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चन्द्रशेखर की किताब के बहाने नेहरू परिवार पर निशाने का हिट मंत्र

 

केपी सिंह 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सफलता का सबसे बड़ा राज उनके आत्मविश्वास का बुलंद स्तर है। जिसके कारण विभिन्न विषयों की आधी अधूरी जानकारी और उनके अटपटे मिलान के बावजूद जन मानस में उनका भाषण हिट हो जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर पर उनके पत्रकार के रूप में नजदीकी रहे राज्यसभा के वर्तमान उपसभापति हरिवंश की लिखी पुस्तक का विमोचन करते समय उनके द्वारा दिये गये भाषण में भी यह विसंगतियां सामने आयी।

हरिवंश सुरेन्द्र प्रताप सिंह की रविवार की उस टीम के हिस्सा रहे थे जिन पर ठाकुर होने के कारण चन्द्रशेखर का विशेष अनुग्रह था। इनमें संतोष भारतीय भी थे जो चन्द्रशेखर के कारण ही 1989 के चुनाव में फरूर्खाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़कर संसद में पहुच गये थे।

चन्द्रशेखर भले ही इन्हें किसी भी भावना से प्रमोट करते रहे हों लेकिन ये लोग मूल्यों की पत्रकारिता के लिए जाने जाते थे और इसलिए इनमें से अधिकांश का झुकाव जनता दल में उठापटक तेज होने पर वीपी सिंह के साथ हो गया था और चन्द्रशेखर का साथ इन लोगों ने उनके प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा बनाये रखने के बावजूद वैचारिक तौर पर छोड़ दिया था।

नेहरू इन्दिरा को कटघरे में खड़ा करके मोदी बटोरते हैं तालियां

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिट होने का एक और मंत्र बहुत अच्छी तरह जान लिया है। यह मंत्र है हर समय नेहरू और उनके परिवार के प्रधानमंत्रियों को निशाने पर रखना। इसलिए उनकी आदत बन गई है कि प्रसंग कुछ भी हो वे भाषण का सिलसिला जब नेहरू को केन्द्र में रखकर बनाते हैं तो तालियां बजती चली जाती हैं।

नेहरू के समय मध्य वर्ग यानी पिछड़ी जाति के नाराज नेता हमेशा उनके खिलाफ ब्राह्मणों को बढ़ावा देने का मुद्दा उठाते थे। जवाहरलाल नेहरू हो, इन्दिरा गांधी हो या राजीव गांधी उनके समय हर क्षेत्र में ब्राह्मणों के ही छाये रहने की शिकायत रहती थी और प्रतिपक्ष की राजनीति को पिछड़ी जातियों के इसके विरूद्ध प्रतिरोध से खुराक और शक्ति मिलती थी। यह शोध का विषय है कि नरेन्द्र मोदी को नकली पिछड़ा साबित किये जाने की कोशिश के बावजूद मध्य वर्ग की जातियों ने उत्तर प्रदेश तक में पिछ़ड़ों के तमाम स्वयंभू पोप दरकिनार करके क्या उन्हें इसी वजह से पूरी लामबंदी के साथ समर्थन दिया है।

दूसरी ओर नेहरू परिवार के प्रति ब्राह्मणों का मोह भंग भी शोध का विषय है। इस परिवार की विदेशी बहू यानी सोनिया गांधी ने काग्रेेस की संरचना को जिस तरह पार्टी के अध्यक्ष का पदभार संभालने के बाद हर स्तर पर दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण करके बदला जिसमें प्रियंका का विवाह केसी पंत के पुत्र से करने की बजाय राबर्ट बाड्रा से करने के अतीत का दर्द भी जुड़ा और राहुल गांधी के विवाह के विषय को लेकर भी एक गैर धर्मावलंबी विदेशी लड़की से गुप्त शादी की चर्चा ने भी प्रभाव दिखाया उससे अचेतन में कहीं न कहीं जो संशय उपजता रहा कहीं भाजपा और संघ की सुनियोजित रणनीति की वजह से यही वजहें तो ब्राह्मणों के काग्रेस से छिटकने का कारण तो नहीं बनी।

चन्द्रशेखर के कद को कमतर किये जाने की असलियत

बहरहाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए चन्द्रशेखर पर किताब का विमोचन भी नेहरू और उनके वंशजों के शासन को निशाना बनाते हुए मंच लूट लेने का अवसर था। इसलिए उन्होंने इन लोगों को एक बार फिर कटघरे में खड़ा करने के लिए चन्द्रशेखर को महान नेता साबित करने का जोरदार उपक्रम कर डाला। उन्होंने कहा कि चन्द्रशेखर की उपलब्धियों को साजिश के तहत कमतर किया गया और यह कहने की उन्हें जरूरत नहीं थी कि यह साजिश उस समय तक स्वर्ग सिधार चुके नेहरू और उनके वंशजों की थी क्योंकि मोदी जानते हैं कि लोगों में जो संदेश उन्हें पहुंचाना है वह बिना नाम लिये पहुंच रहा है।

शेखर के अध्यक्ष बनने से जनता पार्टी में क्यों रहता था तनाव

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कमजोरी यह है कि वे दावा कुछ भी करें लेकिन देश की राजनीति की फर्स्ट हैंड इनफार्मेशन उन्हें बहुत कम है। उन्हें नहीं पता कि चन्द्रशेखर जब जूनियर मोस्ट होने के बावजूद जयप्रकाश जी के आशीर्वाद से नव गठित जनता पार्टी के अध्यक्ष बना दिये गये थे तो काग्रेसियों को नहीं बल्कि जनता पार्टी के दिग्गजों को ही यह बिल्कुल रास नहीं आया था।

उनके हवाले से अखबारों में जो खबरें छपती थी उनका निष्कर्ष यह था कि जेपी के भोलेभाले पन का लाभ उठाकर चन्द्रशेखर ने यह पद हथिया लिया है जबकि उनकी अति महत्वाकांक्षा के कारण आगे चलकर इससे गंभीर समस्यायें उत्पन्न होंगी। जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का यह आंकलन एकदम सही साबित हुआ।

नरेन्द्र मोदी ने कहा कि वे भी जनता पार्टी की सरकार बनने पर प्रधानमंत्री की दौड़ में थे लेकिन उन्होंने एक गुजराती यानी मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनवा दिया। यह बात बिल्कुल गलत है। उस समय प्रधानमंत्री पद की दौड़ में तीन नाम मोरारजी देसाई, चै0 चरण सिंह और जगजीवन राम के थे लेकिन दलित प्रधानमंत्री रास न आने की वजह से अंततोगत्वा मोरारजी देसाई के नाम पर मजबूरी में सहमति बन गई थी।प्रधानमंत्री पद के लिए प्रादेशिक गर्व और गौरव का जो तार उन्होंने मोरारजी के बहाने छेड़ा उसको बिल्कुल स्वीकार नहीं किया जा सकता।

मोरारजी को भी उन्होंने बहुत महान प्रधानमंत्री बताने की कोशिश की जबकि वे पूरी तरह सनकी और घमंडी थे जिसके कारण देश को बहुत नुकसान हुआ। मोरारजी चन्द्रशेखर को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे क्योंकि चन्द्रशेखर जेपी के कृपा पात्र थे। मोरारजी इतने कृतघ्न थे कि जनता पार्टी सरकार के असल निर्माता जयप्रकाश नारायण के प्रति अभद्रता दिखाने से भी नहीं चूके थे।

जब मोरारजी सरकार ने जेपी के निधन का ऐलान बिना पुष्टि कराये कर दिया था तो चन्द्रशेखर ने उनकी कटु भत्र्सना की थी। जबकि नरेन्द्र मोदी के भाषण से तो यह लगता है कि मोरारजी और चन्द्रशेखर दोनों काग्रेस से पीड़ित होने के नाते आपस में बहुत घनिष्ठ हों। मोरारजी की ही देन है कि भारतीय खुफिया एजेंसी राॅ के विदेशों में ताने बाने का भेद दुनिया के सामने खुल गया जिससे सीआईए और केजीबी से भी आगे जा रही भारत की खुफिया गीरी की चाल में बड़ा ब्रेक लगा। क्या नेहरू और उनके वंशज प्रधानमंत्रियों के विरोध के नाम पर ऐसे नेताओं को भी महान स्वीकार कर लेना चाहिए।

शेखर के फैसले खुद मुहैया कराते थे आलोचना का सामान

चन्द्रशेखर की भारत यात्रा को बदनाम करने का ठीकरा भी उन्होंने इशारे में काग्रेस पर फोड़ दिया। स्थिति यह है कि चन्द्रशेखर की भारत यात्रा को उनकी हैसियत से अधिक कवरेज मिला था क्योंकि पत्रकार उनसे कृतार्थ रहते थे। चन्द्रशेखर इतने उत्कट महत्वाकांक्षी थे कि उन्होंने पार्टी सिस्टम को बर्बाद करके हमेशा अपने को आगे रखने की कोशिश की। उन पर राज्यसभा चुनाव में खरीद फरोख्त करवाने का आरोप उस जमाने में सुब्रमण्यम स्वामी ने लगाया था जो आजकल भाजपा और संघ के थिंक टैंक हैं।

अपने आप को समाजवादी के रूप में प्रस्तुत करने वाले चन्द्रशेखर की पार्टी के लगातार कोषाध्यक्ष देश के अग्रणी उद्योगपति कमल मोरारका रहे क्या इस दोहरेपन के खिलाफ नहीं उठाई जानी चाहिए थी। बिहार के कोल माफिया सूरज भान सिंह हो या पांच लोगों की सामूहिक हत्या में आरोपित अशोक चंदेल क्या इनको चन्द्रशेखर द्वारा संकीर्ण जातिवाद के कारण संरक्षण देना आलोचना का विषय नहीं होना चाहिए था।

जनता दल तोड़कर काग्रेस के समर्थन से खुद के मुट्ठी भर सांसद होते हुए भी सरकार बनाने का उनका कदम कहीं से भी नैतिक था। अगर काग्रेस में बुराई ही बुराई थी तो उन्हें उसका समर्थन लेना ही नहीं चाहिए था। प्रधानमंत्री के रूप में इतिहास में नाम दर्ज कराने के लिए चन्द्रशेखर ने समय-समय पर राजनीतिक व्यवस्था को बहुत नुकसान पहुचाया जिसका अनुसरण नहीं किया जा सकता जबकि प्रधानमंत्री कहते हैं कि उनकी स्मृति से सार्वजनिक जीवन में अच्छा कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।

नेहरू विरोध थोपने के लिए अटपटी समीक्षायें

हालांकि मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्रियों का संग्रहालय बनाने की जो घोषणा की है उसका स्वागत किया जा सकता है क्योंकि इस पद पर बैठने वाला हर नेता देश की धरोहर है लेकिन हर प्रधानमंत्री का अपना एक कद है और बेशक जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी की उनके द्वारा भी की गई तमाम गल्तियों के बावजूद जो उपलब्धियां हैं उन्हें संपूर्णता में देखने के बाद मोरारजी, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा और इन्द्रकुमार गुजराल उनके आगे बहुत बौने ठहराये जायेंगे। शालीनता का तकाजा यह है कि किसी नेता की स्मृति से जुड़े आयोजन में दूसरे नेताओं से तुलना से बचा जाये क्योंकि दिवंगतों की पूर्वाग्रह से भरी समीक्षा ऐसे आयोजनों के अर्थ को अनर्थ में बदल सकती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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