कृष्णमोहन झा
दिल्ली इस समय कोरोना की तीसरी लहर का शिकार बना हुआ है इसलिए सरकार लोगों से मास्क लगाने और सामाजिक दूरी बनाए रखने केलिए बार बार अपील कर रही है । ऐसी नाजुक घड़ी में दिल्ली को दूसरे राज्यों से जोड़ने वाली सीमाओं पर हजारों किसानों का इकट्ठा होना गंभीर चिंता का कारण बन गया है।
नए कृषि कानूनों के विरोध में विगत दो माहों से पंजाब में धरना – प्रदर्शन कर रहे किसानों ने दिल्ली को इस तरह से घेरने की मंशा जाहिर कर दी है कि दिल्ली की सीमाओं से दूसरे राज्यों के लोग दिल्ली में प्रवेश न कर सकें और दिल्ली से कोई बाहर न जा सके।
किसानों का मानना है कि जब तक वेदिल्ली में पूरी तरह जाम की स्थिति निर्मित नहीं कर देंगे तब सरकार उनकी मांगों पर ध्यान नहीं देगी। यह भी कम आश्चर्य जनक बात नहीं है कि आंदोलनकारी किसानों को राजमार्गों के अलावा और कोई स्थान धरना और प्रदर्शन जारी रखने के लिए उपयुक्त नहीं लग रहा है।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आम जनता को हो रही असुविधा को ध्यान में रखते हुए किसानों को उनका धरना प्रदर्शन जारी रखने के लिए बुराड़ी का मैदान उपलब्ध कराने का प्रस्ताव दिया था और यह आश्वासन भी दिया था कि आंदोलनकारी किसानों के बुराड़ी पहुंचने के बाद सरकार उनसे बातचीत शुरू करने में कोई विलंब नहीं करेगी।
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किसानों ने केंद्रीय गृह मंत्री के इस प्रस्ताव को ‘प्रेम भरी धमकी ‘ बताते हुए खारिज कर दिया। किसानों का कहना है कि आंदोलनकारी किसानों पर बुराड़ी जाने के लिए दबाव डालने के पीछे सरकार की असली मंशा यह है कि वह उन्हें खुली जेल में कैद करना चाहती है।
गौरतलब है कि दिल्ली में कई महीनों तक ठहरने के इरादे से आए किसानों अपने आंदोलन को जारी रखने के लिए रामलीला मैदान अथवा जंतर मंतर मैदान आवंटित किए जाने की मांग कर रहे हैं लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है।
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने पहले किसानों के साथ बातचीत के लिए तीन दिसंबर की तारीख तय की थी परंतु उनके इस प्रस्ताव पर किसानों ने कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
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इस बीच रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के बीच बातचीत के कई दौर भी हो चुके हैं और अब सरकार और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों के बीच राजधानी स्थित विग्यान भवन में बात चीत करने पर सहमति बनी है।
दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचने के बाद किसानों को यह उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रविवार को आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले उनके कार्यक्रम ‘मन की बात ‘ में उनकी मांगों के संबंध में कोई आश्वासन अवश्य देंगे परंतु प्रधानमंत्री ने अपने उस कार्यक्रम में नए कृषि कानूनों से किसानों को होने वाले फायदे गिनाते हुएअसली जोर इस बात पर दिया कि नए कृषि कानूनों ने देश के किसानों को ने अधिकार और नए अवसर प्रदान किए हैं।
प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ में कुछ उदाहरणों के माध्यम से यह भी बताया कि इन कृषि कानूनों के लागू होने के बाद किसानों को अपना रुका हुआ भुगतान कितनी जल्दी मिल चुका है।
मन की बात कार्यक्रम के दूसरे दिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में आयोजित एक समारोह के मंच से एक बार फिर किसानों को आश्वस्त किया कि सरकार किसानों के हितों पर कोई आंच नहीं आने देगी। किसानों को सरकार की नीयत पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने दृढ़ता पूर्वक कहा कि सरकार की नीयत गंगा जल के समान पवित्र है।नए कृषि कानूनों को लेकर किसानों के मन में उठ रही सारी शंकाओं का समाधान प्रधानमंत्री ने अपने इस भाषण में जिस तरह किया है उसके बाद किसानों को अपने मन से उस काल्पनिक भय को निकाल देना चाहिए जिसके वशीभूत होकर वे दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं।
प्रधानमंत्री पद की बागडोर नरेन्द्र मोदी के हाथों में आने के बाद केंद्र सरकार ने फसल बीमा योजना, किसान सम्मान निधि,किसान पेंशन योजना ,न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी जैसे जो क्रांतिकारी कदम उठाए हैं उनको देखते किसानों को सशंकित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।’
प्रधानमंत्री की इस बात पर भी किसानों को अवश्य गौर करना चाहिए कि जिन दलों ने सत्ता में रहते हुए किसानों के हितों की चिंता नहीं की वे नए कृषि कानूनों को लेकर उनके मन में संदेह पैदा कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री दरअसल किसानों को ऐसे दलों की राजनीतिक मंशा के प्रति सचेत करना चाहते हैं जो किसान आंदोलन में किसानों से अधिक अपने हित साधना चाहते हैं।
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने संसद में कृषि विधेयकों के पारित होने के बाद कहा था कि इन विधेयकों के प्रावधानों को लेकर अगर किसी किसान के मन में कोई संदेह है तो वह कभी उनके कार्यालय में आकर उनसे अपनी बात कह सकता है।इतना ही नहीं, अक्टूबर में सरकार की ओर से किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से सचिव स्तरीय वार्ता की पहल की गई थी।
उसके बाद नवंबर में रेलमंत्री पीयूष गोयल भी उनसे बात कर चुके हैं और सरकार ने हर वार्ता में किसानों को यह भरोसा दिलाया है कि इन नए कानूनों का मकसद कारपोरेट सेक्टर नहीं बल्कि किसानों की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाना है परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों के काल्पनिक भय को दूर करने के लिए सरकार को ही आगे आना होगा।
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दरअसल सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आंदोलनकारी किसानों में अभी भी एक वर्ग ऐसा है जिसने ने कृषि कानूनों के प्रावधानों का बारीकी से अध्ययन भी नहीं किया है।इस तथ्य को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि पंजाब में अकाली दल कृषि कानूनों का विरोध करके किसानों के बीच अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने की कोशिश कर रहा है।
किसानों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित कर वह खुद को उनका सच्चा हितैषी साबित करना चाहता है। यही स्थिति पंजाब की अमरिंदर सरकार की भी है। किसानों के इस आंदोलन के प्रति उसका समर्थन किसानों के बीच पार्टी का जनाधार बढ़ाने का मनचाहा जरिया बन गया है।
कांग्रेस के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि जब उसने स्वयं ही इन कृषि सुधारों का किसानों से वादा किया था तो अब उसे इन कृषि कानूनों का विरोध करने का हक कैसे दिया जा सकता है।
किसानों की सबसे बड़ी शंका यह है कि इन क़ृषि कानूनों के पूरी तरह अमल में आने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर राज्यों की मंडियों में अनाज की खरीद बंद कर दी जाएगी और फिर कारपोरेट सेक्टर से उन्हें अपने उत्पाद का वह मूल्य नहीं मिल सकेगा जिस पर वे राज्य की मंडियों में अपना उत्पाद बेच सकते थे।
जब उनके पास अपना उत्पाद और कहीं बेचने का विकल्प नहीं होगा तो मजबूरन उन्हें कारपोरेट सेक्टर की शर्तैं मानना पडेगी। किसानों का यह भय काल्पनिक है।
सरकार उन्हें बार बार यह भरोसा दिला चुकी है कि मंडी व्यवस्था समाप्त करने का उसका कोई इरादा नहीं है। जिस देश में आधी से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर हो उस देश में कोई भी सरकार किसानों को नाराज करके कारपोरेट सेक्टर को खुश करने का जोखिम नहीं उठा सकती है। फिर मोदी सरकार द्वारा किसानों के हित में उठाए गए कदमों को देखते हुए उसके बारे में यह शंका तो निराधार ही मानी जाएगी।