शबाहत हुसैन विजेता
हिन्दुस्तान की अवाम ने जिसे मुल्क की चौकीदारी सौंपी थी वही अब हर दरवाज़ा खटखटाकर घर के मालिकाना हक के कागज़ मांग रहा है।
सियासत के जरिये चौकीदारी के रास्ते मालिक बन जाने की इस कलाकारी ने लोकतंत्र में विरोध के सुरों को भी दबा दिया है। आम आदमी की बात तो जाने दी जाए पूर्व प्रधानमंत्री की बेटी का भी गला भी दबाया जा रहा है।
डिप्टी एसपी जैसा छोटा सा अधिकारी विपक्ष के प्रमुख नेताओं का रास्ता रोकने लगा है। भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व आला अधिकारी के घर जाने देने में भी अड़ंगे लगाए जा रहे हैं।
लम्बी गुलामी के बाद मिली आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान को जो सबसे बड़ा तोहफ़ा मिला था वह डेमोक्रेसी था, लाख मुसीबतों के बावजूद डेमोक्रेसी ऐसी ताकत थी जिसके बल पर मुल्क का कोई भी नागरिक सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचा लिया करता था लेकिन मौजूदा दौर में हिन्दुस्तान की डेमोक्रेसी जिस तरह घुट-घुटकर जी रही है या फिर कहा जाए कि जिस तरह से शनैः शनैः मर रही है वह आने वाले बद से बदतर हालात की तरफ इशारा कर रही है।
डेमोक्रेसी ने सरकार के साथ-साथ विपक्ष को भी बराबर की ताकत दे रखी थी। वास्तव में विपक्ष की भूमिका इसलिए सबसे अहम है क्योंकि वही हुकूमत का सबसे अच्छा सलाहकार भी होता है। सलाहकार न हो तो कोई कितना भी काबिल क्यों न हो लेकिन कहीं न कहीं गलती ज़रूर करता है और वही गलती कई बार उसके लिए न ठीक होने वाले ज़ख्म में बदल जाती है।
हुकूमत मुल्क की भलाई के फैसले करती है तो विपक्ष उन फैसलों पर अपनी पैनी निगाह रखता है। हुकूमत बहकती है तो विपक्ष उसे रास्ता दिखाता है लेकिन अब विपक्ष की भूमिका को धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया है। अब जो हुकूमत कहे वही सही। हुकूमत ने विपक्ष के मुंह पर ताला जड़ने के लिए सीबीआई और ईडी को अपना हथियार बना लिया है। जो हुकूमत के सामने मुंह खोलता है, फौरन उसकी फाइल खोल दी जाती है। उसके सामने डर के इतने दरवाजे खोल दिये जाते हैं कि वह खामोश रहने में ही अपनी भलाई समझता है।
विपक्ष विहीन लोकतंत्र में अब बारी अवाम का मुंह बंद करने की है। सोशल मीडिया पर नफरत के कितने ही दावानल जलाये जा रहे हों लेकिन उस पर किसी की भी निगाह नहीं है लेकिन अगर किसी ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाया तो उसका जेल जाना तय है। सरकार पर सवाल न अखबार में उठ सकते हैं, न चैनल पर और न सोशल मीडिया पर, सड़क पर उतरे तो दंगा भड़काने का इल्ज़ाम बिल्कुल तैयार खड़ा है।
सीएए के खिलाफ आवाज़ उठाने के इल्ज़ाम में जिन्हें जेल भेजा गया है, उनमें ऐसे बहुत से नाम हैं जो दंगा भड़काने की कल्पना का भी हिस्सा नहीं हो सकते। एस. आर.दारापुरी उत्तर प्रदेश पुलिस में आईजी रहे हैं। पूरी ज़िन्दगी दारापुरी अपराधियों के खिलाफ खड़े रहे हैं। दीपक कबीर युवा एक्टीविस्ट हैं, एडवोकेट शोएब ज़ुल्म-ओ-सितम के सताए लोगों की आवाज़ कानून के सामने उठाते रहे हैं। सदफ ज़फ़र युवा नेत्री होने के साथ-साथ शानदार कलाकार हैं, वह दो छोटे बच्चों की माँ हैं।
सीएए के खिलाफ जो हिंसा हुई वास्तव में वह इंटेलिजेंस का फेल्योर था। जिन सड़कों को बैरीकेडिंग के ज़रिए बन्द किया गया था उन पर बड़ी संख्या में पत्थर कहाँ से पहुंचे यह तो उनसे पूछा जाना चाहिए जिन्हें सुरक्षा की ज़िम्मेदारी दी गई थी। हिंसा करने वालों को बख्शा नहीं जाना चाहिए लेकिन हिंसा के नाम पर किसी बेगुनाह को पकड़ा भी नहीं जाना चाहिए। जिसने हिंसा की उस पर अदालत इल्जाम तय करे और उसे सजा भी दे।
राजीव गांधी की बेटी और कांग्रेस पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी के साथ लखनऊ में जो बेहूदा व्यवहार हुआ उसकी ज़िम्मेदारी भी तय की जानी चाहिए। यह लोकतंत्र के मुंह पर करारा तमाचा है। प्रियंका किसी अपराधी के घर नहीं उस पुलिस अधिकारी के घर जा रही थीं जिसकी पत्नी बीमार हैं और जिसने अपनी पूरी ज़िन्दगी इस देश को दी है।
लोकतंत्र की यही खूबसूरती होती है कि हुकूमत को विपक्ष में बैठना पड़ता है और विपक्ष को सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी मिल जाती है। हुकूमत करने वाला यह कैसे भूल सकता है कि वह अपने नागरिक के साथ खराब व्यवहार नहीं कर सकता क्योंकि उसी ने उसे हुकूमत में बिठाया है और विपक्ष के साथ भी वह खराब व्यवहार नहीं कर सकता क्योंकि आने वाले कल में वही हुकूमत में बैठ सकता है।
लोकतंत्र में नागरिक सरकार के जिन फैसलों पर सवालिया निशान लगाता है हुकूमत उन सवालों पर फिर से मंथन करती है लेकिन यह कौन सा लोकतंत्र है जिसमें सरकार अपने फैसले से इंच भर भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। सरकार ने तय कर लिया है कि वह सीएए और एनआरसी को हर हाल में लागू करेगी। पूरा देश कितना भी शोर मचाये लेकिन सरकार अपने ट्रैक से नहीं हटेगी।
देश अपने नागरिकों से बनता है। नागरिक डर के साये में जियेगा तो देश कैसे निडर हो सकता है। हुकूमत विपक्ष की राय से देशहित में फैसले करती है। विपक्ष को खत्म कर दिया जाए तो हुकूमत को निरंकुश होने से कौन रोक सकता है। हुकूमत निरंकुश हो जाये तो न नागरिकों का भला हो सकता है न देश का।
देश के सामने समस्याओं के अम्बार हैं। महंगाई सुरसा की तरह मुंह फाड़े खड़ी है। नौकरियां खत्म हो चुकी हैं। बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। धार्मिक सद्भाव वाले देश में अलगाववाद तेज़ी से पांव पसार रहा है। हर तरफ अफवाहों का बाज़ार गर्म है। पेट को रोटी और हाथ को काम की दरकार है लेकिन चन्द खरीदे हुए लोगों के भरोसे सरकार अपनी पीठ ठोकने में लगी है। सच तो यह है कि यह बिके हुए लोग सरकार के दोस्त नहीं बल्कि यह सरकार को काठ की हांडी में बदल रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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