कुमार भवेश चंद्र
मीडिया की आजादी सवालों में है ! सवाल तो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर भी हैं। तो सवाल ये भी है कि लोकतंत्र के चौथे खंभे का सवाल इतना तीखा क्यों होने लगा है ? अभी दो दिन पहले ही गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट में इस सवाल पर बेहद तीखी चर्चा हुई। पैनलिस्ट पत्रकार थे। पैनल में शामिल तो मैं भी था। बात मैंने भी रखी। बारी बारी से बात सबने रखी। चर्चा गरम थी। कुछ ताजा जख्म उभरे।
सत्ता प्रतिष्ठानों से लेकर समाज की ओर से मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर उभरने वाले सवाल भी बहस के मुद्दे थे। कुछ बातें बिंदू पर तो हुईं लेकिन विमर्श में कुछ अधिक समय पैनलिस्ट पत्रकारों के अपने नजरिये, उनके अनुभवों, उनके फलसफों पर अधिक केंद्रित हो गई। विषय मौजूं था इसलिए इसको लेकर श्रोताओं की उत्सुकता भी अधिक थी। उनकी मौजूदगी भी उल्लेखनीय कही जाएगी।
गोरखपुर जैसे शहर में किस्सागोई सुनने वाली भीड़ पत्रकारिता के इस गंभीर विषय पर भी उतना ही जोश दिखाए तो मैं कहूंगा कि लोग चौथे खंभे की ओर अब भी उम्मीद की आंखें लगाए बैठे हैं।
जब हर तरफ संवाद की जगह तोहमतों का बवंडर खड़ा दिख रहा है। सवाल ये नहीं पूछा जा रहा कि समाज और देश को आगे बढ़ाने के लिए किस दिशा में काम होना चाहिए, बल्कि ये सवाल अधिक तीखेपन के साथ रखा जा रहा है कि पहले क्या किया गया। भविष्य की राह तय करते हुए अतीत में इतना झांकने की जरूरत से साफ है कि हम आगे बढ़ने को लेकर बहुत उत्सुक, उत्साहित और उदिग्न नहीं हैं? साथ मिलकर आगे बढ़ने का संकल्प तो कहीं दिखता ही नहीं। न समाज में न राजनीति में। हर सूचना और घटना को सियासी चश्मे से देखने की लत बढ़ती जा रही है।
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ऐसे में गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट के तहत ‘शब्द संवाद’ नाम से इस आयोजन ने एक साथ कई विषयों पर सीधे संवाद के एक नए सिलसिले को आगे बढ़ाने की जोरदार कोशिश की है।
लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका चौथे स्तंभ की मानी जाती है। और जब सवाल पूछा जा रहा हो कि ‘इसका मीडिया, उसका मीडिया, किसका मीडिया’ तो जाहिर है, विश्वसनीयता निशाने पर है। सवालों के घेरे में है। इस सवाल का जवाब आना चाहिए था। जवाब आया भी लेकिन मुक्कलम और स्पष्ट जवाब की उम्मीद अधूरी रही। दर्शकों की जिज्ञासा समय की सीमा के दबाव में फंस गई। ठीक वैसे ही जैसे ये सवाल दो धड़ों में बंट गया कि सरकार मीडिया पर अनुचित दबाव बनाने की कोशिश कर रही है या नहीं। एक अनुभव कहता रहा, दबाव और डर दोनों दिखाया जा रहा है। दूसरा इससे इनकार करता रहा। एक तीसरा सुर ये भी था। मीडिया पर डर और दबाव पहले भी था, आज भी। पर आज ये अधिक तीखा हो गया है।
सत्ता प्रतिष्ठान सूचनाओं और घटनाओं को अपने पक्ष में गढ़ने के लिए आजाद मीडिया को सत्ता की हनक, पुरस्कार, प्रभाव और पैसे से खरीदने की कोशिश कर रहा है। मीडिया में कुछ लोग आ भी इसीलिए रहे हैं कि उन्हें सत्ता का अटेंशन चाहिए। उन्हें मीडिया में अपने होने की छोटी-बड़ी कीमत चाहिए। और इसके बदले में वह सच को झूठ और झूठ को सच बताने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। उन्हें उस सच से कोई वास्ता नहीं, जो देश और समाज के हित में है।
विरोध और समर्थन सीधे सीधे दो बड़े समूहों में साफ तौर पर विभाजित दिख रहा है। विरोध करने वाले को सब तरफ गलत दिख रहा है और समर्थन करने वाले को सबकुछ सही। सही और गलत के बीच कोई जगह नहीं। समर्थन या विरोध मुद्दे को आधार पर नहीं झुंड के आधार पर हो रहा है।
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सोशल मीडिया के इस दौर में सभी नामचीन पत्रकारों की प्रतिबद्धता भी शीशे की तरफ साफ हो चली है। इसलिए यह टकराव और तीखा नजर आता है। एक निष्पक्ष पत्रकार और स्वतंत्र नागरिक या वोटर के रूप में उनकी पहचान गड्डमड्ड है। किसके विचार किस दल के अधिक करीब है इस आधार पर उनके तथाकथित आकलन को तौला जा रहा है तो क्या गलत है? सोशल मीडिया पर उनके स्टेट्स उनके पूरे आकलन पर भारी पड़ रहे हैं।
देश में तकनीक के बदलाव ने आम लोगों के साथ सियासी दलों को भी संचार और संवाद का बहुत बड़ा प्लेटफ़ॉर्म दे दिया है। मीडिया पर उनकी निर्भरता तो है लेकिन बेचारगी के स्तर पर नहीं। बेचारगी का ये आलम मीडिया के पाले में अधिक दिख रहा है।
सभी दलों के पास मीडिया प्रबंधकों की बड़ी जमात है। सोशल मीडिया की बड़ी टीम है। सरकारों के पास सूचना विभाग के अतिरिक्त मीडिया तंत्र है। वे अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए संवाद का पूरा तंत्र विकसित कर चुके हैं।
दूसरी ओर अपने प्रतिस्पर्धी अखबारों और चैनलों से आगे निकलने की होड़ में अधिकतर मीडिया हाउस के लिए धनबल के साथ साथ बड़े और प्रभावशाली नेताओं का सहयोग-समर्थन भी जरूरी हो गया है। मीडिया घरानों की आपसी प्रतिद्वंद्विता ने भी ‘इसका मीडिया, उसका मीडिया’ सिस्टम के उभार दिया है।
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कहने की जरूरत नहीं कि मीडिया आज एक बहुत बड़ा उद्योग बन चुका है। इतने बड़े उद्योग को खड़ा रखने और उसे चलाने रहने के लिए भारी धन की जरूरत रहती है। क्या कोई भी मीडिया हाउस अपने संपादकों को इतनी आजादी दे सकता है कि वह उसके आर्थिक हितों की अनदेखी कर सके? क्या कोई भी पत्रकार अपने अखबार मालिक या चैनल मालिक के आर्थिक हितों के ऊपर उठकर सत्ता तो छोड़ दीजिए मामूली लोगों के विरोध में उठ खड़े होने का साहस कर सकता है? सवाल ये भी है मीडिया में कितने लोग सच कहने की कुछ भी कीमत अदा करने के लिए तैयार हैं? या फिर परिस्थितियां कितने लोगों को इस रास्ते पर चलने की इजाजत देती हैं?
निश्चित ही लोकतंत्र के सभी खंभों की तरह इस खंभे को भी अपनी ताकत का अहसास कराने की चुनौती है। और ये काम इतना आसान और सरल नहीं है। सच की ताकत से विश्वसनीयता का रिश्ता पुराना है। सच तो यही है कि
सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के वसूलों से
कभी खुशबू आ नहीं सकती कागज के फूलों से..
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)