोपण व वृक्षों के संरक्षण से अपने को जोड़ते हैं तो सोने पे सुहागा होगा। पुण्यमय परिवेश के निर्माण में इससे बड़ी मदद मिल सकती है साथ ही ऐसा परिवेश निरोगी काया की भी गारंटी होगा।
भारतीय संस्कृति में वेदों को बहुत पुरातन माना गया है। इनके सार रूप में ईश्वर को पहचानने की सबसे आसान और प्रथम सीढ़ी के बतौर कृतज्ञता की भावना को रूपायित किया गया है। प्रकृति की जिन शक्तियों से उसका जीवन प्रवाह जुड़ा है उन सभी को ईश्वर रूप देकर पूजना इसमें निहित है।
वृक्षों के साथ-साथ नदियों की प्रार्थनायें भी वेदों में हैं। धर्म से जिनको अंधविश्वासी बनने का खतरा महसूस होता है वे इस आवरण को हटाकर इन प्रथाओं के बारे में विचार कर सकते हैं। नदियों की स्वच्छता की रखवाली के दायित्व से भी व्यक्ति बंधे हुए हैं और अगर उन्हें जीवन से खिलवाड़ नहीं होने देना है तो इस कर्तव्य के लिए भी उन्हें समय देना पड़ेगा।
भारतीय संस्कृति में गो पूजा का विधान पशु सेवा के फर्ज को पूरा करने के लिए सर्वोत्कृष्ट तरीके के रूप में शामिल किया गया है। देशी गाय के दूध में संतुलित वसा होता है इसलिए आहार की पूर्ति हेतु तो वह सर्वोत्तम है। इस लाभ के अलावा भी देशी गाय की कई विशेषतायें हैं। उसका मूत्र अपने आप में सेनिटाइजर है-सबसे प्रभावी सेनिटाइजर। गोबर भी जो विषैले कीटाणुओं का अंत करता है जिसकी वजह से कच्चे घर इससे लीपकर शारीरिक व्याधियों से सुरक्षित किये जाते थे।
लेकिन हर कोई गाय नहीं पाल सकता। अपनी गाय नहीं है तो आसपास जहां गाय दिखे रोटी खिलाने के लिए उसके पास जायें और उसे दुलरायें। उच्च रक्तचाप सहित कई व्याधियों के निदान में इसका लाभ प्रमाणित किया जा चुका है। जिन्हें गो भक्ति से अपना मजहब खराब हो जाने का अंदेशा हो वे बकरी या दूसरा जानवर पालकर पशु सेवा का फर्ज पूरा कर सकते हैं लेकिन लाखों रूपये में विलायती कुत्ता खरीदकर उस पर भारी भरकम खर्चा करने वाले इस मामले में क्षम्य नहीं हैं।
कुदरत की निगाह में ऐसी पशु सेवा तमाम विकृत शौकों में से एक है जो हमारी आध्यात्मिक चर्या को दूषित करती है। हिन्दू धर्म में देशी कुत्ते को लड्डू खिलाने के टोटके अनिष्ट का शिकार लोगों को इसलिए बताये जाते हैं कि वे किसी तरह पशु प्रेम की ओर प्रेरित हो सकंे लेकिन यह उनके परिवेश की प्रकृति के अनुरूप होना चाहिए। मछलियों को चुगाने और चीटियों को आटा खिलाने जैसी परंपराओं के अर्थ भी इस कर्तव्य बोध के बाद समझे जा सकते हैं। जिसके पीछे कोई निरर्थक शगल न होकर महत्वपूर्ण अर्थ हैं।
जीवन को हानि लाभ के चक्र में गर्क करके लोग अपने अंदर की रचनात्मक विशेषताओं को भुला देते हैं जो कि उनको प्रकृति के अनूठे उपहार के रूप में प्रदत्त होती हैं और जिनका संबंध जिजीविषा में शक्ति संचार से होता है। संगीत, गायन, लेखन, चित्रांकन, शिल्पकला, अध्यवसाय आदि प्रवृत्तियों को जो बचपन में उभरती हैं बाद में लोग कृत्रिम लाभों और उनसे जुड़ी व्यस्तताओं में इनको बलिदान कर देते हैं। उन्हें पता नहीं कि ऐसा करके उन्होंने अपनी कितनी क्षमताओं को कुंद करने का जोखिम मोल लिया है।
उन्माद गहरी मानसिक बीमारी की परिणति है जो विस्मृति दोष का कारण भी बनती है। धनलिप्सा का चरम उन्माद इसमें आज दुनिया जी रही है, इसी का परिणाम है मनुष्य द्वारा अपने उपर्युक्त दायित्व बोध को बिसराया जाना। यह एक शैतानी प्रकोप है जिससे हमारी आध्यात्मिक चेतना विलुप्त होने की ओर अग्रसर है।
दया और परोपकार जैसी भावनाओं का क्षरण इसकी घनघोर बुराइयां हैं। इन्ही के फेर में प्रकृति और जीवन के संतुलन को इतना बिगाड़ा गया है कि प्रलय के अप्रत्याशित स्वरूप से हमारी नस्ल को दो चार होना पड़ रहा है। कोरोना से बचाव के लिए लाॅकडाउन की सार्वभौम सोच अप्रत्याशित और अयाचित नहीं है बल्कि इसे प्रकृति ने इसके लिए एक साथ सारी दुनिया को प्रेरित किया है ताकि लोग सभी मृगमरीचिका पूर्ण व्यस्तताओं से परे होकर अपने कर्तव्यों के बारे में फिर से चिंतन कर सकें।
अगर प्रकृति के इस उद्देश्य को समझा गया होता तो सारे कर्तव्यों के पालन का रूटीन बनाकर ऐसी दिनचर्या लोग व्यवस्थित कर सकते थे जिससे लाॅकडाउन के दिन बोर लगने की बजाय ऐसे हो जाते कि लोगों को पता ही नहीं चलता कि दिन कब शुरू हुआ और कब खत्म हो गया। यह मनुष्य जाति का अपनी उच्छृंखलता को लेकर प्रायश्चित होता पर जब लोग प्रायश्चित करना ही नहीं चाहते तो उनकी सजा खत्म कैसे हो सकती। इसीलिए कोरोना की अवधि इतनी अनिश्चित होती जा रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)