जुबिली न्यूज डेस्क
मशहूर बॉलीवुड अभिनेता दिलीप कुमार का बुधवार सुबह मुंबई के हिंदुजा अस्पताल में निधन हो गया है। उनके निधन से पूरा बॉलीवुड शोक में है।
दुनिया जिन्हें दिलीप कुमार के नाम से जानती है, जिनके अभिनय की मिसालें दी जाती हैं, उनका यूसुफ से दिलीप कुमार बनने का सफर बहुत ही रोचक है।
पेशावर में जन्में यूसुफ खान का ना तो फिल्मों में काम करने की दिलचस्पी थी और ना ही उन्होंने कभी सोचा था कि दुनिया कभी उनके असली नाम के बजाए किसी दूसरे नाम से याद करेगी।
दिलीप कुमार के पिता मुंबई में फलों के बड़े कारोबारी थे, इसलिए शुरुआती दिनों से ही उन्हें अपने पारिवारिक कारोबार में शामिल होना पड़ा। तब दिलीप कुमार कारोबारी मोहम्मद सरवर खान के बेटे यूसुफ सरवर खान हुआ करते थे।
दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा ‘द सबस्टैंस एंड द शैडो’ में लिखा है कि एक दिन किसी बात पर पिता से कहा सुनी हो गई तो दिलीप कुमार अपने पांव पर खड़े होने के लिए पुणे चले गए। अंग्रेजी जानने के चलते दिलीप कुमार को पुणे के ब्रिटिश आर्मी के कैंटीन में असिस्टेंट की नौकरी मिल गई।
वहीं, उन्होंने अपना सैंडविच काउंटर खोला जो अंग्रेज सैनिकों के बीच काफी लोकप्रिय हो गया था, लेकिन इसी कैंटीन में एक दिन एक आयोजन में भारत की आजादी की लड़ाई का समर्थन करने के चलते उन्हें गिरफ्तार होना पड़ा और उनका काम बंद हो गया।
इसके बाद दिलीप कुमार फिर से बंबई (अब मुंबई) लौट आए और पिता के काम में हाथ बटाने लगे। उन्होंने तकिए बेचने का काम भी शुरू किया जो कामयाब नहीं हुआ।
जब उनके पिता ने नैनीताल जाकर सेव का बगीचा खरीदने का काम सौंपा तो यूसुफ महज एक रुपये की अग्रिम भुगतान पर समझौता कर आए। हालांकि इसमें बगीचे के मालिक की भूमिका ज़्यादा थी लेकिन यूसुफ को पिता से खूब शाबाशी मिली।
ऐसे ही कारोबारी दिनों में आमदनी बढ़ाने के लिए ब्रिटिश आर्मी कैंट में लकड़ी से बनी कॉट सप्लाई करने का काम पाने के लिए यूसुफ खान को एक दिन दादर जाना था।
वे चर्चगेट स्टेशन पर लोकल ट्रेन का इंतजार कर रहे थे तभी उन्हें वहां जान पहचान वाले साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर मसानी मिल गए। डॉक्टर मसानी ‘बॉम्बे टॉकीज’ की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे।
डॉक्टर मसानी ने यूसुफ खान से कहा कि चलो क्या पता, तुम्हें वहां कोई काम मिल जाए। पहले तो यूसुफ खान ने मना कर दिया लेकिन किसी मूवी स्टुडियो में पहली बार जाने के आकर्षण के चलते वह तैयार हो गए।
लेकिन उन्हें जरा भी इल्म नहीं था कि इस मुलाकात के बाद से उनकी किस्मत बदलने वाली है। बॉम्बे टॉकीज उस दौर की सबसे कामयाब फिल्म प्रॉडक्शन हाउस थी। उसकी मालकिन देविका रानी फिल्म स्टार होने के साथ साथ अत्याधुनिक और दूरदर्शी महिला थीं।
दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा ‘द सबस्टैंस एंड द शैडो’ में लिखा है कि जब वे लोग उनके केबिन में पहुंचे तब उन्हें देविका रानी गरिमामयी महिला लगीं। डॉक्टर मसानी ने दिलीप कुमार का परिचय कराते हुए देविका रानी से उनके लिए काम की बात की।
दिलीप कुमार से देविका रानी ने पूछा कि क्या उन्हें उर्दू आती है? दिलीप कुमार अभी जवाब देते कि उससे पहले ही डॉक्टर मसानी देविका रानी को पेशावर से मुंबई पहुंचे उनके परिवार और फलों के कारोबार के बारे में बताने लगे।
इसके बाद देविका रानी ने दिलीप कुमार से पूछा कि क्या तुम एक्टर बनोगे? इस सवाल के साथ साथ देविका रानी ने उन्हें 1250 रुपये मासिक की नौकरी ऑफर कर दी। डॉक्टरी मसानी ने दिलीप कुमार को इसे स्वीकार कर लेने का इशारा किया।
लेकिन दिलीप कुमार ने देविका रानी को ऑफर के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि उनके पास ना तो काम करने का अनुभव है और ना ही सिनेमा की समझ। तब देविका रानी ने दिलीप कुमार से पूछा था कि तुम फलों के कारोबार के बारे में कितना जानते हो, दिलीप कुमार का जवाब था, “जी, मैं सीख रहा हूं।”
देविका रानी ने तब दिलीप कुमार से कहा कि जब तुम फलों के कारोबार और फलों की खेती के बारे में सीख रहे हो तो फिल्म मेकिंग और अभिनय भी सीख लोगे।
साथ ही उन्होंने यह भी कहा, “मुझे एक युवा, गुड लुकिंग और पढ़े लिखे एक्टर की जरूरत है। मुझे तुममें एक अच्छा एक्टर बनने की योग्यता दिख रही है।”
साल 1943 में 1250 रूपये की रकम कितनी बड़ी होती थी, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि दिलीप कुमार को यह सालाना ऑफर लगा। उन्होंने डॉक्टर मसानी से इसे दोबारा कंफर्म करने को कहा और जब मसानी ने उन्हें देविका रानी से कंफर्म करके बताया कि यह 1250 रुपये मासिक ही है तब जाकर दिलीप कुमार को यकीन हुआ और वे इस ऑफर को स्वीकार करके बॉम्बे टॉकीज के अभिनेता बन गए।
बॉम्बे टॉकीज में दिलीप कुमार शशिधर मुखर्जी और अशोक कुमार के अलावा दूसरे नामचीन लोगों के अभिनय की बारीकियां सीखने लगे। इसके लिए उन्हें प्रतिदिन दस बजे सुबह से छह बजे तक स्टुडियो में होना होता था।
एक सुबह जब वे स्टुडियो पहुंचे तो उन्हें संदेशा मिला कि देविका रानी ने उन्हें अपने केबिन में बुलाया है। इस मुलाकात के बारे में दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “उन्होंने अपनी शानदार अंग्रेजी में कहा- यूसुफ मैं तुम्हें जल्द से जल्द एक्टर के तौर पर लॉन्च करना चाहती हूं। ऐसे में यह विचार बुरा नहीं है कि तुम्हारा एक स्क्रीन नेम हो।”
“ऐसा नाम जिससे दुनिया तुम्हें जानेगी और ऑडियंस तुम्हारी रोमांटिक इमेज को उससे जोड़कर देखेगी। मेरे ख्याल से दिलीप कुमार एक अच्छा नाम है। जब मैं तुम्हारे नाम के बारे में सोच रही थी तो ये नाम अचानक मेरे दिमाग में आया। तुम्हें यह नाम कैसा लग रहा है?”
दिलीप कुमार नाम रखने का प्रस्ताव
दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि यह सुनकर तो उनकी बोलती बंद हो गई। दरअसल वे नई पहचान के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे। फिर भी उन्होंने देविका रानी को कहा कि ये नाम तो बहुत अच्छा है लेकिन क्या ऐसा करना वाकई जरूरी है?
मुस्कुराते हुए देविका रानी ने दिलीप कुमार से कहा कि ऐसा करना बुद्धिमानी भरा होगा। देविका रानी ने दिलीप कुमार से कहा, “काफी सोच विचारकर इस नतीजे पर पहुंची हूं कि तुम्हारा स्क्रीन नेम होना चाहिए।”
दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में यह भी लिखा है कि देविका रानी ने कहा कि वह फिल्मों में मेरा लंबा और कामयाब करियर देख पा रही हैं, ऐसे में स्क्रीन नेम अच्छा रहेगा और इसमें एक सेक्युलर अपील भी होगी।
हालांकि ये भारत की आजादी से पहले का दौर था और उस वक्त हिंदू और मुस्लिम को लेकर समाज में बहुत कटुता की स्थिति नहीं थी, लेकिन कुछ सालों के भीतर ही भारत और पाकिस्तान के बीच हिंदू और मुसलमान के नाम पर बंटवारा हो गया।
लेकिन देविका रानी को बाजार की समझ थी। उन्हें मालूम था कि किसी ब्रैंड के लिए दोनों समाज के लोगों की बीच स्वीकार्यता की स्थिति ही आदर्श स्थिति होगी। हालांकि ऐसा भी नहीं था कि मुस्लिम कलाकारों को ही अपना नाम बदलना पड़ा रहा था और स्क्रीन नेम रखना पड़ रहा था।
दिलीप कुमार से पहले देविका रानी अपने पति हिमांशु राय के साथ मिलकर कुमुदलाल गांगुली को 1936 में ‘अछूत कन्या’ फिल्म से अशोक कुमार के तौर पर स्थापित कर चुकी थीं।
यूसुफ खान के तौर पर वे देविका रानी के तर्कों से सहमत तो हो गए लेकिन उन्होंने इस पर विचार करने का समय मांगा। देविका रानी ने कहा कि ठीक है, विचार करके बताओ, लेकिन जल्दी बताना।
देविका रानी के केबिन से निकल कर यूसुफ कुमार स्टूडियो में काम करने लगे लेकिन उनके दिमाग में दिलीप कुमार नाम ही चल रहा था। ऐसे में शशिधर मुखर्जी ने उनसे पूछ लिया कि किस सोच विचार में डूबे हो।
तब दिलीप कुमार ने देविका रानी से हुई बातचीत के बारे में उन्हें बताया। एक मिनट के लिए ठहर कर शशिधर मुखर्जी जो उनसे कहा, उसका जिक्र दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में किया है।
उन्होंने कहा, “मेरे ख्याल से देविका ठीक कह रही हैं। उन्होंने जो नाम सुझाया है उसे स्वीकार करना तुम्हारे फायदे की बात है। यह बहुत ही अच्छा नाम है। ये बात दूसरी है कि मैं तुम्हें युसूफ के नाम ही जानता रहूंगा।”
इस सलाह के बाद यूसुफ खान ने दिलीप कुमार के स्क्रीन नेम को स्वीकार कर लिया और अमिय चक्रवर्ती के निर्देशन में ‘ज्वार भाटा’ की शूटिंग शुरू हो गई।