सुरेन्द्र दुबे
आज पत्रकारिता दिवस है इसलिए हमने सोचा कि क्यों न हम पत्रकारिता की दशा और दुर्दशा पर चिंतन करें. हो सकता है पत्रकारिता आने वाले दिनों में और निचले पायदान पर चली जाए या हो सकता है कि पत्रकारों की आत्मा जागे जिससे समाज को लगे कि भले ही घनघोर अंधेरा है पर कहीं न कहीं झरोखे से रोशनी दिखाई पड़ रही है जो धीरे धीरे फैलकर प्रकाश को बढ़ा सकती है
आज से लगभग पैंतालीस वर्ष पूर्व जब हमने यानी कि हमारी पीढ़ी के लोगों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा था तब पचास प्रतिशत से ज्यादा खांटी पत्रकार होते थे. पच्चीस प्रतिशत पत्रकार खांटी पत्रकार न सही पर दलाल या भोंपू नहीं होते थे. इनकी भी आँखें खुली होती थी. इन्हें भी खबर दिखती थी. इन्हें भी एहसास रहता था कि समाज के प्रति इनकी भी कोई जिम्मेदारी’ है भले ही व्यवस्था की बखिया उधेड़ने का साहस नहीं कर पाते थे पर बिला वजह रफूगिरी नहीं करते थे.
शेष पच्चीस प्रतिशत पत्रकारों में कुछ पार्टी समर्थक बन जाते थे और कुछ मालिकों के हित साधते या दलाली करते थे. पर उन सब लोगों में एक अपराध बोध होता था और ये लोग आखें झुका कर चलते थे. संपादक का इतना जलवा होता था कि मालिक भी सामान्यतया इनमें कुछ में प्रवेश करने से कतराता था. पूरी सम्पादकीय टीम को इस बात की चिंता रहती थी कि पाठक के मन में उनके प्रति विश्वास और आस्था बनी रहे.
आज जब हम पत्रकारिता जगत का पुनरावलोकन करते हैं तो पाते हैं अब पत्रकारिता पाठकों या दर्शकों के बजाय सरकार और मालिकान को खुश करने का माध्यम बन गई है. पहले पत्रकारों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और अब हिकारत की नजर से. सच कहें तो पिछले पांच छह साल में हम हिकारत के पायदान से गिरकर लगातार निचले पायदानों पर गिरते जा रहे हैं.
जहां हमें कोई दलाल समझता है तो कोई सरकार के इशारे पर जनता को गुमराह करने वाला बंदा जिसके पास अपना कुछ नहीं बचा है. वह सरकार की नजर से देखता है, उसी की नजर से सुनता है और उसी के इशारे पर कलम चला कर लोगों की सोच को गुलाम बनाने के अक्षम्य अपराध में लगा हुआ है.
कुछ लोग तर्क देते हैं कि औद्योगिकीकरण और बढ़ते पूंजीवाद के प्रभाव में भारतीय मीडिया लगातार अपनी आवाज खोता जा रहा हैं. पर यह बिल्कुल सत्य नहीं है. अमेरिका से ज्यादा उन्नत और पूंजीवादी देश और कोई नहीं हैं पर वहां के पत्रकार राष्ट्रपति तक की बखिया उधेड़ देते हैं उनका साहस है कि वे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को झूठों का बादशाह कहने की हिम्मत रखते हैं. अपने भारत में मीडिया ऐसा सोचने का भी साहस नहीं कर सकता.
हमारा मीडिया कालिदास बन गया है जिसका अर्थ है जिस डाल पर बैठे उसी को काटने वाला मूर्ख. कालिदास महान तब बने जब उन्होंने अपनी ही डाली को काटने के बजाय मेघदूतम्, रघुवंशम्, कुमारसंभवम्, ऋतुसंहार जैसी कालजयी रचनायें लिखी. ये एक अजीब सी स्थिति है कि मीडिया को आज सबसे ज्यादा मीडिया से ही खतरा है.
हर तरफ कालिदास दिख रहे हैं ऐसी बुरी स्थिति तो इमरजेंसी में भी नहीं थी जब हमारे मौलिक अधिकार ध्वस्त कर दिए गये थे. आज संविधान है और उसमें वर्णित अधिकार भी बरकरार है. सिर्फ मीडिया नहीं हैं जिससे संविधान और उसमें वर्णित संस्थाओं तथा अधिकारों की रक्षा करने की अपेक्षा थी.
लोकतंत्र के तीन स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का काम देश में सरकार बनाना, उसको सुचारू रूप से चलाना और अंतिम पायदान पर बैठे व्यक्ति को भी न्याय प्रदान करना है. इन सबकी चौकीदारी करना मीडिया का काम है जो इन सबको लगातार कमजोर कर रहा है और अपना अस्तित्व दांव पर लगाए हुए है.
सोशल मीडिया भले ही गलत खबरें फैलाने और निहित स्वार्थवश अभद्र भाषा का प्रयोग करने का गुनाहगार हो पर आज हमें ख़बरों के लिए उन्ही पर निर्भर रहना पड़ रहा है. ये सोशल मीडिया ही है कि एंटी सोशल मैन मीडिया के षड्यंत्र के बावजूद खबरें पता चल जाती है. ये ठीक है कि बड़का मीडिया सोशल मीडिया की आवाज को नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह दबाए हुए हैं पर सजग कानों को ये आवाजें सुनाई पड़ती रहती हैं और एक स्वास्थ्य लोकतंत्र की उम्मीदें बरकरार हैं
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सबसे पहले विधायिका की चर्चा कर लेते हैं. हर सरकार अपने ढंग से और अपने एजेंडे से काम करना चाहती है. ये उसका राजनीतिक अधिकार भी है पर जब वह इस अधिकार के जरिए संविधान को कुचलने और डिक्टेटर बनने का प्रयास करती है तो फिर विपक्ष को उस पर अंकुश लगाना होता है और इस प्रक्रिया में मीडिया एक अच्छे चौकीदार की भूमिका अदा करती हैं पर आज तो मीडिया चौकीदार की ड्रेस जरुर पहने हैं पर वह लूट करने वाले के साथ खड़ी है.
ऐसा नहीं हैं की पूर्ववर्ती सरकारें दूध की धुली थी पर उनमें लोक लज्जा बनी हुई थी जिसकी वजह से एक सीमा के बाद उनके लिए आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता था. आज सारे बेरिकेड हटा दिए गए हैं कहीं कोई नो बाल नहीं है. गेंद चाहे चार फुट दूरी पर ही जाए उसे चौका या छक्का मान लिया जाएगा और मीडिया इतनी जोर से बैंड बजाता है कि नो बाल की आवाज सुनाई नहीं पड़ती.
अब कार्यपालिका पर आ जाते हैं जो सिर्फ बादशाह का हुक्म बजाने की भूमिका में खड़ा हैं. सीबीआई, ईडी और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाएं सरकारों की इच्छा के आगे कठपुतली की तरह नाचने भर को रह गई है. जिस सीएजी के कारण कांग्रेस की सत्ता चली गई उसने अब ऑडिटिंग ही बंद कर दी है, सिर्फ सेटिंग और गेटिंग में लगी हुई है
और मीडिया न केवल इनकी और से मुह मोड़े हुए हैं बल्कि इनका गुणगान करने में भी लगी हुई है. कभी कभी तो ऐसा लगता है की जब इन संस्थाओं ने अपना काम ही बंद कर दिया है तो फिर इनपर जनता के करोड़ों रुपये क्यों खर्च किये जा रहे हैं हर तरफ जी हुजूरी का आलम है और मीडिया सिर्फ कुड मुड़ मुड़ मुड़ झईयम झईयम कर रहे हैं.
रही बात न्यायपालिका की तो कभी न्यायपालिका का पूरी दुनिया में एक ऊँचा मुकाम था. माहौल कुछ ऐसा बिगड़ा कि न्याय देने वाले भी या तो निराश हो गये या फिर दबाव में आ गये. जिस सुप्रीमकोर्ट को न्याय का सबसे बड़ा मंदिर समझा जाता था वहां बैठे देवता आने वाले भक्तों के प्रति उदासीन हो गये.
खैर कुछ भक्तों ने हिम्मत दिखाई, चिट्ठी पत्री लिखी तो देवता जगे और इस देश के मजदूरों को लगा की अंतत: उनकी आवाज देवताओं ने सुनी. ये कोई आदर्श स्थिति नहीं हैं और इस बात का संकेत हैं कि हमारे सभी स्तंभ डगमगा रहे हैं और इनको मजबूती प्रदान करने में अहम् भूमिका मीडिया को निभानी होगी. अगर लोकतंत्र को बरकरार रखना है तो मीडिया को झुकने के बजाय उठ खड़े होने का करतब दिखाना होगा. पत्रकारों को इतना ध्यान ज़रूर रखना चाहिए कि इतिहास उन्हें गुनहगारों की तरह चित्रित न कर पाए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं । ये उनके निजी विचार हैं)