जब मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे तो लोग घर पर ही लाइन लगा देते थे और ठीहे तक पहुंचने से पहले सारा माल बिक जाता था।
आखिर क्या खास बात है गुड्डू के खस्तों में जिन्हें माननीय पूर्व राज्यपाल बाबूजी लालजी टण्डन भोपाल तक मंगवा लेते थे।
यही नहीं जब वो मेदांता में इलाज करा रहे थे तो उन्होंने खस्ते खाने की इच्छा जाहिर की और गये भी थे उनके लिए। गुड्डूजी की कोई परमानेंट दुकान नहीं है।
बक्सा भरकर चौक बाजार में फुटपाथ पर लगाते हैं खस्ते। देखते ही देखते बक्सा खाली हो जाता है। लोग सुबह से ही मोबाइल पर अपना आर्डर बुक करा देते हैं। उनके खस्ते गिनकर बाकायदा पैक हो जाते हैं। घर से लेकर रास्ते तक लोग अपनी अपने पैकेट खुद ले जाते हैं।
अक्सर लोग अपनी बालकनी पर पैसे और डलिया लिए तैनात रहते हैं कि गुड्डू भाई कहीं खामोेशी से निकल न जाएं। क्योंकि वह आवाज देकर यह कभी खस्ते नहीं बेचते।
उनके बाबाजी श्री साहेबदीन भी कभी आवाज नहीं लगाते थे। अब इस करिश्माई खस्तों की अंदर की कहानी के लिए हम आपको मिलवाते हैं सुरेश प्रसाद यानी गुड्डूजी से।
‘मेरे बाबाजी श्री साहेबदीन जी के चार बेटे थे। वो चाहते थे कि सब पढ़ लिखकर नौकरी करें। मेरे पिताजी श्री श्याम नारायण जी रेलवे में थे। मैं सुरेश प्रसाद उर्फ गुड्डू पढ़ने में होशियार था।
ग्रेजुएशन करने के बाद 1988 में मेरी नौकरी बैंक में लगी लेकिन ग्वालियर नहीं जाना चाहते थे। बाबाजी व दादीजी चाहती थीं कि मैं उनकी आंखों के सामने रहूं।
सो यहां भी बैंक में इंटरव्यू तक पहुंचे लेकिन बदकिस्मती से उसमें सफल नहीं हो पाये। खस्ते की लाइन में आने की मेरी कहानी भी सामान्य नहीं है। हुआ ये कि जब मैं पैदा हुआ तो साल भीतर मेंरी मां का देहान्त हो गया। मेरे पिताजी ने दूसरी शादी कर ली। मेरा लालन पालन बाबा-दादीजी ने किया। बाबाजी खस्ते का काम करते थे।
1938 से लेकर 1990 तक उन्होंने बिना नागा खस्ते बेचे। जब उन्होंने यह काम शुरू किया था तब एक पैसे का एक खस्ता बिकता था। वह किसी मैरिज पार्टी वगैरह कैटरिंग करने कभी नहीं जाते थे।
वे कहते थे कि ग्राहक मेरा इंतजार करते हैं मैं उन्हें निराश नहीं कर सकता। मैं छोटा था तो उनका विशेेष प्यार और दुलार मुझे मिलता था। खस्ते बेंचने में मैं उनकी अक्सर मदद कर दिया करता था।
लोग उनका बहुत सम्मान किया करते थे। बुक्कल नवाब से लेकर अटल जी, मुलायम जी, अखिलेशजी, गोपालजी टण्डन तक उनके बनाये खस्ते चख चुके हैं।” बताते हैं गुड्डू भइया।
‘1990 में जब बाबाजी का देहान्त हुआ तो मैंने उनके काम को पूरी शिद्दत से सम्भाल लिया। मुझे बैंक की ही नौकरी पसंद थी। नाकामियों की वजह से नौकरी करने का मेरा मन उचट सा गया था। और फिर मुझे बना बनाया मार्केट मिल रहा था। काम तो मुझे आता ही था बस मन को समझाना था। आज हालत ये है कि चौक बाजार तक पहुंचने से पहले ही मेरा खस्ता रास्ते में बिक जाता है। अब मेरे पास कई दिन पहले से ही खस्तों को आर्डर आ जाता है। हमारे कई ग्राहक ऐसे हैं जो रोज ही सौ-पचास खस्ते लेते हैं।” ‘हम तीन तरह के खस्ते बनाते हैं। मीडियम, करारा और मुलायम। हम खस्ते के साथ छिलके वाले आलू की मसालेदार सूखी सब्जी देते हैं। हमने एक रुपये के दो खस्ते से शुरू किया था आज आठ रुपये का एक खस्ता बिकता है।
पिछले साल हेरिटेज वॉक में एक पर्यटकों का एक दल इंग्लैंड से मेरे पास आया था। उन्होंने खूब खस्ते खाये और मुझे इंग्लैंड आने का न्योता दिया। मेरे तीन बच्चे हैं बेटी बड़ी है और जॉब में है।
बेटा ग्रेज्यूएशन कर रहा है। एक बेटी सेकेंड स्टैंडर्ड में हैं। मेरी साली साहिबा के कोई औलाद नहीं थी सो दूसरी बेटी अपनी साली साहिबा के लिए दुनिया में लेकर आये लेकिन बाद में कहानी पलट गयी अब ये हमारी सबसे दुलारी बेटी है।
अगर मेरा बेटा इस काम को आगे बढ़ता है तो अच्छी बात है। जब तक मेरे हाथ पांव चल रहे हैं जनता की सेवा होती रहेगी। बाद का ईश्वर जाने।” गुड्डू भइया घर के बाहर इंतजार कर रहे रिक्शे वाले के रिक्शे पर खस्ते वाला बक्सा व अन्य सामान लादने लगते हैं।