प्रो. अशोक कुमार
राष्ट्रीय पुननिर्माण के लक्ष्य की प्राप्ति में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। कहते हैं यदि जीवन में शिक्षक न हों, तो शिक्षा संभव नहीं है। शिक्षक ही वह पथ प्रदर्शक होता है, जो हमें किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि जीवन जीने की कला सिखाता है।
शिक्षक ज्ञान प्रदाता होता है, उसकी शिक्षाएँ समाज के लिए अनुकरणीय होती हैं। सवाल यह है कि हम समाज की नींव रखने वाले इस व्यक्तित्व (अध्यापक) की नींव को यदि कमजोर करेंगे तो निःसंदेह यह हमारे देश और समाज के लिए घातक सिद्ध होगा।
पूरे विश्व में जो शैक्षणिक व्यवस्था है, उसके तीन घटक हैं- छात्र, अध्यापक और अभिभावक । इन तीनों के समन्वय के बगैर शैक्षणिक त्रिभुज के निर्माण की परिकल्पना ही बेमानी है।
शिक्षा के बगैर विकसित मानव की कल्पना नहीं की जा सकती और इसके बिना सभ्य एवं शिक्षित समाज की भी कल्पना नहीं की जा सकती।
जीवन की आधारभूत जरूरतों- रोटी, कपड़ा और मकान के बाद मानव को मानव कहलाने की जिस चीज की जरूरत शायद सबसे ज्यादा होती है वह है शिक्षा।
यह शिक्षा ही है, जिसकी मदद से हम किताबी आदर्शों का तारतम्य जीवन की सच्चाइयों से स्थापित कर पाते हैं। विचारों को एक रचनात्मक केन्द्र देते हैं, सही-गलत में भेद कर पाते हैं और सबसे अधिक राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में अपना योगदान दे पाते हैं। बालक का बचपन एक कोरे कागज के समान होता है।
शिक्षकों के द्वारा शिक्षा के माध्यम से शुरूआत के वर्षो में दिये गये संस्कार एवं गुण उनके सम्पूर्ण जीवन को सुन्दर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं ! परन्तु प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था का सच भी जगजाहिर है।
जॉन एडम्स ने कहा है कि “अध्यापक ही व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व का निर्माणक एवं विकास का प्रमुख आधार है। बिना शिक्षक की सक्रिय सहभागिता के किसी राष्ट्र का वर्तमान एवं भविष्य का निर्माण एवं विकास संभव नहीं है।
” इसी बात को भारतीय मनीषियों ने, “गरुरू ब्रह्मा, गुरु रू विष्णु, गुरु रू देवो महेश्वरः” के रूप में कहा। यह परम्परा एवं अध्यापक के प्रति सम्मान सनातन से चल आ रहा है, किन्तु जब अध्यापक की दशा एवं दिशा को वर्तमान परिप्रेक्ष में देखने का प्रयास करता हूँ तो उसका स्वरूप परिवर्तित दिखायी पड़ता है, जिसमें विगत दशक शिक्षक समाज के लिए बहुत ही असन्तोषजनक रहा उसमें ‘अध्यापक शिक्षा के गुणवत्ता पर एक प्रकार से प्रश्नचिन्ह लगता दिखायी पड़ता है।
जब पूरी दुनिया ने विद्यालय की कल्पना नहीं की थी, उस समय हमारे यहाँ विश्वविद्यालय हुआ करते थे। विश्वस्तरीय नालंदा विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय,और विक्रमशिला विश्वविद्यालय इसके उदाहरण हैं।
पर शिक्षा-व्यवस्था की विसंगतियाँ कहीं-न-कहीं बहुत कचोटती हैं। शिक्षा में जब सियासत की गैर जरूरी दखलंदाजी बढ़ती है, तो बेवजह शिक्षा जगत को शर्मसार होना पड़ता है। इतना ही नहीं, जब राज्यों में सरकारें बदलती हैं, तो विभिन्न पार्टियां अपने एजेंडे के अनुसार विभिन्न पाठ्यक्रम भी बदलते हैं !
किसी भी राज्य में जब एक खास दल की सरकार आती है, तो वहाँ इतिहास के पाठ्यक्रम में दो पन्ने जोड़ दिये जाते हैं और जब दूसरी पार्टी सत्ता संभालती है, तो उन दो पृष्ठों को फाड़कर हटा दिया जाता है। यह हमारे ऐतिहासिक तथ्यों के प्रस्तुतीकरण का दुर्भाग्यपूर्ण मौजूदा सच है।
संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में राजनीति प्रवेश कर चुकी है और जबसे शिक्षा व्यवस्था में राजनीति का अनुचित प्रवेश हुआ , तब से शिक्षा व्यवस्था पैसे कमाने का धंधा बन चुकी है।
नीति नियामक संस्थाओं की नीतियों एवं कार्यस्वरूप के बीच एक भारी अन्तर दिखायी पड़ रहा है ! उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर बनाने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन हुआ तो जरूर, पर आज विश्वविद्यालय जैसी स्वायत्त संस्था की विश्वसनीयता संदेहास्पद होती चली जा रही है।\
कुछ वर्ष पूर्व अमेरिकी तर्ज पर दिल्ली वि.वि. में चार साल के स्नातक पाठ्यक्रम की शुरुआत हुई, जिसकी चौतरफा आलोचनाएँ हुयीं ! और आज एक बार फिर चार साल के स्नातक पाठ्यक्रम शुरू कर दी गई है ! जिनके पास नीति बनाने की निपुणता नहीं है वे ही देश की नीति बना रहे हैं और जो शिक्षण संस्थाओं में एक भी पाठ नहीं पढ़ाये हैं वे पाठ्यक्रम निर्धारित करते हैं ! यह हमारे शिक्षा व्यवस्था का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।
समूचे देश के अंदर छात्र – शिक्षक अनुपात इतना असंतुलित है कि सोचकर ही स्थिति भयावह लगती है आई.आई.टी. जैसे संस्थानों में 15-20% शिक्षकों की कमी है।
आज देश का सम्पूर्ण शिक्षा क्षेत्र योग्य अध्यापकों की कमी से जूझ रहा है ! विकसित देश में शिक्षा का भविष्य अस्थायी शिक्षकों के सहारे पर निर्भर है जिनको विभिन्न नाम से जाना जाता है : अस्थायी, एडहॉक, संविदा, पार्ट टाइमर, अतिथि, मानद, विजिटिंग, आवश्यकता आधारित, एमओयू प्रोफेसर, शोध विद्वान, ऑनलाइन अतिथि संकाय, स्व अध्ययन।
विदेश में: प्रतिस्थापन, सत्रीय, सहायक शिक्षक। ज्ञान आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि देश को “नॉलेज सोसाइटी” में बदलना है तो आने वाले सालों में देश में करीब 1500 विश्वविद्यालय खोलने होंगे।
शिक्षा का विकास सिर्फ कॉलेज खोलने से नहीं होता! कई राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय तो ऐसे हैं, जहाँ कई कॉलेजों में कई विभागों में एक भी शिक्षक नहीं है इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि प्रदेश के बहुत से शिक्षक ऐसे हैं जो कई महाविद्यालयों में अनुमोदन करायें हैं और वास्तव में कहीं पढ़ा रहे हैं या नहीं यह भी स्पष्ट नहीं है ऐसी शिक्षा व्यवस्था से यह देश को गंभीर खतरे की ओर जा रहा है।
वर्तमान में शिक्षा को सेवा की जगह व्यापार की कोटि में रखा जा रहा है ! आज बाजार की मांग के अनुरूप पाठ्यक्रम और पूंजीपतियों के अत्यधिक व्यवसायिक लाभ के लिए महाविद्यालयों एवं तकनीकी संस्थाओं की मान्यता दी जा रही है। निजी कॉलेज क्यों तेजी से बढ़ रहे हैं, क्योंकि उन्हें तेजी से बढ़ने दिया गया है।
ऐसे अधिकांश संस्थान वास्तव में शैक्षणिक संस्थानों की आड़ में रियल एस्टेट रैकेट हैं। उनमें से अधिकांश राजनेताओं और बिल्डरों द्वारा नियंत्रित हैं।
किसी बड़े शहर में विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए भूमि की आवश्यकता नए खिलाड़ियों के लिए एक बड़ी बाधा की तरह लगती है, जिनके पास बहुत अधिक धन या राजनीतिक संबंध नहीं होते। यह निजी शिक्षा क्षेत्र पर पर्याप्त संसाधनों वाले व्यक्तियों, अक्सर राजनेताओं द्वारा एकाधिकार करने में योगदान देता है।
भूमंडलीकरण के इस दौर में हम अपनी ही पहचान खोते जा रहे हैं शिक्षण संस्थाओं में भौतिक संसाधन एक प्रकार से औपचारिकता तथा निरीक्षण की वस्तु बनकर रह गयी है शिक्षक अपने को मानदेय पर काम करने वाले एक श्रमिक के रूप में देख रहा है, जिसमें कुण्ठा, निराशा एवं हताशा का होना स्वाभाविक है !
गुरु-शिष्य संबंध का घनत्व घट रहा है। आज शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का जितना प्रतिशत खर्च होना चाहिए, वो नहीं हो पा रहा है। रक्षा और अन्य मंत्रालयों का बजट लम्बा-चौड़ा होता है, पर शिक्षा की अदेखी होती है। समय पर प्राध्यापकों को वेतन नहीं मिलता, फलतः हड़ताली संस्कृति विकसित होती चली जा रही है, जिसका खामियाजा अन्ततः छात्रों को भुगतना पड़ता है। अब बदलती व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में हमारी नैतिकतापूर्ण, गुणवत्तापूर्ण व व्यक्तित्व-निर्माण केंद्रित शिक्षा-पद्धति कहाँ तक अपनी अस्मिता को अक्षुण्ण बनाये रखने में समर्थ होगी, यह गंभीर विचारणीय प्रश्न है।
शिक्षा संस्थानों में अनुसंधान और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता । वाकई एक अच्छा शोध ऐसे परिवेश की माँग करता है, जहाँ शिक्षकों का स्तर अनुसंधान और अन्वेषण को ईमानदार सोच के साथ बढ़ावा देने वाला हो, छात्र निरंतर विषय को आगे बढ़ाने, उसका विस्तार करने और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नये आयाम जोड़ने के प्रयास में लगे हों और नीति-नियंताओं की नीयत साफ हो । शोध के लिए जरूरी इस अन्वेषणपरक बुनियादी प्रवृत्ति का अभाव-सा नजर आता है ।
आज भारतीय शिक्षा में शिक्षकों के हालात , विशेष तौर पर सेल्फ फाइनेंस संस्थानों में शिक्षकों की स्थिति काफी दयनीय है , इतने खराब हैं कि व्यवसायिक दृष्टि रखने वाले शिक्षण संस्थायें अपनी जिम्मेदारियां और उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं। इसके लिए समाज, सरकार, शिक्षा जगत् और शिक्षण संस्था के संचालक खुद भी जिम्मेदार है। शिक्षा व्यवस्था के व्यावसायिक रूप से अध्यापकों का शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण भी हो रहा है, अतः वे अपनी सेवा ठीक ढंग से निभाने में अक्षम रहता है।
यह स्थिति भारत देश के भविष्य के लिए कतई अच्छी नहीं है और ऐसे ही रहा तो बच्चों का भावी भविष्य अराजकता की ओर जाना तय है। इन सबके लिए सरकार और नई शिक्षा नीतियां जिम्मेदार मानी जा सकती है ! अतः देश की सरकारों को हर स्तर पर शिक्षा की दशा एवं दिशा पर गंभीरता से मंथन करते हुए शिक्षा के बाजारीकरण को रोकना होगा तथा ऐसी शिक्षा नीति एवं व्यवस्था देनी होगी जिससे देश और समाज के युवा पीढ़ी अच्छे , कुशल और जिम्मेदार नागरिक बन सकें।
(पूर्व कुलपति कानपुर, गोरखपुर विश्वविद्यालय , विभागाध्यक्ष राजस्थान विश्वविद्यालय)