विवेक कुमार श्रीवास्तव
बुधवार को हुई महाराष्ट्र के गढ़चिरौली की घटना से एक बार फिर नक्सलवाद का खौफनाक चेहरा सामने आया है। हमले में 16 जवानों की मौत ने सभी को झकझोर कर रख दिया। आखिर क्या है नक्सलवाद? और सरकारें क्यों खत्म नहीं कर पा रहीं“लालआतंक” को।पिछले 50 वर्षों में देश के कई राज्य ‘लाल आतंक’ में खून से लाल हो चुके हैं। हर साल सुरक्षाबलों और आम लोगों की मौत की खबरें अखबार की सुर्खियां बनती रही हैं। 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ ये “लाल आतंक”10 से ज्यादा राज्यों में अपने खूनी पंजे फैला चुका है।
क्यों खत्म नहीं हो रहा नक्सलवाद
एक बड़ी अजीब बात यह भी है कि यह नक्सली सिर्फ़ उस जगह मिलते हैं जहाँ पर धरती में बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं जैसे छत्तीसगढ़ और झारखण्ड। जंगल तो और दूसरे राज्यों में भी हैं लेकिन ये नक्सली वहां नहीं पाए जाते हैं। इस बात को और भी अच्छे से समझने के लिए हमे प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खेल को समझना पड़ेगा। लेखक “फेलिक्स पैडल” की किताब “आउट ऑफ दिस अर्थ” के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों की लूट के इस खेल में दुनिया की बड़ी बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियां शामिल हैं।
इन इलाकों के पहाड़ों में दुनिया के सबसे बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन जैसे एल्युमीनियम, कोयला, लोहा आदि छिपे हैं और दुनिया की सभी कॉर्पोरेट कंपनियों की नज़र इन पर है। इन पहाड़ों के ऊपर आदिवासियों के गांव बसे हुए हैं यानि वो बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन आदिवासियों के घरों के नीचे ज़मीन के अंदर हैं।
छत्तीसगढ़ में नारायणपुर जिले केअबूझमाड़ के जंगलों में परमाणु शक्ति के लिए उपयोग में लायी जाने वाली महत्वपूर्ण खनिज कोलम्बाइट अयस्क प्रचुर मात्रा में मौजूद है। कुछ साल पहले की एक रिपोर्ट के मुताबिक ये पता चला है कि नक्सलियों द्वारा सैकड़ों किलोग्राम कोलम्बाइट अयस्क का अवैध खनन किया गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि लाल आतंक की आड़ में ये सारा खेल इन्हीं बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का पाने के लिए हो रहा है।
इन नक्सलवादियों के कुछ राज्य सरकारों, विदेशी ताकतों और कुछ कॉर्पोरेट कंपनियों के साथ संदिग्ध रिश्ते हैं जहाँ से इन्हें मदद मिलती है। उत्तरपूर्व के उग्रवादी संगठनों के माध्यम से चीन द्वारा भूटान,म्यांमार और नेपाल बॉर्डर के ज़रिये नक्सलियों को हथियार सामग्री पहुंचाई जाती है। पिछले साल झारखण्ड के चित्र जिले के एक गांव में नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे एक सर्च ऑपरेशन के दौरान एक टूटी-फूटी झोंपड़ी में ऐसे हथियार मिले जिसने सुरक्षा बलों के होश उड़ा दिये थे। सुरक्षा बलों को इस झोपड़ी से खतरनाक हथियारों का जखीरा मिला जिसमें एक ऐसी रायफल भी थी जिसका इस्तेमाल अमेरिकी सेना किया करती थी। जिससे साबित होता है कि नक्सलवाद को विदेशी मदद मिल रही है क्योंकि ऐसे हथियार देश में मिलना संभव ही नहीं है।
छत्तीसगढ़ के चर्चित आईजी एसआरपी कल्लूरी ने एक बार एक सेमिनार में नक्सलवाद पर बोलते हुए कहा था कि नक्सलवाद एक अन्तरराष्ट्रीय साजिश है ताकि भारत की आंतरिक सुरक्षा को लेकर हमेशा खतरा बना रहे और हम कभी सुपर पावर न बन पाएं। विदेशी ताकतें इस तरह की गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों का इस्तेमाल करती हैं।
अबूझमाड़ का रहस्य
छत्तीसगढ़ का अबूझमाड़ दरअसल अपने नाम की तरह ही अबूझ भी है। कहते हैं किइसे अघोषित सरहद माना जाता है। यहाँ छत्तीसगढ़ सरकार की हुकूमत खत्म हो जाती है और फिर शुरू होता है जनताना सरकार का इलाका। ‘जनताना सरकार’यानी ‘जनता की सरकार’ जिसे माओवादी और नक्सली अपने शासन के मॉडल के रूप में पेश करते हैं।ये सरहद हिंदुस्तान और चीन की सरहद से भी ज़्यादा संवेदनशील मानी जाती है।
पिछले कई सौ सालों से इस इलाके के भीतर 237 गांव बसे हैं लेकिन इन गांवों में रहने वाले किसी भी आदिवासी के पास उसकी ज़मीन या मकान का कोई कागज़ नहीं है। सरकार के पास भी इनकी जानकारी नहीं है। इतना ही नहीं जीपीएस और गूगल मैप के इस दौर में भी अबूझमाड़ में कुल कितने गांवों में किसके पास कितनी ज़मीन है। चारागाह या सड़कें हैं या नहीं या जीवन के दूसरी ज़रूरी चीजों की उपलब्धता कैसी है, इसका कोई रिकार्ड कहीं उपलब्ध नहीं है। ये गांव कहां हैं या इनकी सरहद कहां है, यह भी पता नहीं है।
आपको ये जानकर हैरानी होगी कि, बस्तर के चार हज़ार वर्ग किलोमीटर इलाके में फैले हुए नारायणपुर ज़िले के अबूझमाड़ में पहली बार अकबर के ज़माने में राजस्व के दस्तावेज़ एकत्र करने की कोशिश की गई थी,लेकिन घने जंगलों वाले इस इलाके में सर्वे का काम अधूरा रह गया।उसके बाद से लेकर करीब दो साल पहले जाकर यहां राजस्व सर्वेक्षण का काम नहीं हुआ था। आज़ादी के बाद भी यह इलाका अबूझा रह गया। जहां धीरे-धीरे माओवादियों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। आज की तारीख में इसे नक्सलियों और माओवादियों का गढ़ कहा जाता है।
नक्सलवाद का इतिहास
पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले का एक छोटा सा गाँव है नक्सलबाड़ी। जिसके नाम से ही नक्सलवाद शब्द का जन्म हुआ है। यह गाँव नेपाल, तिब्बत और बांग्लादेश की सीमाओं के काफी करीब है। 2 मार्च 1967 को एक आदिवासी युवक को उसकी जमीन पर खेतीबाड़ी करने से वहीं के स्थानीय जमीदारों ने रोका और उस पर हमला भी किया। जबकि उस युवक का कानूनन यह अधिकार था कि वह उस जमीन पर खेतीबाड़ी कर सके। घटना के विरोध में 25 मार्च 1967 को चारू मजूमगदार के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी के स्थानीय जनजातीय लोगों ने जमीदारों पर हमला कर दिया। यह विद्रोह लगभग 72 दिनों तक चला जिसमें 1 सब इंस्पेक्टर 9 जनजातीय लोगों की भी मौत हुई। पश्चिम बंगाल में चल रही यूनाईटेड फ्रन्ट सरकार द्वारा इसे दबाने की कोशिश की गई। केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने भी विद्रोह के दमन में राज्य सरकार की मदद की थी ।
धीरे-धीरे नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ यह विद्रोह तीन गाँवों तक फैल गया नक्सलबाड़ी,खारीबाडी,फांसीदेव। इस आंदोलन के तीन नेता भी हुए। चारू मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल। इनके तीन उद्देश्य भी थे। खेत जोतने वालों को खेत का हक मिले, विदेशी पूंजी की ताकत समाप्त की जाये, वर्ग और जाति के विरुद्ध संघर्ष हो।
बाद में इसमें तीन गुट भी उभर कर सामने आये। सीपीआई (मार्क्सवादी लेनिनवादी माले), पीडब्ल्यूजी (पीपुल्स वॉर ग्रुप) और एमसीसी (माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर)। इस तीन की तिगणी से शुरू हुआ ये आज नक्सलवाद के रूप में देश के लिए एक नासूर बन चुका है। 11 राज्यों के 90 जिले आज नक्सलवाद से प्रभावित हैं जिनमें 30 जिलों में ही अधिकतर घटनाएँ होती हैं। जबकि 2015 में यह आँकड़ा106 जिलों तक फैला था। नक्सलवाद से सबसे प्रभावित राज्य हैं छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओडिसा और बिहार। पश्चिम बंगाल, महाराष्ट, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना कम प्रभावित राज्य हैं।
आतंकवाद में तब्दील होता गया नक्सलवाद
यह विद्रोह शुरू हुआ था किसानों के अधिकारों की लड़ाई के लिए लेकिन यह जल्द ही अपने उद्देश्य से भटक गया।चारू मजूमदार इस आंदोलन की अगुवाई अपने लेखों के जरिए भी कर रहे थे। बीच में मजूमदार-सान्याल के बीच में मतभेद पैदा हो गया और आंदोलन दो धड़ों में बंट गया। 1972 में एक पुलिस थाने में हिरासत में ही मजूमदार की मौत हो गई और पूरा आंदोलन तितर बितर हो गया, और ये विद्रोह धीरे-धीरे आतंकवाद की तरफ बढ़ता चल गया।
कोलकाता के पत्रकार बाप्पादित्या पाल ने अपनी किताब “द फ़र्स्ट नक्सल” में दावा किया है कि खुद नक्सली नेता “कानू सान्याल” के अनुसार इस विद्रोह की शुरुआत में ही नक्सली अपने उद्देश्यों से भटक गए थे और आतंकवादी बन गए थे। कानू सान्याल का मानना था कि नक्सल विद्रोह के अपने उद्देश्यों से भटकने के बाद नक्सलियों और आतंकियों में कोई फ़र्क नहीं बचा था। कानू सान्याल ने यह भी कहा कि विद्रोह की शुरुआत में ही नक्सली आम आदमी से कट गए थे और सिर्फ़ हथियार इकट्ठा करने में लग गए थे।इन बातों से हमें यह समझ लेना चाहिए कि इस नक्सलवाद का ग़रीबों से कोई लेना देना नहीं है और यह कुछ राज्य सरकारों और विदेशी ताकतों के हाथ का औज़ार मात्र है।
सलवा जुडूम
नक्सलवादा पर काबू पाने के लिए सरकारों के साथ सामाजिक स्तर पर भी कई कोशिशें की जाती रहीं। इन्हीं में से एक था सलवा जुडूम। सलवा जुडूम एक आदिवासी शब्द है, जिसका अर्थ होता है- ‘शांति का कारवां’। कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा को सलवा जुडूम का जनक माना जाता है।
छत्तीसगढ़ में जब नक्सलियों का आतंक बढ़ने लगा तो कभी कम्युनिस्ट नेता रहे महेंद्र कर्मा ने कांग्रेस में आने के बाद 2005 में सलवा जुडूम की शुरुआत की थी। इसका मकसद था नक्सलियों को उन्हीं की भाषा में सबक सिखाना। इस अभियान में ग्रामीणों की फोर्स तैयार की जाती थी, जो माओवादियों के खिलाफ लड़ सके। ग्रामीण आदिवासियों को हथियार देकर उन्हें स्पेशल पुलिस ऑफिसर बनाया गया। सलवा जुडूम से नक्सलियों के आतंक पर काफी हद तक अंकुश भी लगा।
महेन्द्र कर्मा की हत्या
नक्सलियों ने बदला लेने के लिए सुकमा में 25 मई 2013 को कांग्रेस के काफिले पर हमला कर महेंद्र कर्मा सहित 29 नेताओं की हत्या कर दी थी। इस काफिले पर हमला करने का उद्देश्य ही महेन्द्र कर्मा को मारना था ताकि सलवा जुडूम अभियान को खत्म किया जा सके। हालांकि उससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में सलवा जुडूम को अवैध मानते हुए इस पर रोक लगाने का आदेश दिया था।
सिकुड़ता दायरा
नक्सली समस्या को लेकर ढेर सारी चुनौतियों के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पहले की अपेक्षा काफी कमी आई है।सरकार के प्रयास नक्सली हिंसा को रोक पाने में काफी हद तक असरदार दिखाई पड़ रहे हैं। वामपंथी उग्रवाद का प्रभाव कभी 10 राज्यों के 126 जिलों में हुआ करता था वो अब 11 राज्यों के 90 जिलों में सिमटकर दम तोड़ने लगा है। केरल के 3 जिलों को सरकार ने नक्सल प्रभावित इलाकों में दूरगामी सोच के आधार पर रखा है ताकि इन्हें शुरुआती दौर में ही पैर फैलाने से रोका जा सके।
गृहमंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वामपंथी उग्रवाद वाले अतिप्रभावित जिलों की संख्या अब 35 से घटकर 30 हो गई है। इन्हीं 30 अतिप्रभावित वामपंथी उग्रवाद प्रभावित जिलों में कुल नक्सली हिंसक वारदातों की 90 फीसदी घटनाएं घटी हैं और इन 30 जिलों में सरकार अपने संसाधनों का विशेष हिस्सा खर्च करेगी जिससे वामपंथी उग्रवाद से निपटने में कामयाबी मिल सके।
सरकारी कोशिशें
नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सली समस्या से निपटने के लिये सरकार समय-समय पर काम करती रही है। हालाँकि, इन इलाकों में किसी परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा करना हमेशा ही एक चुनौती रही है।इंफ्रास्ट्रक्चर, सड़क, सेलफोन कनेक्टिविटी, पुल, स्कूल जैसे विकास कार्यों पर काम किया जाता रहा है।
नक्सल प्रभावित इलाकों में अब तक हजारों की तादाद में मोबाईल टॉवर लगाए जा चुके हैं जबकि कई हज़ार किलोमीटर सड़क का निर्माण भी हो चुका है।सबसे अधिक नक्सल प्रभावित सभी 30 ज़िलों में जवाहर नवोदय विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय संचालित किये जारहे हैं लेकिन, गौर करने वाली बात है कि ये सभी तीस ज़िले अभी भी सर्वाधिक नक्सल प्रभावित हैं।
जून, 2013 में आजीविका योजना के तहत ‘रोशनी’ नामक विशेष पहल की शुरूआत की गई थी ताकि सर्वाधिक नक्सल प्रभावित ज़िलों में युवाओं को रोज़गार के लिये प्रशिक्षित किया जा सके। लेकिन मार्च, 2015 तक सिर्फ दो राज्यों बिहार और झारखंड को ही फंड आवंटित किया जा सका।पिछले ही साल, केंद्रीय मंत्री ने नक्सलवाद को खत्म करने के लिये ‘समाधान’ नामक 8 सूत्री पहल की घोषणा की है। इसके तहत नक्सलियों से लड़ने के लिये रणनीतियों और कार्ययोजनाओं पर जोर दिया गया है।हालाँकि, समय-समय पर सभी सरकारों ने इस समस्या से निपटने के लिये कोशिशें तो की हैं लेकिन, फिर भी इस पर पूरी तरह कामयाबी नहीं मिल सकी है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )